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शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

गीत 17 :हर बार समर्पण करता हूँ...

एक गीत :हर बार समर्पण करता हूँ...

हर बार समर्पण करता हूँ हर बार गया ठुकराया हूँ
अधखुली उनींदी पलकों पर
इक मधुर मिलन की आस रही
दो अधरों पर तिरते सपने
चिर अन्तर्मन की प्यास रही
हर बार याचना सावन की हर बार अवर्षण पाया हूँ

तेरे घर आने की चाहत
गिरता हूँ कभी फिसलता हूँ
पाथेय नहीं औ दुर्गम पथ
लम्बा है सफ़र ,पर चलता हूँ
हर बार कल्पना मधुबन की, हर बार विजन वन पाया हूँ

अभिलाषाओं की सीमाएं
क्यों खींच नहीं डाली हमने
कुछ पागलपन था और नहीं
ये हाथ रहे खाली अपने
हर बार समन्वय चाहा है, हर बार प्रभंजन पाया हूँ

क्यों मेरे प्रणय समर्पण को
जग मेरी कमजोरी समझा
क्यों मेरे पावन परिणय को
तुमने समझा उलझा उलझा
हर बार भरा हूँ आकर्षण , हर बार विकर्षण पाया हूँ
हर बार समर्पण करता हूँ..........

-आनन्द

5 टिप्‍पणियां:

  1. क्यों मेरे प्रणय समर्पण को
    जग मेरी कमजोरी समझा
    क्यों मेरे पावन परिणय को
    तुमने समझा उलझा उलझा
    हर बार भरा हूँ आकर्षण , हर बार विकर्षण पाया हूँ
    हर बार समर्पण करता हूँ..........
    bahut hi sundar hai .........aise vichar jiwan me soundarya se bhar dete hai ........bahut bahut bahut sundar rachana

    जवाब देंहटाएं
  2. anand ji bahut hi bhaavpurn madhur geet hai, umda rachna ke liye badhai.

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  3. KSHMAA KIJIYEGA....
    ITNE SAAMARTHYAVAAN HO KAR BHI YACHNA ?


    YAACHAK KO YAHAN KOI SAAMAN NAHIN MILTA
    SAAMAN MIL BHI JAYE TO SAMMAN NAHIN MILTA

    ___ISLIYE YAACHNAA NHIN AAKRAMANA KA TEVAR HO !
    _________________YALGAAR HO !

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  4. आ० ओम आर्य जी/योगेश जी
    उत्साह वर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
    सादर
    --आनन्द
    आ० अलबेला खत्री जी
    आप की टिप्पणी अच्छी लगी
    समर्थवान मैं नहीं ,परमपिता परमेश्वर है ,उनसे तो याचना ही की जा सकती है
    सादर
    -आनन्द

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  5. anand ji namaskaar yek ke baad yek bhut hi behtreen rachnaye laate hai ye layne to tir ki tarah ghus gayiक्यों मेरे प्रणय समर्पण को
    जग मेरी कमजोरी समझा
    क्यों मेरे पावन परिणय को
    तुमने समझा उलझा उलझा
    हर बार भरा हूँ आकर्षण , हर बार विकर्षण पाया हूँ

    mera prnaam swikaar kare
    saadar
    praveen pathik
    9971969084

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