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रविवार, 27 मार्च 2011

एक ग़ज़ल 022 : मुहब्बत की जादू बयानी......

फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
122----------122------122--------122
बह्र-ए-मुतक़रिब मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल : 022 ओके

मुहब्बत की जादू-बयानी न होती
अगर तेरी मेरी कहानी न होती

न "राधा" से पहले कोई नाम आता
अगर कोई ’मीरा" दिवानी न होती

ये राज़-ए-मुहब्बत न होता नुमायां
जो बहकी हमारी जवानी न होती

हमें दीन-ओ-ईमां से क्या लेना-देना
बला Ye अगर आसमानी न होती

उमीदों से आगे उमीदें न होतीं
तो हर साँस में ज़िन्दगानी न होती

कोई बात तो उन के दिल पे लगी है
ख़ुदाया ! मेरी लन्तरानी न होती

रकीबों की बातों में आता न गर वो
तो ’आनन’ उसे बदगुमानी न होती

-आनन्द.पाठक

नुमायां = ज़ाहिर होना
लन्तरानी = झूटी शेखी /डींग मारना
[सं 20-05-18]



5 टिप्‍पणियां:

  1. न "राधा" से पहले कोई नाम आता
    अगर कोई ’मीरा" दिवानी न होती
    achhi lagi gajal mubarak ho

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  2. बहुत ही खूबसूरत लहजे की ग़ज़ल है... बेहतरीन!

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  3. उमीदों से आगे उमीदें न होती
    तो हर साँस में ज़िन्दगानी न होती
    kya shaandaar baat kahi hai ..
    khoobsoorat gazal

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  4. उमीदों से आगे उमीदें न होती
    तो हर साँस में ज़िन्दगानी न होती
    kya shaandaar baat kahi hai ..vaah
    khoob soorat gazal

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