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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

ग़ज़ल 025 [18] : चुनावों के मौसम जो आने लगे---

-122---122---122---122
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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एक चुनावी ग़ज़ल 025[18]-ओके

चुनावों के मौसम जो आने लगे हैं
’सुदामा’ के घर ’कृश्न’ जाने लगे हैं

जिन्हें पाँच वर्षों से देखा नहीं ,पर
वही ख़ुद को ख़ादिम बताने लगे हैं

हुई जिनकी ’टोपी’ अब मैली-कुचैली
सफ़ाई के माने  सिखाने लगे हैं

पुराने सपन सब हवा हो गए जब
नये ख़्वाब फ़िर से दिखाने लगे हैं

मेरी झोपड़ी को जला देने वालो
बनाने में इसको ज़माने लगे हैं

हमें उनकी नीयत पे शक तो नहीं है
 मगर वो नज़र क्यों चुराने लगे हैं?

कहाँ जाके मिलते हम ’आनन’किसी से
यहाँ सब मुखौटे चढ़ाने लगे हैं


-आनन्द.पाठक
[नोट कृश्न = कृष्ण]

[सं 02-06-18]


3 टिप्‍पणियां:

  1. हमें उनकी नीयत पे शक तो नहीं है
    वो नज़रें मगर क्यों चुराने लगे हैं?
    yahan jara virodhabhaas hai ...kyonki poori gazl to ye cheekh cheekh kar kah rahi hai ki hame un par bharosa nahi hai ...iski jagah agar likhte ki
    हमें उनकी नीयत पे शक तो नहीं है
    isiliye kya वो नज़रें चुराने लगे हैं?

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  2. आ0 शारदा जी
    टिप्पणी के लिए धन्यवाद
    "इस लिए क्या " कहने से ग़ज़ल बह्र से ख़ारिज़ हो जायेगी .
    "वो नज़रें मगर क्यों चुराने लगे हैं" मे जो सवाल है वो जवाब तो आप ने दे ही दिया "इसी लिए....’ वो नज़रें...

    सादर
    आनन्द.पाठक

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