[ नोट : यही ग़ज़ल भूल वश -"अभी संभावना है"- में भी संकलित है - 60 -A [ग़ज़ल -378]
अत: यह ग़ज़ल तदनुसार यहाँ भी संशोधित कर दी गई है ।
221--2121--1221--212
ऐसी भी हो ख़बर किसी अख़बार
में छपा
’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का हो पता ।
समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,
कल इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।
बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह
इस शहर में ’उसूल’ की गठरी उठा उठा।
जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,
मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।
हर सिम्त शोर है मचा जंग-ए-अज़ीम
का ,
इन्सानियत
पे गाज़ गिरेगी, इसे बचा ।
मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे
अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।
क्यों तस्करों के गाँव में
’आनन’ तू आ गया,
तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।
आ0 शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंरचना को ’चर्चा मंच ’में शामिल करने के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद
सादर
आनन्द.पाठक
09413395592
आ0 शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंरचना को ’चर्चा मंच ’में शामिल करने के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद
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आनन्द.पाठक
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