[आज 29 दिसम्बर 20012 ,वर्ष का अवसान. अवसान एक अनामिका का,एक दामिनी का एक निर्भया का....उसे नाम की ज़रूरत नहीं ..दरिंदों के वहशीपन की शिकार.....मुक्त हो गई ..ये शरीर छोड़ कर...चली गई ये दुनिया छोड़ कर.....और छोड़ गई पीछे कई सवाल ’...जवाब तलाशने कि लिए.....। उसी सन्दर्भ में एक श्रद्धांजलि गीत प्रस्तुत कर रहा हूं...]
श्रद्धांजलि : हे अनामिके !
आज अगर ख़ामोश रहे तो ....
नए वर्ष के नई सुबह का कौन नया इतिहास लिखेगा ?
श्वान-भेड़िए , सिंहद्वार पर आकर फिर ललकार रहे हैं
साँप-सपोले चलती ’बस’ में रह रह कर फुँफकार रहे हैं
हर युग में दुर्योधन पैदा ,हर युग में दु:शासन ज़िंदा
द्रुपद सुता का चीर हरण ये करते बारम्बार रहे हैं
आज अगर ख़ामोश रहे तो ......
गली गली में दु:शासन का फिर कैसे संत्रास मिटेगा ?
जनता उतर चुकी सड़कों पर अब अपना प्रासाद संभालो !
चाहे आंसू गोले छोड़ो ,पानी की बौछार चला लो
कोटि कोटि कंठों से निकली नहीं दबेंगी ये आवाज़ें
चाहे लाठी चार्ज़ करा दो ’रैपिड एक्शन फ़ोर्स’ बुला लो
आज अगर ख़ामोश रहे तो ....
सत्ता की निर्ममता का फिर कौन भला विश्वास करेगा ?
हे अनामिके ! व्यर्थ तेरा वलिदान नहीं हम जाने देंगे
जली हुई कंदील नहीं अब बुझने या कि बुझाने देंगे
इस पीढ़ी पर कर्ज़ तुम्हारा शायद नहीं चुका पायेंगे
लेकिन फूल तुम्हारे शव का कभी नहीं मुरझाने देंगे
आज अगर ख़ामोश रहे तो .....
आने वाले कल का बोलो कौन नया आकाश रचेगा ?
कौन नया इतिहास लिखेगा ?
-आनन्द.पाठक-
रिपोर्ताज
रविवार, 30 दिसंबर 2012
गीत 42 :आज अगर ख़ामोश रहे तो--[अनामिके !]
बुधवार, 12 दिसंबर 2012
एक ग़ज़ल 37[25] : वो आम आदमी है..
मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन--// मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन
221--2122 // 221-2122
------------
वो आम आदमी है , ज़ेर-ए-नज़र नहीं है
उसको भी सब पता है ,वो बेख़बर नहीं है
सपने दिखाने वाले ,वादे हज़ार कर ले
कैसे यकीन कर लूं , तू मोतबर नहीं है
तू मीर-ए-कारवां है ,ग़ैरों से क्यों मिला है ?
अब तेरी रहनुमाई , उम्मीदबर नहीं है
की सरफ़रोशी तूने जिस रोशनी की ख़ातिर
गो सुब्ह हुई तो लेकिन ये वो सहर नहीं है
तेरी रगों में अब भी वो ही इन्कलाबी ख़ूं हैं
फिर क्या हुआ कि उसमें अब वो शरर नहीं है
यां धूप चढ़ गई है तू ख़्वाबीदा है अब भी
दुनिया किधर चली है तुझको ख़बर नहीं है
मर कर रहा हूँ ज़िन्दा हर रोज़ मुफ़लिसी में
ये मोजिज़ा है शायद ,मेरा हुनर नहीं है
पलकें बिछा दिया हूं वादे पे तेरे आकर
मैं जानता हूँ तेरी ये रहगुज़र नहीं है
किसकी उमीद में तू बैठा हुआ है ’आनन’
इस सच के रास्ते का यां हम सफ़र नहीं है
-आनन्द.पाठक-
09413395592
ज़ेर-ए-नज़र = सामने ,
मोतबर =विश्वसनीय,
मीर-ए-कारवां = यात्रा का नायक
शरर = चिंगारी
ख्वाविंदा = सुसुप्त ,सोया हुआ
मुफ़लिसी = गरीबी ,अभाव,तंगी
मोजिज़ा =दैविक चमत्कार
यां =यहाँ
बुधवार, 5 दिसंबर 2012
एक ग़ज़ल 036[24-B] : इज़हार-ए-इश्क़
221--2121---1221--212
इज़हार-ए-इश्क़ के अभी इसरार और भी
इस दर्द-ए-मुख़्तसर के हैं गुफ़्तार और भी
यह दर्द मेरे यार ने सौगात में दिया
करता हूं इस में यार का दीदार और भी
कुछ तो मिलेगी ठण्ड यूँ दिल में रक़ीब को
होने दे यूँ ही अश्क़-ए-गुहरबार और भी
बातें रहीम-ओ-राम की वाज़िब तो है,मगर
दुनिया के रंज-ओ-ग़म का है व्यापार और भी
अह्द-ए-वफ़ा की बात वो जब हँस के कर गए
लगता है झूठ उनका असरदार और भी ।
दहलीज़-ए-हुस्न-ए-यार के ’आनन’ तुम्हीं नहीं
इस आस्तान-ए-यार के दिलदार और भी
-आनन्द.पाठक
बुधवार, 28 नवंबर 2012
एक ग़ज़ल 035[ 23-ब] : लोग अपनी बात कह कर....
बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातु--फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन
-------------------------------------------------------
लोग अपनी बात कह कर फिर मुकर जाते हैं क्यों ?
आईने के सामने आते बिखर जातें हैं क्यों ?
बात ग़ैरों की चली तो आप आतिशजन हुए
बात अपनो की चली चेहरे उतर जाते हैं क्यों ?
इन्क़लाबी दौर में कुछ लोग क्यों ख़ामोश हैं ?
मुठ्ठियां भींचे हुए घर में ठहर जाते हैं क्यों?
हौसले परवाज़ के लेकर परिन्दे आ गए
उड़ने से पहले ही लेकिन पर कतर जातें हैं क्यों?
सच की बातें ,हक़ बयानी जब कि राहे-मर्ग है
सिरफ़िरे कुछ लोग ज़िन्दादिल उधर जाते है क्यों?
पाक दामन साफ़ थे उनसे ही कुछ उम्मीद थी
सामने नज़रें चुरा कर ,वो गुज़र जातें हैं क्यों ?
छोड़ ये सब बात ’आनन’ किसकी किसकी रोएगा
लोग ख़ुद को बेंच कर जाने निखर जातें हैं क्यों ?
-आनन्द.पाठक-
[सं 02-06-18]
रविवार, 12 अगस्त 2012
विविध 03 : विदेश प्रवास एक सूचना
इस लघु-प्रवास (22 Aug 2012से 10 Oct 2012 तक)में मेरा पता निम्न रहेगा
14,Pasaaic Avenue
Nutley ,New Jersey
सम्पर्क सूत्र ,mobile no. और आगे का कार्यक्रम (जैसे वाशिंगटन , बोस्टन ,न्यूयार्क,फ़िलडेल्फिया वर्ज़िनिया आदि का कार्यक्रम )वहाँ पहुँचने के बाद इसी मंच पर लगा दूँगा और मंच से जुड़े रहने की कोशिश करूँगा।
यदि संभव हुआ तो ,अपने प्रवासी मित्रों एवं अन्य मि्त्रों के दर्शन करने की भी कोशिश करूंगा
आशीर्वादाकांक्षी
आनन्द.पाठक
रविवार, 5 अगस्त 2012
एक ग़ज़ल 34 [37 A]: राजशाही जब कभी छलने लगी
राजशाही
जब कभी छलने लगी
भीड़
सड़कों पर उतर चलने लगी
गोलियों
से मत इन्हे समझाइए-
पेट
की है आग अब जलने लगी
दुश्मनी
करने लगे अपने ही अब
या
ख़ुदा कैसी हवा चलने लगी ।
क्या
रहा हासिल तुम्हारी दौड़ का
ज़िंदगी
की शाम अब ढलने लगी ।
बढ़
गई रिश्तों में जब जब गरमियाँ
बर्फ़-सी
दीवार थी, गलने लगी ।
’रेवड़ी’
जब से बँटी है मुफ़्त में ,
तब
से ’कुर्सी’ फूलने-फ़लने लगी ।
दौर-ए-हाज़िर
को मैं ’आनन’ क्या कहूँ
भावना
नफ़रत की अब पलने लगी ।
शुक्रवार, 13 जुलाई 2012
एक ग़ज़ल 033 [22-ब] : वो मुखौटे बदलता रहा.....
212--212--212--212
वो मुखौटे बदलता रहा उम्र भर
और ख़ुद को भी छलता रहा उम्र भर
मुठ्ठियाँ जब तलक गर्म होती रहीं
मोम सा वो पिघलता रहा उम्र भर
वो खिलौने से ज़्यादा था कुछ भी नहीं
चाबियों से खनकता रहा उम्र भर
जिसके आँगन में उतरी नहीं रोशनी
वो अँधेरों से डरता रहा उम्र भर
उसको गर्द-ए-सफ़र का पता ही नहीं
झूट की छाँव पलता रहा उम्र भर
उसको मंज़िल मिली ही नहीं आजतक
मंज़िलें जो बदलता रहा उम्र भर
बुतपरस्ती मेरा हुस्न-ए-ईमान है
फिर ये ज़ाहिद क्यूं जलता रहा उम्र भर?
मैकदा है इधर और का’बा उधर
दिल इसी में उलझता रहा उम्र भर
आ गया कौन ’आनन’ ख़यालों में जो
दर-ब-दर यूं भटकता रहा उम्र भर ?
-आनन्द पाठक-
रविवार, 24 जून 2012
एक ग़ज़ल 032 [21-ब] : ख़यालों में जब से .....
ग़ज़ल 032 [ 21-ब] -ओके
122--122--122-122
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
ख़यालों में जब से वो आने लगे हैं
हमीं ख़ुद से ख़ुद को बेगाने लगे हैं
हुआ सर-ब-सज़्दा तेरी आस्तां पे
यहाँ आते आते ज़माने लगे हैं
तेरा अक़्स उतरा है जब आईने में
सभी अक़्स मुझको पुराने लगे हैं
अभी हम ने उनसे कहा कुछ नहीं है
इलाही ! वो क्यों मुस्कराने लगे हैं ?
निगाहों में जिनको बसा कर रखा था
वही आज नज़रें चुराने लगे हैं
वो रिश्तों को क्या ख़ास तर्ज़ीह देते !
जो रिश्तों को सीढ़ी बनाने लगे हैं
है अन्दाज़ अपना फ़कीराना ’आनन’
दुआओं की दौलत लुटाने लगे हैं
-आनन्द.पाठक-
गुरुवार, 7 जून 2012
एक ग़ज़ल 031[ 20-ब/60-अ] : ऐसी भी हो ख़बर... ..
ग़ज़ल 031 [ 20-ब/60-अ]ओके
[ नोट : यही ग़ज़ल भूल वश -"अभी संभावना है"- में भी संकलित है - 60 -A [ग़ज़ल -378]
अत: यह ग़ज़ल तदनुसार यहाँ भी संशोधित कर दी गई है ।
221--2121--1221--212
ऐसी भी हो ख़बर किसी अख़बार
में छपा
’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का हो पता ।
समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,
कल इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।
बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह
इस शहर में ’उसूल’ की गठरी उठा उठा।
जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,
मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।
हर सिम्त शोर है मचा जंग-ए-अज़ीम
का ,
इन्सानियत
पे गाज़ गिरेगी, इसे बचा ।
मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे
अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।
क्यों तस्करों के गाँव में
’आनन’ तू आ गया,
तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।
-आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 1 जून 2012
एक ग़ज़ल 030[37] : लोग अपनी ही सुनाने में.....
2122----2122----2122
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसद्द्स सालिम
-----------------------
लोग अपने ग़म सुनाने में लगे हैं
और हम हैं ग़म भुलाने में लगे हैं
बेसबब लगते हैं उनको ज़ख़्म मेरे
वो ख़राश-ए-कफ़ दिखाने में लगे हैं
जानता हूँ आप की साहिब हक़ीक़त
कौन सा चेहरा चढ़ाने में लगे हैं ?
आप ्है सच के धुले लगते भला कब
फिर बहाने क्यों बनाने में लगे हैं ?
लोग तो चलते नहीं हैं जाग कर भी
आप क्यों मुर्दे जगाने में लगे हैं ।
सच की बातों का ज़माना लद गया
झूट की जय जय मनाने में लगे हैं
लाश गिन गिन कर हवादिस में वो,"आनन’
’वोट’ की कीमत लगाने में लगे हैं
-आनन्द-
्ख़राश-ए-कफ़ = हथेली की खरोंच
ख़राश-ए-कफ़ =हथेली की खरोंच
हवादिस = हादिसा का बहुवचन
मंगलवार, 8 मई 2012
ग़ज़ल 029[ 23 A] : सोचता हूं. इस शहर में आदमी रहता
ग़ज़ल 029[23 A] ओके
2122-----2122------2122------2122
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसम्मन सालिम
-------------------------------------
सोचता हूँ शहर में अब,आदमी रहता किधर है ?
बस मुखौटे ही मुखौटे जिस तरफ़ जाती नज़र है
दिल की धड़कन मर गई हो,जब मशीनी धड़कनों से
आंख में पानी नहीं है , आदमी पत्थर जिगर है
ज़िन्दगी तो कट गई फुट्पाथ से फुटपाथ ,तक ही!
ख़्वाब तक गिरवी रखे हैं ,कर्ज़ पे जीवन बसर है
हो गईं नीलाम ख़ुशियां ,अहल-ए-दुनिया से गिला क्या
तीरगी हो, रोशनी हो , फ़स्ल-ए-गुल अब बेअसर है
ख़्वाहिश-ए-उलफ़त है दिल में ,आँख में सपने हज़ारों
हासिल-ए-हस्ती यही है ,दिल हमारा दर-ब-दर है
शाम जब होने लगेगी लौट आयेंगे परिन्दे
बस इसी उम्मीद में ज़िन्दा खड़ा बूढ़ा शजर है
आजकल बाज़ार में क्या क्या नहीं बिकता है ’आनन’
जिस्म भी,ईमान भी ,इन्सान बिकता हर नगर है
-आनन्द पाठक
[सं 24-06-18]
bbs 240618
रविवार, 15 अप्रैल 2012
ग़ज़ल 028 [11 A] : झूठ की बातों को उसने --.
बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम
झूठ
की बातों को उसने सत्य माना
सत्य
कहने का नही अब है ज़माना
गालियाँ
ही आजतक उसने है खाईं
जब
भी पर्दाफ़ाश करना उसने ठाना
लोग
बच बच कर निकलने क्यों है लगते
जब
कभी वो बात करता आरिफ़ाना
अब
अजायब घर की जैसे चीज कोई
नेक
इन्सां का हुआ जैसे ठिकाना
मैं
किसी को जख़्म अपने क्या दिखाऊँ
है कहाँ
फ़ुरसत किसी को, क्या दिखाना
जब
अदालत का हुआ आदिल ही बहरा
क्या
करे फ़रियाद कोई, क्या
सुनाना
सूलियों
पर है टँगा हर बार ’आनन’
जब
मुहब्बत का सुनाता है फ़साना ।
शुक्रवार, 30 मार्च 2012
गीत 41 : आना जितना आसान रहा.....
{ डायरी के पन्नों से--]
एक गीत
आना जितना आसान रहा
क्या जाना भी आसान ?प्रिये ! कुछ बात मेरी भी मान प्रिये !
तुम प्रकृति नटी से लगती हो इन वासन्ती परिधानों में
तेरे गायन के सुर पंचम घुल जाते कोयल तानों में
जितना सुन्दर ’उपमेय’ रहा ,क्या उतना ही ’उपमान’? प्रिये !
या व्यर्थ मिरा अनुमान ,प्रिये !
जब मन की आँखें चार हुई तन चन्दनवन सा महक उठा
अन्तस में ऐसी प्यास जगी आँखों मे आंसू छलक उठा
तुम जितने भी अव्यक्त रहे क्या उतने ही अनजान ?प्रिये !
फिर क्या होगी पहचान ? प्रिये !
कद से अपनी छाया लम्बी क्यों उसको ही सच मान लिया
अपने से आगे स्वयं रहे कब औरों का सम्मान किया
जितना ही सुखद उत्थान रहा क्या उतना ही अवसान ? प्रिये !
फिर काहे का अभिमान ?प्रिये !
यूँ कौन बुलाता रहता है जब खोया रहता हूँ भ्रम में
मन धीरे धीरे रम जाता जीवन के क्रम औ’अनुक्रम में
मन का बँधना आसान यहाँ ,पर खुलना कब आसान ,प्रिये !
क्या व्यर्थ रहा सब ज्ञान ,प्रिये !
आना जितना आसान रहा
क्या जाना भी आसान ?प्रिये ! कुछ बात मेरी भी मान प्रिये !
आनन्द.पाठक
8800927181
शुक्रवार, 23 मार्च 2012
गीत 40 : ना मैं जोगी ,ना मैं....
ना मैं जोगी ,ना मैं ज्ञानी, मैं कबिरा की सीधी बानी ।
वेद पुरान में क्या लिख्खा है ,मैं अनपढ हूं ,मैं क्या जानू
दिल से दिल की राह मिलेगी मन निच्छल हो,मैं तो मानू
ये ऊँचा है, वो नीचा है , ये काला है , वो गोरा है
आंसू हो या रक्त किसी का ,एक रंग ही मैं पहचानू
जल की मछली जल में प्यासी किसने है ये रीत बनाई
ज्ञानी-ध्यानी सोच रहे हैं ’जल में नलिनी क्यों कुम्हलानी"?
मन के अन्दर ज्योति छुपी है ,क्यों न जगाता उस को बन्दे !
तुमने ही तो फेंक रखे हैं , अपने ऊपर इतने फन्दे
मन की बात सुना कर प्यारे ! अपनी सोच न गिरवी रख दे
आश्रम की तो बात अलग है , आश्रम के हैं अपने धन्धे
जिस कीचड़ में लोट रहा है ,उस कीचड़ का अन्त नहीं है
दास कबिरा कह गए साधो ," माया महा ठगिन हम जानी"
पोथी पतरा पढ़-पढ़ हारा ,जो पढ़ना था पढ न सके हम
आते-जाते जनम गँवाया ,जो करना था कर न सके हम
मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा झांके ,मन के अन्दर कब झांका हैं?
ख़ुद से ख़ुद की बातें करनी थी आजीवन कर न सके हम
सबकी अपनी परिभाषा है अपने अपने अर्थ लगाते
कहत कबीरा उलट बयानी " बरसै कम्बल भींजै पानी"
ना मैं जोगी ,ना मैं......................................
आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 9 मार्च 2012
गीत 38 :काहे नS रंगवा लगउलु हो गोरिया
काहे नS रंगवा लगउलु हो गोरिया ...काहे नS रंगवा लगउलु ?
अपने नS अईलु न हमके बोलऊलु ,’कजरी’ के हाथे नS चिठिया पठऊलु
होली में मनवा जोहत रहS गईलस. केकरा से जा के तू रंगवा लगऊलु
रंगवा लगऊलु......तू रंगवा लगऊलु...
काहे केS मुँहवा फुलऊलु संवरिया ? काहे केS मुँहवा बनऊलु ?
रामS के संग होली सीता जी खेललीं ,’राधा जी खेललीं तS कृश्ना से खेललीं
होली के मस्ती में डूबलैं सब मनई नS अईलु तS तोहरे फ़ोटुए से खेललीं
फोटुए से खेललीं... हो फ़ोटुए से खेललीं....
अरे ! केकराS से चुनरी रंगऊलु ?, सँवरिया ! केकरा से चुनरी रंगऊलु ?
’रमनथवा’ खेललस ’रमरतिया’ के संगे, ’मनतोरनी ’ खेललस संघतिया के संगे
दुनिया नS कहलस कछु होली के दिनवा ,खेललस ’जमुनवा’ ’सुरसतिया’ के संगे
सुरसतिया के संगे.....सुर सतिया के संगे....
केकरा केS डर से तू बाहर नS अईलु ,नS अंगवा से अंगवा लगउलु
काहें गोड़धरिया करऊलु संवरिया.....
काहें गोड़धरिया करऊलु.?..............काहें न रंगवा लगऊलु ?
-आनन्द.पाठक
बुधवार, 29 फ़रवरी 2012
गीत 37: मुझसे मेरे गीतों का ....
मुझसे मेरे गीतों का ,प्रिय ! अर्थ न पूछो
कहाँ कहाँ से हमें मिलें हैं, दर्द न पूछो
जब भी मेरे दर्दों को विस्तार मिला है
तब जाकर इन गीतों को आकार मिला है
जब शब्दों को अपनी आहों में ढाला हूँ
तब जाकर इन गीतों को आवाज़ मिला है
जीवन की अधलिखी किताबों के पन्नों पर
किसने लिखे हैं पीड़ा के ये सर्ग ,न पूछो !
स्वप्नों में कुछ रूप तुम्हारा मैं गढ़ता हूँ
एक मिलन की आस लिए आगे बढ़ता हूँ
दुनिया ने कब मेरे सच को सच माना है?
अपनी राम कहानी मैं ख़ुद ही पढ़ता हूँ
जिन गीतों को सुन कर आंसू ढुलक गए हों
उन गीतों के क्या क्या थे सन्दर्भ , न पूछो
करनी थी दो बातें तुमसे ,कर न सके थे
उभरे थे सौ बार अधर पे ,कह न सके थे
कुछ तेरी रुस्वाई का डर ,कुछ अपना भी
छलके थे दो बूँद नयन में ,बह न सके थे
तुम कभी इधर आना तो ख़ुद ही पढ़ लेना
पथराई आंखों के क्या थे शर्त , न पूछो
मुझसे मेरे गीतों का .....
-आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
गीत 36 : दीन धरम -और- सच की बातें?
दीन धरम औ’ सच की बातें ? किस युग की बातें करते हो?
’सतयुग’ बीते सदियाँ गुजरी, तुम जिसकी बातें करते हो .
मैंने तो निश्छल समझा था, भेज दिया संसद में चुन के
मुझको क्या मालूम कि तुम भी बह जाओगे जैसे तिनके
सच पर ’ग्रहण’ लगाने वाले ’राहू-केतू ’मयख़ाने में
’उग्रह’ कभी न होने देंगे जब तक सत्ता वश में उनके
बेच दिया जब ख़ुद को तुमने ’सूटकेस’ की धन-दौलत पर
आदर्शों के अवमूल्यन की फिर तुम क्यों बातें करते हो ?
हाथ मिलाने वाले जो हैं ’गुणा-भाग’ कर हाथ मिलाते
उनको जितनी रही ज़रूरत, उतना ही बस साथ निभाते
रिश्तों में जो महक छुपी है ,’कम्पूटर’ से क्या पहचानो
आभासी दुनिया में रहते ,फिर तुम अपनी साख़ बताते
तौल दिया रिश्तों को तुमने ’हानि-लाभ’ के दो पलड़ों पर
अपनों के बेगानेपन पर, फिर तुम क्यों आहें भरते हो ?
बात जहाँ पे तय होनी थी ,कलम बड़ी तलवारों से
’मुझे चाहिए आज़ादी बस’- उछ्ल रहे थें जयकारो से
जो सरकारी अनुदानों पर पले हुए सुविधा रोगी थे
समर शुरू होने से पहले खिसक लिए पिछली द्वारों से
जब अपने पर आन पड़ी तो ’अगर-मगर’ कर बगल झांकते
फिर क्यों अपनी मुठ्ठी भींचे , यूँ ऊँची बातें करते हो ?
-आनन्द.पाठक-
[सं 28-04-19]
शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012
गीत 35: कर लो जितना पूजन अर्चन--...
कर लो जितना पूजन-अर्चन ,चाहे जितना पुष्प समर्पण
मन का द्वार नहीं खुल पाया फिर क्या मथुरा,काबा,काशी
कहने को तो अन्धकार में ,वह प्रकाश की ज्योति जगाते
अरबों के आश्रम है जिनके ख़ुद को निर्विकार बतलाते
जिस दुनिया से भाग गए थे लौट उसी दुनिया में आए
भक्तों की गठरी से अपनी गठरी का हैं वज़न बढ़ाते
मठाधीश बन कर बैठे हैं मार कुण्डली दान-पात्र पर
क्या अन्तर फिर रह जाता है हो भोगी या हो सन्यासी
सबके अपने अपने दर्शन सबकी अपनी चमक-दमक है
सबकी राहें एक दिशा की फिर भी राहें अलग-अलग हैं
क्षमा दया करुणा सब में है फिर काहे की मारा-मारी
’शबरी’ की कुटिया सूनी है हर आश्रम से अलग-थलग है
आँख मूंद कर प्रवचन करते ,अन्तर्नेत्र नहीं खुल पाया
मन प्यासा रह गया अगर तो फिर क्या तीरथ बारहमासी
छोड़ ’तपोवन’ आ पहुँचे है सत्ता के गलियारों में अब
भागीदारी खोज रहे हैं ’दिल्ली’ के दरबारों में अब
मेरे लिए तो सिंहासन है तेरे लिए ’चटाई ’ .बन्दे !
"दान-पुण्य’ कर मूढ़मते !कुछ जो तेरे अधिकारों में अब
वह भी कितने मायारत हैं आजीवन जो रहे सिखाते
" जनम-मरण इक शाश्वत क्रम है ईश्वर अंश जीव अविनाशी"
आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012
गीत 33 : कभी कभी इस दिल को.....
दुनिया लाख मना करती है अपनी गाता है
एक दीप भारी पड़ सकता है अँधियारों पर
सर पर बाँध कफ़न जो निकले सत्य विचारो पर
एक अकेली नौका जूझ रही है लहरों से
लोग रहे आदर्श झाड़ते खड़े किनारों पर
आँधी-पानी,तूफ़ां-बिजली राह रोकती हो-
अपनी धुन का पक्का राही कब रुक पाता है !
चरण वन्दना को आतुर हैं जो दरबारी हैं
कंठी-माला दंड-कमंडल लिए शिकारी हैं
हर चुनाव में कैसे कैसे स्वांग रचा करते
’स्विस-बैंक’ के खाताधारी लगे भिखारी हैं
खड़ा रहेगा साथ मिरे जिससे उम्मीदें थीं
ऐन वक़्त पर बिना रीढ का क्यों हो जाता है ?
जो लहरों के साथ साथ में बहा नहीं करते
जो सरकारी अनुदानों पर पला नहीं करते
जिसके अन्दर ज्योति-पुंज की किरणें बाकी हैं
अँधियारों की खुली चुनौती सहा नहीं करते
क्यों पीता है विष का प्याला सूली चढता है ?
जो दुनिया से हट कर अपनी राह बनाता है
कभी-कभी इस दिल को जाने .......
-आनन्द.पाठक
गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012
गीत 32: परदेशी बेटे के नाम......
ऐसे सपन कहाँ जुड़ते हैं विधिना ही जब ठोकर मारे
कल लगता था आस-पास हो, आज लगा कि दूर हो गए
’डालर’ के पीछे क्यों बेटा ! तुम इतने मजबूर हो गए ?
अथक तुम्हारी भाग-दौड़ यह मृगतृष्णा से ज्यादा क्या है
गठरी में ही धूप बाँधने वाले थक कर चूर हो गए
सपनों की दुनिया में खोये भूल गये क्यों दुनिया का सच ?
जितनी लम्बी चादर थी क्यों उस से ज्यादा पांव पसारे ?
वो बादल अब हवा हो गए जिस पर हमने आस लगाई
बरसे जाकर अन्य ठौर पर मेरी प्यास नहीं बुझ पाई
फिर भी रहीं दुआयें लब पर मन में शुभ आशीष वचन है
जग वालों से कैसे मैने अन्तर्मन की बात छुपाई !
उन रिश्तों की डोरी कब की टूट चुकी थी पता नहीं था
जिन रिश्तों की कस्में खाते रहते थे तुम साँझ- सकारे
आने को कह गए न आए घर आंगन मन सूना खाली
माँ से पूछो कैसे बीती ’होली’ ’दशमी’ और ’दिवाली’
हाथों में कजरौटा लेकर बूढ़ी ममता सोच रही है -
क्यों न लगाया उस दिन तुमको काला टीका नज़रों वाली
अनजाने भय के कारण मन बार बार क्यों सिहर उठा है ?
सत्य विवेचन के दर्पण में जब जब हमने रूप निहारे
अपनी अपनी सीमाएं हैं पीढ़ी का टकराव नहीं है
संस्कॄति की अपनी गरिमा है यह मन का बहलाव नहीं है
पश्चिम आगे ,पूरब पीछे ,सोच सोच का फ़र्क है ,बेटा !
एक वृत्त के युगल-बिन्दु हैं आपस में अलगाव नहीं है
केवल धन पे जीना-मरना ही तो अन्तिम सत्य नहीं है
मूल्यों पर भी जी कर देखो ,पा जाओगे के सुख के तारे
जो झूठे सपनों का सच था..........
आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 27 जनवरी 2012
गीत 31 : गाँवों में आ गए....
गाँवों को भी हवा लग गई शहरों वाली राजनीति की
पनघट की वो हँसी- ठिठोली बीती बातें ज्यों अतीत की
’परधानी’ ’सरपंची’ करने गाँवों में आ गए बघेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे....
जहाँ कभी कीर्तन होते थे चौपाले अब सूनी सूनी
राजनीति ने ज़हर भर दिए होने लगी चुनावें ख़ूनी
बूढ़ा बरगद देख रहा है घोटाले हर साँझ सवेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे.......
रामराज का ’महानरेगा’ साहिबान के बंगलों पर है
ताल-मछलियों की संरक्षा खादी वाले बगुलों पर है
हर चुनाव में फेंक रहे हैं कैसे कैसे जाल मछेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे.....
अख़बारों में अँटे पड़े हैं गाँव सभा की कथा-कहानी
टी0 वी0 वाले दिखा रहे हैं हरे-भरे खेतों में पानी
लेकिन’घीसू’ ’बुधना’ घूमे लिए हाथ में वही कटोरे
कैसे कैसे भेष बदल कर गाँवों में आ गए लुटेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे..............
आनन्द.पाठक
रविवार, 15 जनवरी 2012
ग़ज़ल 027 [17] : दयार-ए-ग़रीबां में क्या ....
फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन
बह्र-ए- मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 027 : ओके
दयार-ए-ग़रीबां में क्या ढूँढता हूँ ?
ग़रीबुलवतन की नवा ढूँढता हूँ !
सियासत में फ़िरक़ापरस्ती हो जाइज़
वहाँ किस मरज़ की दवा ढूँढता हूँ ?
जो शोलों को भड़का के तहरीक कर दे
वही इन्क़िलाबी हवा ढूँढता हूँ
इक आवाज़ आती पलट कर ख़ला से
उसी में तुम्हारी सदा ढूँढता हूँ
कभी ख़ुद से ख़ुद की मुलाक़ात होगी
मैं बाहर भला क्यों ख़ुदा ढूँढता हूँ
वो मेरी नज़र में वफ़ा ढूँढते हैं
मैं उनकी नज़र में हया ढूँढता हूँ
गिरिफ़्तार-ए-ग़म हूँ मै इतना कि "आनन"
मैं अपने ही घर का पता ढूँढता हूँ
दयार-ए-ग़रीबां = ग़रीबों की बस्ती में
ग़रीबुलवतन = अपना देश छोड़ कर परदेश में बसे लोग
नवा =आवाज़
तहरीक =आन्दोलन
ख़ला = शून्य आकाश से
[सं -03-06-18]
मंगलवार, 10 जनवरी 2012
एक गज़ल 026 : आप इतना खौफ़ क्यों...
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र--ए-रमल मुसद्दस सालिम
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ग़ज़ल 026 : ओके
आप इतना ख़ौफ़ क्यों खाए हुए हैं ?
शह्र में जी ! क्या नए आए हुए हैं ?
’आदमीयत’ खोजना तो व्यर्थ होगा
आदमी जब मौत के साए हुए हैं
कुछ सियासी लोग ने क्या रंग बदले
गिरगिटों के रंग शरमाए हुए हैं
लोग श्रद्धा से नहीं हैं जनसभा में
चन्द सिक्कों के लिए आए हुए हैं
हक़ ब जानिब वो खड़ा है सर झुकाए
झूट वाले आजकल छाए हुए हैं
कब उन्हे फ़ुरसत कि मेरी बात सुनते
अपनी डफ़ली राग ख़ुद गाए हुए हैं
सुब्ह जीना शाम मरना रोज़ ’आनन’
आप क्यों मुझ पर तरस खाए हुए हैं
आनन्द पाठक
[सं 03-05-18]