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रविवार, 4 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 48[37] : दर्द-ए-उल्फ़त..

2122--1212--22

दर्द-ए-उल्फ़त है ,भोला भाला है
दिल ने मुद्दत से इसको पाला है

सैकड़ों तल्ख़ियां ज़माने  की
जाम-ए-हस्ती में हम ने ढाला है

मैं तो कब का ही मर गया होता
मैकदो ने मुझे सँभाला  है

जब हमें फिर वहीं बुलाना था
ख़ुल्द से क्यूँ हमें निकाला है

अब तो दैर-ओ-हरम के साए में
झूट वालों का बोलबाला है

हर फ़साना वो नामुकम्मल है
जिसमें तेरा नहीं हवाला है

आँख मेरी फड़क रही कल से
लगता वो आज आनेवाला है

आज तक हूँ ख़ुमार में ’आनन’
हुस्न ने जब से जादू डाला है


शब्दार्थ
मुद्दत = लम्बे समय से
तल्ख़ियां = कटु अनुभव
जाम-ए-हस्ती= जीवन के प्याले में
खुल्द = स्वर्ग से [ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन...]
नामुकम्मल =अधूरा है
खुमार = नशे में [ध्यान रहे चढ़ते हुए नशे को ’सुरूर’ कहते है
और उतरते हुए नशे को ’ख़ुमार’ कहते हैं

आनन्द.पाठक

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