रिपोर्ताज

शुक्रवार, 31 मई 2024

ग़ज़ल 385 [49F] : औरों की तरह हाँ में मैने हाँ नही कहा

 ग़ज़ल 385[49F]

221---2121---1221---212


औरों की तरह "हाँ’ मे मैने "हाँ’ नहीं कहा

शायद इसीलिए मुझे पागल समझ लिया ।


लफ़्ज़ों के ख़ल्त-मल्त से  कुछ इस तरह कहा

जुमलों में जैसे फिर से नया रंग भर दिया ।


उसके तमाम झूठ थे तारीफ़ की मिसाल

मेरे तमाम सच को वो ख़ारिज़ ही कर दिया 


 वह आँख बन्द कर के कभी ध्यान में रमा

कुछ बुदबुदाया, भीड़ ने ’मन्तर’-समझ लिया।


गूँगी जमात की उसे जब बस्तियाँ दिखीं ,

 हर बार वह चुनाव में पहले वहीं  गया ।


’दिल्ली’  में जा के जब कभी गद्दीनशीं हुआ

घर के ही कोयले में  ’ज़वाहिर’ उसे दिखा  ।


कितनी अज़ीब बात थी सब लोग चुप रहे

’आनन’ ग़रीब था तो सरेआम लुट गया ।


-आनन्द.पाठक-

ख़ल्त-मत = फेट-फ़ाट , गड्म-गड्ड

सं 01-07-24


गुरुवार, 30 मई 2024

ग़ज़ल 384(48F) : जिंदगी और क्या सुनाना है

ग़ज़ल 384[48F]
2122---1212---22


ज़िंदगी! और क्या सुनाना है 
कर्ज़ तेरा हमे चुकाना है ।

ज़िंदगी दूर दूर ही रहती
पास अपने उसे बिठाना है ।

उनके आने की क्या ख़बरआई
फिर मिला जीने का बहाना है ।

बात दैर-ओ-हरम की क्या उनसे
जिनको उस राह पर न जाना है ।

रंग ऐसा चढ़ा नहीं उतरा
जानता क्या नहीं जमाना है

इन तक़ारीर के सबब क्या हैं
राज़ ही जब नही बताना  है ।

जो अँधेरों में अब तलक बैठे
उनके दिल में दिया जलाना है ।

बेसबब क्यों भटक रहा ’आनन’
दिल में ही उसका जब ठिकाना है ?

-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24
तक़ारीर =प्रवचन


ग़ज़ल 383(47F): जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी

 ग़ज़ल 383 [47F]

2122---2122---212


जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी

किस तरह उलझा हुआ है आदमी


ज़िंदगी भर द्वंद में जीता रहा-

अपने अंदर जो बसा है आदमी ।


सभ्यता की दोड़ में आगे रहा

आदमीयत खो दिया है आदमी


ज़िंदगी की सुबह में सूली चढ़ा

शाम में उतरा किया है आदमी ।


देखता है ख़ुद हक़ीक़त सामने

बन्द आँखें कर रखा है आदमी ।


पैर चादर से सदा आगे रही

उम्र भर सिकुड़ा किया है आदमी।


चाह जीने की है ’आनन’ जब तलक

मर के भी ज़िंदा रहा है आदमी ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


बुधवार, 29 मई 2024

ग़ज़ल 382[46F]: आप का शौक़ है एहसान जताए रखना

 ग़ज़ल 382[46F] 

2122---1122---1122--22


आप का शौक़ है एहसान जताए रखना

मेरी मजबूरी है रिश्तों को जगाए रखना।


आप की सोच में वैसे तो अभी ज़िंदा हूँ

वरना जीना है भरम एक बनाए रखना ।


सच को अर्थी न मिली, झूठ की बारात सजी

ऐसी बस्ती में बसे चीख दबाए रखना ।


जुर्म इतना था मेरा झूठ को क्यों झूठ कहा

जिसकी इतनी थी सज़ा,ओठ सिलाए रखना।


 इन अँधेरों मे कोई और न मुझ-सा भटके

कोई आए न सही दीप जलाए रखना ।


 कौन सी बात हुई व्यर्थ की बातों पर भी

आसमाँ हर घड़ी सर पर ही उठाए रखना।


राजदरबार में ’आनन’ भी मुसाहिब होता

शर्त इतनी थी कि बस सर को झुकाए रखना।


-आनन्द.पाठक- 

सं 01-07-24

मुसाहिब = दरबारी

ग़ज़ल 381[45F] : फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

 ग़ज़ल 381[45F]

2122---2122---2122--2 

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं]


फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

फिर नया करना बहाना छोड़िए, श्रीमन !


हम जो अंधे थे भुनाते आप थे सिक्के

खोटे सिक्कों का भुनाना छोड़िए, श्रीमन !


आप के जुमलों का सानी क्या कहीं होगा

हाथ पर सरसो उगाना छोडिए, श्रीमन !


सरफिरो की बस्तियाँ हैं, क्या ठिकाना है

हाथ में माचिस थमाना छोड़िए, श्रीमन !


आइना देखा कि शीशे का मकाँ देखा

देख कर पत्थर उठाना छोड़िए, श्रीमन !


बन्द कमरे में घुटन बढ़ने लगी कब से

खुशबुओं से तर बताना छोड़िए, श्रीमन !


जख़्म ’आनन’ के अगर जो भर नहीं सकते

फिर नमक इन पर लगाना छोड़िए, श्रीमन !


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


मंगलवार, 28 मई 2024

ग़ज़ल 380 [44F] : वह झूठ बोलता था मै

ग़ज़ल 380 [44F]

221 2121 1221 212

वह झूठ बोलता था मै, घबरा के रह गया
 सच बोलने को था कि मैं, हकला के रह गया

क्या शह्र का रिवाज़ था, मुझको नहीं पता
ऐसा जला कि हाथ मै सहला के रह गया

सुलझाने जब चला कभी हस्ती की उलझने
मै जिंदगी को और भी उलझा के रह गया

पूछा जो जिंदगी ने कभी हाल जो मेरा
दो बूँद आँसुओ की मै छलका के रह गया

डोरी तेरी तो और किसी हाथ मे रही
तू व्यर्थ अपने आप पे इतरा के रह गया

उससे उमीद थी  कि नई बात कुछ करे
लेकिन पुरानी बात ही दुहरा के रह गया 

'आनन' खुली न आँख अभी तक  तेरी जरा
खुद को खयाल-ए- खाम से बहला के रह गया

-आनन्द पाठक-
सं 30-06-24

शनिवार, 25 मई 2024

ग़ज़ल 379 [ 44A] : जब ग़रज़ उनकी तो रिश्तों --

 ग़ज़ल 379 [44A]

2122---1122---1122---112/22


जब ग़रज़ उनकी हो, रिश्तों का सिला देते हैं

काम जो हमको पड़े, हमको भगा देते हैं ।

 

उनके एहसान को मैने तो सदा याद रखा

मेरे एहसान को कसदन वो भुला देते हैं ।

 

आप के सर जो झुके बन्द मकानो में झुके

मैने सजदा जो किया , सर को उड़ा देते हैं ।

 

उनका इन्साफ़ यही है तो कोई बात नहीं

जुर्म करता है कोई, मुझको सज़ा देते हैं ।

 

ज़िंदगी है सदा उनके ही क़सीदे पढ़ती

देश के नाम पे गरदन जो कटा देते  हैं ।

 

आप गर ख़ुश हैं तो हमको न शिकायत न गिला

वरना अब लोग कहाँ ऐसा सिला देते हैं ।

 

हार जब सामने उनको नज़र आता ’आनन’

और के सर पे वो इलज़ाम लगा देते हैं ।

 

 


-आनन्द.पाठक-



शुक्रवार, 24 मई 2024

ग़ज़ल 378 [ 60 A] : ऐसी भी हो ख़बर कहीं अख़बार में लिखा--

 ग़ज़ल 378 [ 60 A]

221---2121---1221---212

ऐसा भी हो कभी किसी अख़बार में छपा

’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का हो पता ।

 

समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,

कल जो शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।

 

बेमौत एक दिन वो मरेगा बुरी  तरह

इस शहर में ईमान की गठरी उठा उठा।

 

जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,

मुशकिल है आदमी को कि ख़ुद को ही ले बचा।

 

हर सिम्त शोर है मचा जंग-ए-अज़ीम का ,

इन्सानियत पे गाज़ गिरेगी, इसे बचा ।

 

मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे

अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा

 

क्यों तस्करों के शहर में ’आनन’ तू आ गया,

तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।

 

 

 

-आनन्द पाठक-


ग़ज़ल 377 [ 53 A] : मसाइब ज़िंदगी के -

मसाइब ज़िंदगी के हर सफ़र में, कब रुका करते

मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी सामना करते ।

 

ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं

मगर कुछ लोग अपनी ही शराइत पर जिया करते ।

 

कहा जो अब तलक तुमने, तुम्हारी ही सुनी हमने

हमारी भी अगर सुनते तो कुछ हम भी कहा करते ।

 

गिरेंगी बिजलियाँ तय है हमारे ही ठिकाने पर

हमारे साथ ऐसे हादिसे  अकसर हुआ करते।

 

कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,

तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।

 

कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी ! हमने

तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।

,

नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -

जो करते हैं वफ़ा ’आनन’, लब-ए-दम तक,किया करते।

 


गुरुवार, 23 मई 2024

ग़ज़ल 376 [ 52A] : आप की सूरत कहाँ असली नज़र आए


ग़ज़ल 376 [52 A]

2122---2122---2122---2

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं है।



52

 

आप की सूरत कहाँ असली नज़र आए

हर नवाज़िश आपकी झूठी  नज़र आए ।

 

वक़्त आने पर उठेंगे वो चलो माना

काश ! उनकी रीढ़ की हड्डी नज़र आए ।

 

जब  सुनें वो राग दरबारी ही सुनते हैं

बात सच्ची क्यों उन्हें गाली नज़र आए ।

 

आदमी की मुफ़लिसी हो या कि रंज़-ओ-ग़म

अब उन्हें हर बात में कुर्सी  नज़र आए ।

 

जब से ‘दिल्ली’ जा के बैठे हो गए अंधे

अब तो सूखे में भी हरियाली नज़र आए ।

 

जेब भरने के लिए बैठे हुए हैं ,वो

योजना में ‘नोट’ की गड्डी नज़र आए ।

 

देख लो ‘आनन’ है अब हर शय की  नीलामी

‘आदमीयत’ मुफ़्त में बिकती नज़र आए।

 

 

-आनन्द.पाठक-





ग़ज़ल 375 [51A] : बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब

 

 

बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब 

या तो नक़ाबपोश है या फिर वो बेनिक़ाब

     

जिस आदमी की खुद की नहीं रोशनी दिखी

ग़ैरों की रोशनी से चमकता है लाजवाब ।

 

सत्ता के जोड़-तोड़ में वो बेमिसाल है

उम्मीद क्या करें कि वो लाएगा इन्क़िलाब

 

जिस आदमी की डोर किसी और हाथ में

रहता है आसमान में उड़ता हे बेहिसाब।

 

जो झूठ को भी सच की तरह बोलता रहें

ऐसे ही लोग आज हैं दुनिया में कामयाब ।

 

उसकी नज़र में पहले तो शर्म-ओ-हया भी थी

आता है सामने तो अब आता है बेहिजाब ।

 

’आनन’ जिधर भी देखिए हर शख़्स ग़मजदा

हर शख़्स की ज़ुबान पे तारी है ज़ह्रआब ।

 


बुधवार, 22 मई 2024

ग़ज़ल 374 [ 49 A] : हम क़ैद में क्यों रहते

 ग़ज़ल 374[49 A]

221---1222  // 221----1222

ताबे में नहीं रहते,, पिंजड़ों में नहीं पलते

गर उनकी तरह हम भी, भेड़ों की तरह चलते ।

 

सच जान गए जितने ,आश्वस्त रहे उतने ,

वो झूठ के दम पर ही ,दुनिया को रहे छलते ।

 

हम कर्म किए जाएँ, फल का न कभी सोचें

लिख्खे हैं जो क़िस्मत में ,टाले से कहाँ टलते ।

 

बिक जाते अगर हम भी, दुनिया तो नहीं रुकती

बस सर ही झुकाना था, अब हाथ नहीं मलते ।

 

जुमलॊं से अगर सबको, गुमराह न करते तुम

पलकों पे सभी के तुम, ख़्वाबों की तरह पलते।

 

जीवन का यही सच है, चढ़ना है तो ढलना भी

सूरज भी तो ढलता है, तारे भी तो हैं ढलते ।

 

’आनन’ जो कभी तुमने, इतना ही किया होता

भटका न कोई होता, दीपक-सा अगर जलते ।

 

 

 

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 21 मई 2024

ग़ज़ल 373 [ 48 A] : सुनना ही नहीं उनको

 

ग़ज़ल 373 [48 A]

221---1222//221---1222


सुनना ही नहीं उनको, फिर उनको सुनाना क्या !

बहरों के मुहल्ले में, फिर शंख बजाना क्या।

 

सावन में हुआ अंधा, हर रंग हरा देखे,

मानेंगा नहीं जब वो, क्या सच है, बताना क्या ।

 

यह व्यर्थ दिखावा है तुम भी ये समझते हो

जब दिल ही नहीं मिलते फिर हाथ मिलाना क्या !

 

एहसान फ़रामोशी , रग रग में भरी उसकी

नज़रों से गिरा है वह, अब और गिराना क्या

 

चाबी का खिलौना है, चाबी से चला करता

जितनी हो ज़रूरत बस, बेकार चलाना क्या।

 

मालूम सभी को है, जब रीढ़ नहीं उसकी 

किस ओर ढुलक जाए कब, उसका ठिकाना क्या ।

 

भीतर से बना हूँ जो, बाहर भी वही, ’आनन’!

दुनिया से छुपाना क्या, दुनिया को दिखाना क्या,  

 


सोमवार, 20 मई 2024

ग़ज़ल 372 [43F] : शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है


ग़ज़ल 372 [43F]

2122---2122---2122


शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है

रात फिर लगता है कुछ घपला हुआ है।


लोग सहमें है , नज़र ख़ामोश है

आस्थाओं पर कहीं हमला हुआ है ?


लोग क्यों  नज़रें चुरा कर चल रहे अब,

मन का दरपन फिर कहीं धुँधला हुआ है ।


शहर के हालात कुछ अच्छे न दिखते,

मज़हबी कुछ सोच से गँदला हुआ है ।


रोशनी के नाम पर लाए अँधेरे ,

कौन सा यह रास्ता निकला हुआ है ?


मुफ़्त राशन, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बिजली

आदमी बस झूठ से बहला हुआ है ।


आज ’आनन’ बुद्ध गाँधी की ज़रूरत

आदमी जब स्वार्थ का पुतला हुआ है ।


-आनन्द.पाठक-

सं 30-06-24


ग़ज़ल 371[42F]: कितने रंग बदलता है वह

ग़ज़ल 371 [42F]

21---121---121---122


कितने रंग बदलता है, वह

ख़ुद ही ख़ुद को छलता है, वह ।


सीधी सादी राहों पर भी

टेढ़े-मेढ़े  चलता है , वह ।


जितना जड़ से कटता जाता

उतना और उछलता है, वह ।


बन्द किया है सब दरवाजे

अपने आप बहलता है, वह ।


करते हैं सब कानाफ़ूसी -

जिस भी राह निकलता है वह ।


औरों के पांवों से चलता ,

अपने पाँव न चलता है, वह।


’आनन’ की तो बात अलग है,

दीप सरीखा जलता है, वह ।


-आनन्द.पाठक-

सं 30-06-24


रविवार, 19 मई 2024

ग़ज़ल 370 [41F]: मेरे सवाल का अब वो जवाब


ग़ज़ल 370 [41F]

1212----1122---1212---22


मेरे सवाल का अब वो जवाब क्या देगा 

इधर उधर की सुना कर उसे घुमा देगा


वो अपने आप को शायद ख़ुदा समझता है

यही नशा है जो, इक दिन उसे डुबा देगा ।


यह बात और की है, आप क्यों परीशाँ  है

ये वक़्त ही है जो सबको सबक़ सिखा  देगा ।


हुनर कमाल का उसका, न कोई सानी है

नहीं हो आग जहाँ, वह धुआँ उठा देगा ।


वही है मुफ़्त की बिजली वही चुके वादे

घिसे पिटे से हैं नारे, नया वो क्या देगा ।


जुबान पर है शहद और सोच में फ़ित्ना 

खबर किसी को न होगी वो जब दग़ा देगा ।


अब उसकी बात का ’आनन’ बुरा भी क्या माने

सिवा वो झूठ के दुनिया को और क्या देगा ।


-आनन्द.पाठक -

सं 30-06-24



शुक्रवार, 17 मई 2024

ग़ज़ल 369/ 14-A : जब बनाने मैं चला था


ग़ज़ल 369/14-A

2122---2122--2122---212


जब बनाने को चला मै एक अपना आशियाँ

आँधियों ने धौंस दी है, बिजलियों नें धमकियाँ

 

ज़िंदगी मेरी कटी हर रंग में हर रूप में

बात उनकी क्या लगी, फिर उम्र भर की तल्ख़ियाँ ।

 

गिर पड़े तो उठ गए, जब उठ गए तो चल पड़े

राह अपनी खो गई कुछ मंज़िलों के दरमियाँ ।

 

यार के दीदार की चाहत में हम थे बेख़बर

हम जिधर गुज़रे उधर थीं क़ातिलों की बस्तियाँ ।

 

ऐश-ओ-इशरत शादमानी जब कभी हासिल हुई

अहल-ए-दुनिया बेसबब करने लगे सरगोशियाँ ।

 

कम नहीं यह भी कि हम ज़िंदा रहे हर हाल में

उम्र भर की फाँस थीं दो-चार पल की ग़लतियाँ ।

 

हार ’आनन’ ने कभी माना नहीं, लड़ता रहा 

नींद उसकी ले उड़ीं कुछ ख़्वाब की बेताबियाँ ।

 

-आनन्द.पाठक-



बुधवार, 15 मई 2024

ग़ज़ल 368/13-A : क्या मुझको समझना है


ग़ज़ल 368/13-A

221---1222//221---1222


क्या मुझको समझना है, क्या तुमको बताना है

किरदार तुम्हारा जो, झूठा है फ़साना  है ।

 

इस दौर-ए-निज़ामत के, तुम एक अदद पुर्जा ,

नाज़िम तो नहीं तुम हो, जाने ये ज़माना है ।

 

तुम चाँद सितारों की, बातों में न खो जाना ,

मक़्सूद न ये मंज़िल , जीने का बहाना  है ।

 

रुकने से कभी तेरे, दुनिया तो नहीं रुकती

यह मन का भरम तेरा, कच्चा है, पुराना है ।

 

माना कि बहुत दूरी, हम भी न चले होंगे,

जाना है बहुत आगे, हिम्मत को जगाना है ।

 

मरने से तो अच्छा है, लड़ना है अँधेरों से

हर मोड़ उमीदों का, इक दीप जलाना है ।

 

हो काम भले मुशकिल, डरना न कभी ’आनन’

दुनिया के लिए हम को, इक राह बनाना है ।

 

 

-आनन्द.पाठक-