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मंगलवार, 12 अगस्त 2014

गीत 55 : तुम ’अहं’ की टोकरी...



तुम अहं की टोकरी  सर पर उठाए कब तलक
स्वयं की दुनिया बना कर ,स्वयं को छलते रहोगे

आईना तो आईना है ,सच है तो सच ही कहेगा
जो मुखौटा है तुम्हारा , वो मुखौटा  ही रहेगा
लाख भगवा वस्त्र पहनो या तिलक छापा लगा लो
जो तुम्हारा कर्म या दुष्कर्म है  ख़ुद ही कहेगा

सत्य की अवहेलना कर ,झूठ को स्वीकार करना
कब तलक तुम स्वयं की जयकार जय करते रहोगे

तुम भले ही जो कहो पर मन तुम्हारा जानता है
किस धुँए के पार्श्व में क्या सत्य है  पहचानता है
सोच गिरवी रख दिए प्रतिबद्धता के नाम पर जब
कब उजाले को उजाला दिल तुम्हारा  मानता है

खिड़कियाँ खोलो कि देखो रुत बदलने लग गई
बन्द कमरे की घुटन में कब तलक सड़ते रहोगे

आँकड़ों के रंग भर ,रंगीन तस्वीरें  सजा कर
और सूनी आँख में फिर कुछ नए सपने जगा कर
अस्मिता का प्रश्न है ,लाशें लटकती पेड़ पर जब
भूल जाते हैं उसे फिर ,प्रश्न  ’संसद’ में उठा कर

शब्द की जादूगरी से नित तिलस्मी जाल बुन कर
आम जनता को कहाँ तक ,कब तलक छलते रहोगे

-आनन्द.पाठक-

1 टिप्पणी:

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    आपका स्नेहकांक्षी

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