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रविवार, 23 मई 2021

ग़ज़ल 171 : आँकड़ों से हक़ीक़त छुपाना भी क्या !

 212---212---212---212

ग़ज़ल 171 

आँकड़ों से हक़ीक़त छुपाना भी क्या
रोज़ रंगीन सपने  दिखाना भी क्या !

सोच में जब भरा  हो  धुआँ ही धुआँ
उनका सुनना भी क्या और सुनाना भी क्या !


वो जमीं के मसाइल न हल कर सके
चाँद पर फिर महल का बनाना भी क्या !

बस्तियाँ जल के जब ख़ाक हो ही गईं
बाद जलने के आना न आना भी क्या !

अब सियासत में बस गालियाँ रह गईं
ऎसी तहजीब को आजमाना भी क्या !

चोर भी सर उठा कर चले आ रहें
उनको क़ानून का ताज़ियाना भी क्या !

लाख दावे वो करते रहे साल भर
उनके दावों का सच अब बताना भी क्या !

इस व्यवस्था में ’आनन’ कहाँ तू खड़ा ,
बस ख़यालों में परचम उठाना भी क्या !

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 
मसाइल = समस्यायें .मसले
ताज़ियाना = चाबुक ,कोड़े

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7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात ..... बहुत धार दार ग़ज़ल .... सियासत पर हर शेर भारी .....

    बेहतरीन

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  2. आपकी लिखी  रचना  सोमवार  24 मई  2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।संगीता स्वरूप 

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  3. बस्तियाँ जल के जब ख़ाक हो ही गईं
    बाद जलने के आना न आना भी क्या !
    सच को उजागर करती ग़ज़ल।

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  4. अब सियासत बस गालियाँ रह गईं
    ऎसी तहजीब को आजमाना भी क्या !
    चोर भी सर उठा कर चले आ रहें
    उनको क़ानून का ताज़ियाना भी क्या !////
    सम सामयिक सार्थक रचना आनंद जी | हार्दिक शुभकामनाएं|

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  5. वो जमीं के मसाइल न हल कर सके
    चाँद पर फिर महल का बनाना भी क्या !
    वाह!!!
    क्या बात...
    बहुत ही लाजवाब।

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  6. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद---सादर

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