ग़ज़ल 205 [19 A]
1222---1222---1222--1222--
तुम्हें
जब तक ख़बर होगी बहुत कुछ हो चुका होगा
वो
सूली से उतर कर भी दुबारा चढ़ गया होगा
जो
कल तक घूमता था हाथ में लेकर खुला ख़ंजर
सियासत
की इनायत से मसीहा बन गया होगा
तुम्हे
जिसकी गवाही पर, अभी
इतना भरोसा है
वो
अपने ही बयानों से मुकर कर हँस रहा होगा
फ़क़त
कुरसी निगाहों में, जहाँ
था ’स्वार्थ’ का दलदल
तुम्हारा
’इन्क़लाबी’ रथ ,वहीं
अब तक धँसा होगा
चलो
माना हमारी मौत पर ’अनुदान’ दे दोगे
मगरमच्छों
के जबड़ों से, भला अब क्या बचा होगा?
गड़े
मुरदे उखाड़ोगे कि जब तक साँस फ़ूँकोगे
कि
ज़िंदा आदमी सौ बार जीते जी मरा होगा
उठानी
थी जिसे आवाज़ संसद में, मेरे हक़ में
वो
कुर्सी के ख़याल-ओ-ख़्वाब में उलझा रहा होगा
भला
ऐसी अदालत से करें फ़रियाद क्या ’आनन’
जहाँ
क़ानून अन्धा हो, जहाँ
आदिल बिका होगा
-आनन्द.पाठक-
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