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शनिवार, 22 मई 2010

ग़ज़ल 012[09] : जूनून-ए-इश्क में हमनें ......

मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन
1222----------1222---------1222------1222
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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एक ग़ज़ल 012--ओके

जुनून-ए-इश्क़ में हमने न जाने क्या कहा होगा !
थे इतने बेख़ुदी में गुम कि हम को क्या पता होगा

मैं अपने इज़्तिराब-ए-दिल को समझाता हूँ रह रह कर
कि जितना चाहता हूँ  ,वो भी  उतना  चाहता होगा

नशा ऐसा चढ़े उल्फ़त का, फिर उतरे नहीं , मौला !
उतर जाए अगर तो फिर नशा वह क्या नशा होगा

हमें मालूम है नाकामी-ए-दिल, हसरत-ए-उल्फ़त
हमें तो आख़िरी दम तक वफ़ा से वास्ता होगा

सभी तो रास्ते जाते तुम्हारी ही गली को हैं
वहाँ से लौट आने का न कोई रास्ता होगा

ख़याल-ओ-ख़्वाब में जिस के, कटी ये ज़िन्दगी अपनी
मैं उसको जानता हूँ, क्या वो मुझको  जानता होगा ?

जो उसको ढूँढने निकला ,तो खुद ही खो गया"आनन"
जिसे ख़ुद में नहीं पाया , वो बाहर ला-पता होगा

-आनन्द.पाठक

इज़्तिराब-ए-दिल = दिल की बेचैनी/बेचैन दिल



3 टिप्‍पणियां:

  1. जुनून-ए-इश्क़ में हमने न जाने क्या "किया" होगा!
    बहुत खूब - लाजवाब ग़ज़ल

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  2. "ख़याल-ओ-ख़्वाब में जिस के, कटी है ज़िन्दगी अपनी
    मैं उसको जानता हूँ, क्या वो मुझ को जानता होगा ?"

    ... क्या बात है!!!!

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  3. आ० कौशिक जी/सत्यार्थी जी
    ग़ज़ल की सराहना के लिए धन्यवाद
    सादर
    आनन्द.पाठक

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