रिपोर्ताज

शनिवार, 5 जून 2010

एक ग़ज़ल 013 : लबों पर दुआएं..........

फ़ऊलुन---फ़ऊलुन---फ़ऊलुन---फ़ऊलुन
122---------122--------122--------122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
----------------------------------------------


ग़ज़ल  013 :लबों पर दुआएं.....ओके

लबों पर दुआएं , पलक पर नमी है
बता ज़िन्दगी! अब तुझे क्या कमी है?

हज़ारों मसाइल ,हज़ारों मसाइब
मगर फिर भी ज़िन्दा यहाँ आदमी है

मेरी मुफ़लिसी पे तरस खाने वालों
तुम्हारा यह रोना फ़क़त मौसमी है

हवादिस में जीना ,हवादिस में मरना
ग़रीबों को क्या बस यही लाजिमी है ?

कहीं उठ रहा है धुआँ गाहे गाहे
लगी आग दिल की न अबतक थमी है

चलो प्यार का एक पौधा लगाएं
यहाँ की ज़मी में अभी भी नमी है

उसी से मुख़ातिब ,उसी के मुख़ालिफ़
ये "आनन" का रिश्ता अजब बाहमी है

-आनन्द
मसाइल =समस्यायें
मसाइब =मुसीबतें
हवादिस =हादसे



6 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  2. लबों पर दुआएं , पलक पर नमी है
    बता ज़िन्दगी! अब तुझे क्या कमी है?

    मिरी मुफ़लिसी पे तरस खाने वालों
    तुम्हारा यह रोना फ़क़त मौसमी है

    बहुत बढ़िया शेर हैं भाई ...

    जवाब देंहटाएं
  3. चलो प्यार का एक पौधा लगाएं
    यहाँ कि ज़मी में अभी भी नमी है

    -बहुत उम्दा..वाह!

    जवाब देंहटाएं
  4. लबों पर दुआएं , पलक पर नमी है
    बता ज़िन्दगी! अब तुझे क्या कमी है?
    ग़ज़ल का हर शेर लाजवाब ...

    जवाब देंहटाएं
  5. आशा तो जीवन मूल है,
    कभी गुल या सूल है,
    बात सीरी-माकुल है,
    निरासा बस फ़िजूल है.
    क्यू कि .

    चलो प्यार का एक पौधा लगाएं
    यहाँ की ज़मी में अभी भी नमी है

    जवाब देंहटाएं