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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

एक ग़ज़ल 43 : चौक पे कन्दील जब...

एक ग़ज़ल : चौक पे कन्दील जब ....

2122-2122-212


चौक पे कन्दील जब जलने लगी

तब सियासत मन ही मन डरने लगी



आदिलों की कुर्सियाँ ख़ामोश हैं

भीड़ ही अब फ़ैसला करने लगी



क़ातिलों की बात तो आई गई

कत्ल पे ही शक ’पुलिस’ करने लगी



ख़ून के रिश्ते फ़क़त पानी हुए

’मां’ भी बँटवारे में है बँटने लगी



जानता हूं ये चुनावी दौर है

फिर से सत्ता दम मिरा भरने लगी



तुम बुझाने तो गये थे आग ,पर

क्या किया जो आग फिर बढ़ने लगी



इस शहर का हाल क्या ’आनन’ कहूँ

क्या उधर भी धुन्ध सी घिरने लगी ?



-आनन्द पाठक
09413395592




आदिल = न्यायाधीश

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी ग़ज़ल है , वाह वाह ! " क़त्ल पर ही पुलिस शक करने लगी' को " क़त्ल पर ही शक पुलिस करने लगी' कर लीजिये ।

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