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गुरुवार, 19 जून 2025

ग़ज़ल 439 [ 13-G) : जो राहें ख़ुद बनाते हैं--

 ग़ज़ल 439 [13-G]


1222---1222---1222---1222


जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या

मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।


पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते

उन्हें तुम क्यों जगाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।


नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना

उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।


रखूँ उम्मीद क्या उनसे, करेगा वह भला किसका

हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।


मिले वह सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर

नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।


अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित

बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।


करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे

पता कुछ भी न हो जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।


-आनन्द.पाठक-


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