रिपोर्ताज

सोमवार, 31 जनवरी 2022

ग़ज़ल 212 [ 16 A] : तुम पास ही खड़ी थी--

 ग़ज़ल 212 [16 A]

221---2122---221---2122

बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब सालिम अख़रब सालिम अल आख़िर

मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन----मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन

=========  =========  =====

तुम पास ही खड़ी थी, मुझको ख़बर नहीं थी

मुझसे कटी कटी थी, मुझको ख़बर नहीं थी

 

आवाज़ अपने दिल की, किसको सुना गया मैं

क्या तुमने भी सुनी थी? मुझको ख़बर नहीं थी

 

ख़ामोश क्यों खड़ी थी, इज़हार-ए-इश्क़ पर तुम

क्या मुझमें कुछ कमी थी? मुझको ख़बर नहीं थी

 

आने को कह गई थी जब जा रही थी उस दिन

आँखों में क्या नमी थी? मुझको ख़बर नहीं थी

 

मैने नहीं लगाई, यह आग इश्क़ की जब

कैसे ये कब लगी थी? मुझको ख़बर नहीं थी

 

तुम से मिली नज़र तो ख़ुद में न ख़ुद रहा मैं

कैसी वो बेख़ुदी थी? मुझको ख़बर नहीं थी

 

इस आशिक़ी में ’आनन’ रहती किसे ख़बर है

चाहत थी? बन्दगी थी? मुझको ख़बर नहीं थी

 

 


-आनन्द.पाठक-


रविवार, 30 जनवरी 2022

ग़ज़ल 211 [17 A] : दो-चार गाम रह गया था

 ग़ज़ल 211[17 A]


2212----1212---1212--1212

बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मख्बून 


 

दो चार-गाम रह गया था मंज़िलों का फ़ासिला

गुमराह कर दिया है मेरे राहबर ने क़ाफ़िला

 

उम्मीद रहबरी से थी. यक़ीन जिस पे था मुझे

झूठे सपन दिखा दिखा के रहजनों से जा मिला

 

कुछ हादिसों से सामना है, साजिशे हैं वक़्त की

कुछ इस तरह से चल रहा है ज़िन्दगी का सिलसिला

 

कुछ प्रश्न यक्ष के रहे, सवाल ज़िन्दगी के भी

लेकिन जवाब आदमी को कब कहाँ सही मिला

 

दो-चार साँस मर गया तो एक साँस जी सका

दो-चार दिन ख़ुशी के थे फिर आँसुओं का सिलसिला

 

फ़ुरसत कभी मिली नहीं कि खुद से ख़ुद मैं मिल सकूँ

तेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब में ही दिल रहा था मुबतिला

 

दुनिया हसीन है, अगर तू प्यार की नज़र से देख

आनन’ कभी किसी के दिल में फूल प्यार का खिला

 

 


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

ग़ज़ल 210[ : हर सिम्त धुआँ उठता ,वह आग उगलता है

 ग़ज़ल 210 [57] 


221---1222  // 221--1222


हर सिम्त धुआँ उठता , वह आग उगलता है

मौक़े के मुताबिक ही. वह रंग बदलता है


हर बार चुनावों में , वादों की हैं सौगातें

फिर बाद चुनावों के, मुँह फेर के चलता है


मज़लूम के आँसू हैं , आवाज़ नहीं होती

हर बूँद की गरमी से, पत्थर भी पिघलता है


जब जान रहा हैं तू , वादों की हक़ीक़त क्या

फेंके हुए सिक्कों पर, क्यों पाँव फिसलता है


है काम यही उनका, वो जाल बिछाते हैं

हर बार है क्यूँ फँसता ,तू क्यों न सँभलता है


यह देश चमन मेरा ज़रख़ेज़ ज़मीं इसकी, 

नफ़रत न उगा इसमे , बस प्यार ही फलता है


’आनन’ यह सियासत है, या शौक़ कि मजबूरी

वह सेंक रहा रोटी , घर और का जलता है 


-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 209[57 A] : ’कथनी’ में क्या क्या न कहा करते है

 ग़ज़ल 209[57 A] : 

मूल बह्र 

21--121--121--121---122 =20


 

’कथनी’ में क्या क्या न कहा करते हैं

’करनी’ पर मुँह फेर लिया करते हैं

 

घोटालों में जीने  मरने वाले

ऊपर से ही पाक दिखा करते हैं

 

आँसू उतने क्षार नहीं हैं मेरे

जितने उनके हास लगा करते हैं

 

सोच रहे है वो कि दुनिया  मुठ्ठी में

किस दुनिया में लोग रहा करते हैं

 

नफ़रत हिंसा आग लगाने वाले

माचिस अपने साथ रखा करते हैं

 

देश भरा है जब तक गद्दारों से

किस भारत की बात किया करते हैं

 

हम गमलों के पौध नहीं हैं ,’आनन’

धूप कड़ी हो तो भी जिया करते हैं

 

 

 

 


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 22 जनवरी 2022

ग़ज़ल 208 : गुमराह हो गया तू बातों में किसकी आ कर

 ग़ज़ल 208


221--2122--// 221-2122


गुमराह हो गया तू, बातों में किसकी आ कर
दिल राहबर है तेरा, बस दिल की तू सुना कर

किसको पुकारता है, पत्थर की बस्तियों में
खिड़की नहीं खुलेगी,तू लाख आसरा कर

मिलना ज़रा सँभल कर ,बदली हुई हवा है
हँस कर मिलेगा तुमसे ख़ंज़र नया छुपा कर

जब सामने खड़ा था भूखा ग़रीब कोई
फिर ढूँढता है किसको दैर-ओ-हरम में जाकर ?

मौसम चुनाव का है ,वादे तमाम वादे
लूटेंगे ’वोट’ तेरा ,सपने दिखा दिखा कर

मेरा जमीर मुझको देता नहीं इजाज़त
’सम्मान’ मैं कराऊँ ,महफ़िल सजा सजा कर

’आनन’ तेरी ये ग़ैरत अब तक नहीं मरी है
रखना इसे तू ज़िन्दा हर हाल में बचा कर

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

कविता 15 : मन बेचैन रहा करता है

 

कविता  15

 

मन बेचैन रहा करता है

न जाने क्यों ?

उचटी उचटी नींद ज़िन्दगी

इधर उधर की बातें आतीं

टूटे-फूटे सपने आते

खंड-खंड में जीवन लगता

बँटा हुआ है।

धुँधली-धुँधली, बिन्दु-बिन्दु सी

लगती मंज़िल

लेकिन कोई बिन्दु नहीं जुड़ पाता मुझसे

न जाने क्यों ।

 

एक हाथ में कुछ आता है

दूजे हाथ फिसल जाता है

रह रह कर है मन घबराता

न जाने क्यों ।

 

-आनन्द.पाठक-

 

 

कविता 14 : जीवन के हर एक मोड़ पर

 

-कविता 14 

 

जीवन के हर एक मोड़ पर

कई अजनबी चेहरे उभरे

भोले भाले

कुछ दिलवाले

चार क़दम चल कर,

कुछ ठहरे

कुछ अन्तस में

गहरे उतरे ।

 

जब तक धूप रही जीवन में

साया बन कर साथ रहे

हाथों में उनके हाथ रहे

अन्धकार जब उतरा ग़म का

छोड़ गए, मुँह मोड़ गए कुछ

वो छाया थे।


फिर वही जीवन एकाकी

आगे अभी सफ़र है बाक़ी

लोग यहाँ पर मिलते रहते

जुड़ते और बिछड़ते रहते

क्या रोना है

क्यों रोना है

जीवन है तो यह होना है ।

अनुभूतियाँ : क़िस्त 015

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 015


57

कितनी दूर चलेंगे हम तुम

सपनों की झूठी छाया में

जीवन है इक सख़्त हक़ीक़त

कब तक जीना इस माया में ।

 

58

यक्ष ने क्या क्या और कहा था

मेघ ! तुम्हें वह दूत बना कर ?

तुम भी मेरी पाषाणी को

हाल बताना बढ़ा-चढ़ा कर ।

 

59

मेघ ! ज़रा यह भी बतलाना

क्या वो मिली थी तुम से आकर?

हाल सुनी तो क्या क्या बोली ?

भाग गई या आँख चुरा कर ?

 

60

अगर तुम्हें लगता हो ऐसा

साथ छोड़ना ही अच्छा है

मिला तुम्हें हमराह नया जो

मुझसे क्या ज़्यादा सच्चा है? 


 

अनुभूतियाँ : क़िस्त 014

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 014 ओके


53

आने वाले कल को किसने

कब देखा है, कब सोचा है ?

फिर भी सपने बुनते रहते

जान रहे हैं सब धोखा है ।

 

54

किसको फ़ुरसत सुने हमारी

सब के अपने अपने ग़म हैं

ऊपर ऊपर हँसते रहते

भीतर भीतर आँखें नम हैं ।

55

औरों के ग़म एक तरफ़ हैं

अपना ग़म ही लगता बढ़ कर

और तुम्हारे हुस्न का जादू

बोल रहा है सर पर चढ़ कर ।

 

56

कितने थे मासूम तुम्हारे

प्रश्न  कभी पूछा करती थी

प्यार मुहब्बत क्या होता है

जीवन क्या? सोचा करती थी ।


 

बुधवार, 19 जनवरी 2022

ग़ज़ल 207 [20 A] : आदमी में ’आदमीयत’ अब नहीं आती नज़र

 ग़ज़ल 207[20 A]


2122---2122--2122--212


आदमी में ’आदमीयत’ अब नहीं आती नज़र 

एक ज़िन्दा लाश बन करने लगा है तय सफ़र

 

और के कंधों पे चढ़ कर जब से वो चलने लगा

वह बताने में लगा है यह नया उसका हुनर

 

वह चला था गाँव से सर पर उठाए ’संविधान

राजपथ’ पर लुट गया, बनती नहीं कोई ख़बर

 

आज के इस दौर में सुनता है कब कोई किसे

मसअ’ले सबके हैं अपने, सबकी अपनी रहगुज़र

 

लोग तो बहरे नहीं थे, और गूँगे भी नहीं

क्यों सितम पर चुप रहे, क्यों बेज़ुबाँ थे, बेअसर

 

छोड़िए अब क्या रखा है आप के ’अनुदान’ में

आप ही के सामने जब मर गया लख़्त-ए-जिगर

 

लाख हों तारीक़ियाँ ’आनन’ तुम्हारे सामने

हौसला रखना ज़रा ,बस होने वाली है सहर

 


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 18 जनवरी 2022

कविता 13 : मन के अन्दर

  कविता 13 


मैं हूँ 

मेरे  मन के अन्दर 

गंगा जी की निर्मल धारा

मन उँजियारा

शंखनाद से पूजन अर्चन

सुबह-शाम की भव्य आरती

चलता रहता भगवत कीर्तन

मन मेरा है सुबह-ए-बनारस

क्षमा दया और करुणा रस


मैं हूँ 

मेरे मन के अन्दर 

कहीं खनकती 

पायल-घुँघरु की झंकारें 

गजरे की ख़ुशबू

मुझे पुकारें

महफ़िल सजती 

हुस्न-ओ-अदा जब नाज़नीन की

जादू करती

रंग महल में ताता-थैय्या .रूप , रुपैय्या

तब मेरा दिल शाम-ए-अवध है


मैं हूँ 

मेरे मन के अन्दर

खिचीं मुठ्ठियाँ इन्क़्लाब की

तेज़ रोशनी आफ़ताब की

कहीं दहकते दिल में शोले

कहीं चाँदनी माहताब की


मन के अन्दर राम बसे है

मन में ही रावन बसता है

इस मन में ही कृष्ण कन्हैया

 इक कोने में 

"कंस’ खड़ा हो कर हँसता है


यह सब हैं तेरे भी अन्दर

किसे बसाना ,किसे मिटाना

तुझको ही यह तय करना 

कौन राह  तुझको चलना 


-आनन्द,पाठक-


सोमवार, 17 जनवरी 2022

कविता 12 : गिद्ध नहीं वह

 कविता 12 


गिद्ध नहीं वो

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी

और सोच भी उनकी वैसी ।

हमें लूटते कड़ी धूप में 

खद्दरधारी टोपी पहने ।

रंग रंग की कई टोपियाँ

श्वेत-श्याम हैं और गुलाबी

नीली, पीली, लाल ,हरी हैं

’कुरसी’ पर जब नज़र गड़ी है

’जनता’ की कब किसे पड़ी है

ढूँढ रही हैं ज़िन्दा लाशें

पाँच बरस की ”सत्ता’ जी लें


ऊँची ऊँची बातें करना

हर चुनाव में घातें करना

हवा-हवाई महल बनाना

शुष्क नदी में नाव चलाना

झूठे सपने दिखा दिखा कर 

दिल बहलाना, मन भरमाना

संदिग्ध नहीं वो

सोच मगर संदिग्धों जैसी

गिद्ध नहीं वो 

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी ।


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 8 जनवरी 2022

ग़ज़ल 206[62 A] : जो बर्फ़ पड़ी दिल की चादर पे

 ग़ज़ल  206[62 A]

221---1222 // 221- 1222

जो बर्फ़ है रिश्तों की चादर पे, पिघलने दो

कुछ दिल को तपिश दे दो, इक राह निकलने दो

 

क़िस्मत से मिला करते ,ज़ुल्फ़ों के घने साए

गर आग मुहब्बत की जलती है तो जलने दो

 

मायूस नहीं होना हालात-ए-मुकद्दर से 

आएँगी बहारें भी, मौसम तो बदलने दो 

 

तुम हाथ बढ़ा दोगे, इतिहास बदल देंगे

रग रग में लहू उबले कुछ और उबलने दो

 

गुलशन हैं लगे खिलने, महकी हैं हवाएँ भी

बहके हैं क़दम जो ये ,इनको न सँभलने दो

 

मालूम नहीं मुझको, यह नाज़-ओ-अदा, नख़रे

यह हुस्न मुझे छलता , छलता है तो छलने दो

 

आज़ाद परिन्दें हैं ,रोको न इन्हें ’आनन’

पैग़ाम-ए-मुहब्बत से , दुनिया को बदलने दो

 

 

 

 

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 205[19 A] : तुम्हें जब तक ख़बर होगी--

 ग़ज़ल  205 [19 A]

1222---1222---1222--1222--


तुम्हें जब तक ख़बर होगी बहुत कुछ हो चुका होगा

वो सूली से उतर कर भी दुबारा चढ़ गया होगा  

 

जो कल तक घूमता था हाथ में लेकर खुला ख़ंजर

सियासत की इनायत से मसीहा बन गया होगा

 

तुम्हे जिसकी गवाही पर, अभी इतना भरोसा है

वो अपने ही बयानों से मुकर कर हँस रहा होगा

 

फ़क़त कुरसी निगाहों में, जहाँ था ’स्वार्थ’ का दलदल

तुम्हारा ’इन्क़लाबी’ रथ ,वहीं अब तक धँसा होगा

 

चलो माना हमारी मौत पर ’अनुदान’ दे दोगे

मगरमच्छों के जबड़ों से, भला अब क्या बचा होगा?

 

गड़े मुरदे उखाड़ोगे कि जब तक साँस फ़ूँकोगे

कि ज़िंदा आदमी सौ बार जीते जी मरा होगा

 

उठानी थी जिसे आवाज़ संसद में, मेरे हक़ में

वो कुर्सी के ख़याल-ओ-ख़्वाब में उलझा रहा होगा 

 

भला ऐसी अदालत से करें फ़रियाद क्या ’आनन’

जहाँ क़ानून अन्धा हो, जहाँ आदिल बिका होगा

 

-आनन्द.पाठक-