रविवार, 17 मई 2009

ग़ज़ल 003 [66 A] :पंडित की राह इधर ...

 ग़ज़ल 003 [66 अ] ओके

21---121---121--122 // 212--121--121---122


  

पंडित की राह इधर से है, मुल्ला की राह उधर से है

हम बीच खड़े हैं दोनों के, दिल देखे एक नज़र से है ।

 

नफ़रत का ज़ह्र धुआँ बनता, अपनों का ही है दम घुटता

मैं ढूँढ रहा हूँ प्रेम-गली , बहती रसधार जिधर से है ।

 

सब भटके भूल-भुलैया में, ’जंत्री’ में, पोथी-पतरा में ,

जो होना है वो होगा ही, होना उसके ही असर से है ।

 

काशी में है, संगम से है , हर की पौड़ी, गंगा सागर 

मै पूछ रहा हूँ पंडों से, मुक्ति का द्वार किधर से है ?

 

जब ’शबरी’ की श्रद्धा जैसी, हर दिल में भाव जगे वैसा

लौटेंगे ’राम’ कुटी में तब, उम्मीद उसी मंज़र से है

 

जो बीत गया, सो बीत गया, बाक़ी है राह अभी आगे         

बस दिल की बात सुना करना, आती आवाज़ जिधर से है।

 

गुलज़ार-ए-हस्ती में ’आनन’, क्यों भूल गया सब दीन-धरम

जीने का मक़सद क्या इतना, बस रिश्ता सीम-ओ-ज़र से है ?

 


-आनन्द. पाठक-













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