शुक्रवार, 3 जून 2022

ग़ज़ल 241(06E) : तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो--

 ग़ज़ल 241

1222---1222---1222--1222

तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो दिखा होगा

उन्हें कुछ तो सबूतों में, बयानों मे मिला होगा


बिना पूछॆ सफ़ाई में जो चाहे सो कहो, लेकिन

धुआँ बिन आग का उठता कहाँ ? तुमको पता होगा


तुम्हीं मुजरिम, तुम्ही मुन्सिफ़, गवाही में खड़े तुम ही

तमाशा है दिखाने को  ,तुम्हें करना पड़ा होगा


हमें तुम क्या समझते हो, हमे सच क्या नहीं मालूम?

"हरिशचन्दर’ नहीं हो तुम ,ये तुमको भी पता होगा 


तुम्हारी झूठ की खेती, तुम्हारे झूठ का धन्धा

तुम्हारा "ऎड" टी0वी0 पर निरन्तर चल रहा होगा


वो कह कर तो यही आया 'बदलना है निज़ामत को'

ख़बर क्या थी कि "कुर्सी" के लिए अन्धा हुआ होगा


जहाँ अपनी सफ़ाई में सदाक़त ख़ुद क़सम खाती

समझ लो झूठ की जानिब यक़ीनन फ़ैसला होगा


कहें हम क्या उसे ’आनन’,  मुख़ौटॊं पर मुखौटे हैं

लिए मासूम सा चेहरा वो सबको छल रहा होगा 


-आनन्द.पाठक--
शब्दार्थ

निज़ामत = व्यवस्था

सदाक़त = सच्चाई

पोस्टेड 04-06-22