1222---1222--1222---1222
मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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भरेगा चाबियाँ उतनी तू जितना नाच पाएगा ।
ग़ज़ल 269 / 34 E
212---212---212---212
आप की बात में वो रवानी लगी
एक नदिया की जैसे कहानी लगी
आप जब से हुए हैं मेरे हमसफ़र
ग़मजदा ज़िंदगी भी सुहानी लगी
आप की साफ़गोई, अदा, गुफ़तगू
कुछ नई भी लगी कुछ पुरानी लगी
छोड़ कर वो गया करते शिकवा भी क्या
उसको शायद वही शादमानी लगी
झूठ के साथ सोते हैं जगते हैं वो
सच भी बोलें कभी लन्तरानी लगी
राह सबकी अलग, सबके मज़हब अलग
एक जैसी सभी की कहानी लगी
यह फ़रेब-ए-नज़र या हक़ीक़त कहूँ
ज़िंदगी दर्द की तरज़ुमानी लगी
एक तू ही तो ’आनन’ है तनहा नहीं
राह-ए-उलफ़त जिसे राह-ए-फ़ानी लगी
-आनन्द पाठक -
97
दो दिन की उस मुलाकात में
जीवन भर के सपने देखे,
पागल था दिल दीवाना था
औक़ात नहीं अपने देखे ।
98
टूट चुका है दिल अन्दर से
तुमको नहीं दिखाई देगा,
अन्दर अन्दर ही रोता है
तुमको नहीं सुनाई देगा ।
99
ऎ दिल ! क्यों सर पीट रहा है
बात ये क्या मालूम नहीं थी ?
जितना उसको समझ रहा था
वो उतनी मासूम नहीं थी ।
100
हँस कर मिलना जुलना मेरा
दुनिया ने कमजोरी समझा,
मेरी ख़ामोशी को अकसर,
लोगों ने मजबूरी समझा ।
93
गुलशन गुलशन ख़ुशबू महके
और हवाएँ हों आवारा ,
जितना जीना जी ले, प्यारे !
कब मिलता जीवन दोबारा !
94
बोझ अगर है इन कंधों पर
सिर्फ़ तेरे जाने का ग़म है
वरना तो दिल बहलाने को
यादें हैं, आँखें पुरनम है ।
95
दान नहीं, सौगात नहीं यह
खुद है सँवारा जीवन अपना,
भला बुरा या चाहे जैसा
मेरा जीवन, मधुवन अपना
96
उन बातों को दुहराना क्या
घुमा-फिरा कर बात वही है,
व्यर्थ बहस अब क्या करना है
कौन ग़लत था, कौन सही है ।
89
ईद हमारी आज हुई है
चाँद जो लौटा घर को अपने,
एक झलक पाने की ख़ातिर
रोज़ा रखा माह भर हमने ।
90
इतनी दूर आ गए हम तुम
लौट के अब जाना नामुमकिन
और कहाँ तक साथ चलेंगे
प्रश्न वही है अब भी लेकिन।
91
हाथ न रख्खो इन कंधों पर
आँसू हैं इनको बहने दो,
मैने इनको पाल रखा है
दर्द हमारे संग रहने दो ।
92
होली का मौसम आया है,
’फ़गुनहटा’ आँचल सरकाए,
मादक हुई हवाएँ, प्रियतम !
रह रह कर है मन भटकाए ।
85
कल तुमने की नई शरारत,
दिल में अभी हरारत सी है
ख़्वाब हमारे जाग उठे फिर
राहत और शिकायत भी है
86
जब तुम को था दिल बहलाना
पहले ही यह बतला देते
लोग बहुत तुम को मिल जाते,
चाँद सितारे भी ला देते ।
87
मधुर कल्पना मधुमय सपनें
कर्ज़ तुम्हारा है, भरना है,
जीवन की तपती रेती पर
नंगे पाँव सफ़र करना है ।
88
मत पूछो यह कैसे तुम बिन
विरहा के दिन, कठिन ढले हैं ,
आज मिली तो लगता ऐसे
जनम जनम के बाद मिले हैं ।
81
सच क्या बस उतना होता है
जितना हम तुम देखा करते ?,
कुछ ऐसा भी सच होता है
अनुभव करते सोचा करते
82
क्या कहना है अब सब छोड़ो
क्या पाया, दिल ने क्या चाहा,
कितनी बार सफ़र में आया
मेरे जीवन में चौराहा ।
83
नए वर्ष के प्रथम दिवस पर
सब के थे संदेश, बधाई,
दिन भर रहा प्रतीक्षारत मैं
कोई ख़बर न तेरी आई ?
84
सोच रही क्यों अलग राह की?
ऐसा तो व्यक्तित्व नहीं है ,
चाँद-चाँदनी एक साथ हैं
अलग अलग अस्तित्व नहीं है ।
77
मेरे मन की इक दुनिया में
एक तुम्हारी भी दुनिया थी
आज वहाँ बस राख बची है
जहाँ कभी अपनी बगिया थी ।
78
सौ सौ जतन किए थे मैने
फिर भी रोक न पाया तुम को
आख़िर तुम ने वही किया जो
ग़ैरों ने समझाया तुम को ।
79
क्या तुम भी तारे गिनती हो
सूनी सूनी सी रातों में,
जाओ तुम भी सो जाओ अब
क्यों उलझी हो उन बातों में ।
80
काल-चक्र को चलना ही है
कोई गिरता, उठता कोई ,
जीवन और मरण का सच है
कोई सोता, जगता कोई ।
73
कोई बची न चाहत मन में
और न मन में कुछ दुविधा है
प्यार-मुहब्बत लगता ऐसे
पल दो पल की नई विधा है ।
74
एक
समय था वह भी जब तुम
मेरी
ग़ज़ल हुआ करती थी,
साथ
रहेगा जीवन भर का-
बार
बार तुम दम भरती थी ।
75
सुबह सुबह ही उठ कर तुम ने
अल्हड़ सी जब ली अँगड़ाई,
टूट गया दरपन शरमा कर
खुद से खुद तुम भी शरमाई ।
76
सोच रही हो अब क्या, मुझमें
क्या है कमियाँ, क्या अच्छा है
नेक चलन, बदनाम है ’आनन’
इन बातों में क्या रख्खा
है !
65
प्यार किसी का ठुकराने में
कितना वक़्त लगा करता है
लेकिन जिसकी चाहत हो तुम
सारी उम्र जगा करता है ।
66
बादल बरसा कर जल अपने
मन हल्का निर्मल कर लेते,
आँसू मेरे बरस न पाते -
मन बोझिल बोझिल कर देते ।
67
एक सहारा बन कर आई
तुम जो गई तो गया सहारा
जिसको छोड़ दिया हो तुम ने
उसे मिला फिर कहाँ किनारा ।
68
आशाएँ ज़िन्दा रहती हैं
उम्मीदें कुछ अब तक बाक़ी
जिस घर को तुम छोड़ गई हो
आज अभी तक खाली खाली
।
69
वह निर्णय था स्वयं तुम्हारा
ग़लत किया या सही किया था
अब पछताने से क्या होगा
दिल ने तुम से, सही कहा था ।
70
इतना कर न भरोसा, पगले !
उड़ते बादल का न ठिकाना
आज यहाँ, कल और कहीं हो
उसको क्या हमराज़ बनाना ।
71
इन आँखों से जगते-सोते
तू भी जान रहा है, प्यारे!
सपने हैं ,कब पूरे होते ।
72
छुप छुप कर बातें करतीं थी
यादें तेरी तनहाई में
कितने स्वप्न बुना करती थी
जीवन की नव तरूणाई में ।
ग़ज़ल 268(33E)
1212--1122---1212--22
ये बात और थी वो पास मेरे आ न सका
ख़याल-ओ-ख़्वाब से उसको कभी भुला न सका
तमाम उम्र सदा हासिला रखा उसने
न जाने कौन सी दीवार थी, ढहा न सका
दयार-ए-यार से गुज़रा हूँ बारहा यूँ तो
वो रूबरू भी हुआ मैं नज़र मिला न सका
चला था शौक़ से राह-ए-तलब में ख़्वाब लिए
जो रस्म-ओ-राह थी उल्फ़त की मैं निभा न सका
बहुत हूँ दूर मगर राबिता वही अब भी
अक़ीदा आज भी दिल में वही, भुला न सका
ज़रा सी बात थी इतनी बड़ी सजा ,या रब !
जो बात आप से कहनी थी वो बता न सका
अज़ाब वक़्त के क्या क्या नहीं सहे ,’आनन’
भले ही टूट गया था, मैं सर झुका न सका
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
दयार-ए-यार से = यार के इलाके से
रस्म-ओ-राह = ढंग तरीक़ा
अक़ीदा = श्रद्धा विश्वास
राबिता = सम्पर्क
अज़ाब = यातना कष्ट
ग़ज़ल 267 [32E]
ग़ज़ल 267
122---122---122--122
उजालों को तुमने न आने दिया है
तो कहते हो फिर क्यों अँधेरा घना है
कभी बन्द कमरे से बाहर निकलते
तो फिर देखते कैसी रंगीं फ़िज़ा है
ख़ुदा जाने क्या तुमने मज़हब से सीखा
कि आज आदमी आदमी से डरा है
अना में रहे जब तलक मुब्तिला तुम
तुम्हे खुद से आगे न कुछ भी दिखा है
भरी भीड़ है आदमी हैं हज़ारों-
मगर ’आदमीयत’ हुई लापता है
कहाँ की थीं बातें, कहाँ ले गए तुम
अजब यह तुम्हारा तरीका नया है
सदाक़त की बातें जो करता हूँ ’आनन’
इसी बात पर यह ज़माना ख़फ़ा है
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
अना = अहं
सदाक़त = सच्चाई
ग़ज़ल 266 [31 E ]
221---2121---1221---212
उड़ता है बिन परों के ही वो आसमान में
खुद ही क़सीदा पढ़ने लगा खुद की शान में
मैं जानता हूँ क्या है हक़ीक़त ज़मीन की
बतला रहा कुछ और ही वह तर्ज़ुमान में
अपना बयान तो है उसे ’मन्त्र’-सा लगे
दिखते तमाम खोट हैं मेरे बयान में
माया, फ़रेब, झूठ जहाँ, आप ही दिखे
शुहरत बड़ी है आप की दुनिया-जहान में
आया था इन्क़लाब का परचम लिए हुए
वो बात अब कहाँ रही उसकी जुबान में
जादू है, मोजिज़ा है, हुनर है, कमाल है ?
उड़ता बिना ही पंख खुले आसमान में
लिख्खा गया हो शौक़ से, पढ़ता न हो कोई
’आनन’ को ढूँढिएगा उसी दास्तान में
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
अना = अहं. अहंकार
मोजिज़ा = चमत्कार
ग़ज़ल 265(30E)
2122---2122--212
उनकी इशरत शादमानी और है
मेरे ज़ख़्मों की निशानी और है
उनकी ग़ज़लें और ही कुछ कह रहीं
आइने की तर्ज़ुमानी और है
जो पढ़ा इतिहास क्या है सच वही
वक़्त की अपनी कहानी और है
रोटियों की बात पर ख़ामोश हैं
झूठ की जादूबयानी और है
बात वैसे आप की तो ठीक है
दिल की लेकिन हक़-बयानी और है
जर्द पत्ते शाख़ से टूटे हुए
दर बदर की ज़िंदगानी और है
नींद क्यों तुमको अभी आने लगी
दास्तां सुननी सुनानी और है
आप ’आनन’ से कभी मिलिए ज़रा
शौक़ मेरा, मेज़बानी और है।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
हक़बयानी - सच्ची बात
ग़ज़ल 264 [29 E]
2122---1212---22
आप से हाल-ए-दिल छुपा है क्या
अर्ज़ करना कोई ख़ता है क्या ।
आप ही जब न हमसफ़र मेरे
फिर सफ़र में भला रखा है क्या
सामने हो के मुँह घुमा लेना
ये तुम्हारी नई अदा है क्या
दर्द उठता है बेनियाजी पर
दर्द पारीन है नया है क्या
गर्मी-ए-शौक़ तो जगा दिल में
देख जीने में फिर मज़ा है क्या
छोड़ कर सब यहाँ से जाना है
साथ लेकर कोई गया है क्या
तुम तो ऐसे न थे कभी 'आनन'
आजकल तुम को हो गया है क्या
-आनन्द.पाठक-
दर्द-ए-पारीन = पुराना दर्द
ग़ज़ल 263 [28E]
2122--1212--112/22
बात दिल की सुना करे कोई
ख़ुद से ख़ुद ज्यों मिला करे कोई
राह सच की मुझे दिखाता है
मेरे दिल में रहा करे कोई
कौन है वो मैं जानता भी नहीं
मुझको मुझसे जुदा करे कोई
राह-ए-उल्फ़त तवील है इतना
कौन कितना चला करे कोई
दर्द-ए-दिल का न हो शिफ़ाख़ाना
दर्द की क्या दवा करे कोई
जान कर भी हक़ीक़त-ए-दुनिया
मान ले सच तो क्या करे कोई
चन्द रोज़ां की ज़िन्दगी ’आनन’
क्यों न हँस कर जिया करे कोई
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
शिफ़ाख़ाना = अस्पताल. चिकित्सालय
ग़ज़ल 262 [27 E]
122---122---122---122
कोई दर्द अपना छुपा कर हँसा है
कि क्या ग़म उसे है किसे ये पता है
वो क़स्में, वो वादे हैं कहने की बातें
कहाँ कौन किसके लिए कब मरा है
कभी तुमको फ़ुरसत मिले ग़ौर करना
तुम्हारी ख़ता थी कि मेरी ख़ता है ।
मरासिम नहीं है तो क्या हो गया अब
अभी याद का इक बचा सिलसिला है
तुम्हीं ने चुना था ये राह-ए-मुहब्बत
पता क्या नहीं था ये राह-ए-फ़ना है ?
न आती है हिचकी, न कागा ही बोले
ख़ुदा जाने क्यों आजकल वो ख़फ़ा है
न मेरे हुए तुम अलग बात है ये
मगर दिल मेरा आज भी बावफा है
बची उम्र भर यूँ ही तड़पोगे ’आनन’
तुम्हारे किए की यही इक सज़ा है ।
-आनन्द.पाठक-
मरासिम = संबंध ,Relations
ग़ज़ल 261 [26 E]
2122---2122---2122
इश्क तो दिल का ठिकाना ढूँढता है
रास्ता यह सूफियाना ढूँढता है
झूठ को जब सच बता कर बेचना हो
आदमी क्या क्या बहाना ढूँढता है
हादिसा क्या रह गया बाक़ी कोई अब ?
क्यों मेरा ही आशियाना ढूँढता है ?
लौट कर आता नहीं बचपन किसी का
क्यों अबस फिर दिन पुराना ढूँढता है
रोशनी अब तक नहीं उतरी जो दिल मे
फिर क्यों मौसम आशिक़ाना ढूँढता है
जिस फ़साने में जहाँ हो ज़िक्र उनका
दिल हमेशा वह फ़साना ढूँढता है
जब कभी बेचैन होता दिल ये ’आनन’
आप ही का आस्ताना ढूँढता है
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
मसाइल = मसले, समस्यायें
आस्ताना = ड्योढ़ी ,चौखट ,दर
ग़ज़ल 260 [25 इ]
221--1222--//221--1222
कुछ और सफ़ाई में कहता भी तो क्या कहता
दुनिया ने जो समझा है, तुमने भी वही समझा
इलज़ाम लगाना तो आसान बहुत सबको
उँगली तो उठाते हो, अपना न तुम्हें दिखता
करना है तुझे जो कुछ, कर अपने भरोसे पर
दुनिया की फ़क़त बातें, बातों में है क्यों उलझा
तड़्पूँ जो इधर मैं तो, वो भी न तड़प जाए
हर बार मेरे दिल में रहता है यही खटका
रखता है नज़र कोई इक ग़ैब के पर्दे से
छुपना भी अगर चाहूँ. ख़ुद को न छुपा सकता
माना कि भरम है सब तुम हो तो इधर हम हैं
हम-तुम न अगर होते, दुनिया में है क्या रख्खा
’आनन’ ये ज़मीं अपनी जन्नत से न कम होती।
हर शख़्स मुहब्बत की जो राह चला करता ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 259 [24 E]
2122---2122---2122
ज़ाहिदों की बात में क्यों आ रहा है ?
गर तू सादिक़ है तो क्यों घबरा रहा है?
क्यो है नफ़रत? आप समझें, आप जाने
प्यार क्या है? दिल मुझे समझा रहा है
साज़िशें करने लगी है अब हवाएँ-
कौन है जो नफ़रतें भड़का रहा है
आप की तारीफ़ ख़ुद ही आप ,साहिब !
तरबियत अख़लाक़ ही बतला रहा है
ख़ाक तेरी ख़ाक बन उड़ जाएगी जब
किस लिबास-ए-जिस्म पे बल खा रहा है
ज़िंदगी तो दी ख़ुदा ने सादगी की
तू हवस का जाल ख़ुद फ़ैला रहा है
रोशनी दिल में नहीं उतरी जब ’आनन’
तू किधर गुमराह हो कर जा रहा है ।
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
ज़ाहिद = धर्मोपदेशक
सादिक़ = सच्च न्यायनिष्ठ
तर्बियत- अख़्लाक़ = संस्कार शिष्ट आचार
ग़ज़ल 258 [23E]
221---2122 // 221--2122
तुमने जो नाम लेकर , मुझको कभी बुलाया
सौ काम छोड़ कर मै दौड़ा चला था आया
इस इज़्तराब-ए-दिल की क्या क़ैफ़ियत कहूँ मै
जो प्यार से मिला बस ,अपना उसे बनाया
गुमराह हो गया ख़ुद वो ढूँढता फिरे है
रस्ता तुम्हारे घर का जिसने मुझे बताया
रिश्ता ये बाहमी है यह जाविदाँ अज़ल से
उबरा वही है अबतक जिसने इसे निभाया
मेरी इबादतें थी या आप की नवाज़िश
हर शै में आप ही का चेहरा उभर के आया
हिर्स-ओ-हवस, अना से, निकला कभी जो बाहर
बेलौस साफ़ अपना किरदार रास आया
अपने गुनाह लेकर जाते किधर को जाते
पूछा कभी तो सबने दर आप का बताया
उनकी गली में ’आनन’ जाओगे भी तो कैसे
तुमने चिराग़-ए-उल्फ़त है क्या कभी जलाया ?
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
इज़्तराब-ए-दिल = दिल की बेचैनी/व्याकुलता
बाहमी रिश्ता = परस्पर आपसी रिश्ता
जाविदा = शाश्वत ,नित्य , अमर
हिर्स-ओ-हवस,अना से = लोभ मोह वासना अहम घमण्ड से
बेलौस साफ़ = पाक बेदाग़ साफ़