ग़ज़ल 408 [34 A]
2212---1212---2212---12
किस
किस ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता है आदमी
कितनी
जगह से जुड़ के भी टूटा है आदमी ।
कितने
सवाल हैं यहाँ जीने के नाम पर ,
हर
इक सवाल में यहाँ उलझा है आदमी ।
हालात-ए-ज़िंदगी
से कुछ ऐसे जकड़ गया ,
हँसता
न आदमी है, ना रोता है आदमी ।
जो
भी गया है आज तक, इस राह से कभी
जा
कर, अदम से फिर नहीं लौटा है आदमी।
आवाज़
आप दें उसे, बोलेगा वह ज़रूर
अन्दर
जो दिल में आप के बैठा है आदमी ।
कहने
को आदमी हैं यहाँ बेशुमार पर
अब
आदमी में भी नहीं दिखता है आदमी ।
गो,
मुशकिले तमाम है ’आनन’ ये मान लो
ज़िंदा
है हौसला तो फिर ज़िंदा है आदमी ।
-आनन्द.पाठक-