मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

गीत 49 : नव-वर्ष :की नव सुनहरी किरन से--



नए वर्ष का स्वागत गीत

नए वर्ष की नव सुनहरी किरन से
अनागत समय की इबारत लिखेंगे

भला या बुरा जो गया बीत छोड़ो
उठो और देखो ,सुबह हो रही है
नई धूप आ कर खड़ी देहरी पे
कि संकल्प की अब घड़ी हो रही है

हृदय की पटल पे जो नफ़रत लिखा हो
मिटा कर उसे हम मुहब्बत लिखेंगे

अँधेरों की चाहे हो जितनी भी ताक़त
हमेशा चिरागां से डरते रहे  हैं
बुझी राख से भी हैं शोले पनपते
हवाओं से मिल कर दहकते रहें हैं

क़लम के सिपाही हैं,अपना धरम है
हक़ीक़त है जो भी ,हक़ीक़त लिखेंगे

नए वर्ष में शान्ति की ज्योति फैले
सभी हों सुखी, बस यही कामना है
न बारूद का हो धुँआ,हो न दहशत
न साज़िश हो कोई ,यही भावना है

अगर पढ़ सको तो कभी आ के पढ़ना
अदावत के बदले रफ़ाक़त लिखेंगे

-आनन्द.पाठक-
09413395592

रविवार, 29 दिसंबर 2013

ग़ज़ल 55[30] : नाम लेकर बुला गया कोई...

ग़ज़ल 55[30]

2122-----1212------22
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन--फ़ेलुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
---------------------------------------------

नाम लेकर बुला गया कोई 
ख़्वाब दिल में जगा गया कोई

बात मेरी तो ज़ेर-ए-लब ही थी
बात अपनी सुना गया कोई

हूर-ए-जन्नत तुम्हीं रखो, ज़ाहिद !
जल्वा अपना दिखा गया कोई

रुख़ से पर्दा उठा लिया किसने
ग़ुंचा ग़ुंचा खिला गया कोई

हाय ! बिखरा के ज़ुल्फ़ को अपनी
प्यास मेरी बढ़ा गया कोई

रास्ता ज़िन्दगी का जो पूछा
मैकदा क्यूँ बता गया कोई ?

बात ग़ैरत की आ गई ’आनन’
जान अपनी लुटा गया कोई

-आनन्द.पाठक-

[सं 09-06-18]
bbs

रविवार, 22 दिसंबर 2013

एक ग़ज़ल 54 : मेरे दिल की धड़कन ने......

बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फ़ऊलुन----फ़ऊलुन---फ़ऊलुन  फ़ऊलुन
122--          -122---     --122----   122
-----
मेरे  दिल के धड़कन ने उनको पुकारा
ज़माने को हो ना सका  ये गवारा

मुहब्बत में मुझको ख़बर ही कहाँ थी
कि तूफ़ाँ मिला कि मिला था किनारा ?

रह-ए-इश्क़ में ऐसे आये मराहिल
जो देखा नहीं वो भी देखा नज़ारा

तुम्हारे लिए ये हँसी-खेल होगा -
कभी दिल को तोड़ा कभी दिल संवारा

कोई अक्स दिल में उभरता नहीं अब
कि जब से तिरा अक्स दिल में उतारा

चला जो गया छोड़ कर इस मकां को
भला लौट कर कौन आया दुबारा ?

हुई रात "आनन’ की नींद आ रही है
कोई कर रहा अपनी जानिब इशारा

आनन्द.पाठक
 c-01/19

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

एक ग़ज़ल 53 : तुम्हारा शौक़ ये होगा...

1222--1222--1222--1222

तुम्हारा शौक़ ये होगा भरोसे को जगा देना
दिखावा दोस्ती का कर के फिर ख़ंज़र चला देना

हलफ़् सच की उठा कर फिर गवाही झूट की देकर
तुम्हारे दिल पे क्या गुज़री ,ज़रा ये भी बता देना

चले थे  इन्क़लाबी दौर  में  कुर्बानियां  करने
कहो,फिर क्या हुआ ’दिल्ली’में जा कर सर झुका देना

बड़ी हिम्मत शिकन होती सफ़र है राह-ए-उल्फ़त की
जहाँ अन्जाम होता है ख़ुदी में ख़ुद मिटा देना

पसीने से लिखा करता हूँ हर्फ़-ए-कामयाबी ख़ुद
तुम्हारा क्या ! ख़रीदे क़लम से कुछ भी लिखा देना

तुम्हारे हुनर में ये भी चलो अब हो गया शामिल
कि सच को झूट कह देना कि बातिल सच बता देना

वही दुनिया के रंज-ओ-ग़म,वही आलाम-ए-हस्ती है
कहीं ’आनन्द’ मिल जाये तो ’आनन’ से मिला देना

शब्दार्थ
आलाम-ए-ह्स्ती =जीवन के दुख
बातिल    = झूट
आनन्द = खुशी /अपना नाम ’आनन्द’


-आनन्द.पाठक-
09413395592

शनिवार, 14 सितंबर 2013

गीत 48 : जब से चोट लगी है दिल पे....

जब से चोट लगी है दिल पे ,आह निकलती रहती मन से
दुनिया ने तो झूठा समझा ,तुमने  ही कब  सच माना है 

                              मेरी आँखों की ख़ामोशी , बयाँ कर गई जो न बयाँ थी
            कहने की तो बात बहुत थी ,क्या करते ख़ामोश जुबाँ थी
            दिल से दिल की राह न निकली,ना कोई पत्थर ही पिघला
            जो सपने देखे थे हमने, उन सपनों की बात कहाँ थी   

दुनिया ने गोरापन देखा ,चमड़ी का ही रंग निहारा
सूरत पे मरने वालों ने अन्तर्मन कब पहचाना है ?
दुनिया ने झूठा समझा.......

            जब हृदय हमारा रोता है दुनिया क्यों हँसती गाती है ?
            क्यों सबका आँगन छोड़ मिरे घर पे बिजली गिर जाती है ?
            संभवत:जीवन का क्रम हो,हो सकता मेरा ही भ्रम हो
            कि शायद मेरे आर्तनाद पे ही दुनिया सुख पाती है

जब गीत मिलन के गा न सका तो विरह गीत अब क्या गाना
बस अपने सच को सच समझा, सच मेरा लगे बहाना  है
दुनिया ने तो झूठा समझा....

            आजीवन मन में द्वन्द रहा ,मैं सोच रहा किस राह चलूं
            हर मठाधीश कहता रहता ,मैं उसके मठ के द्वार चलूं
            मुल्ला जी दावत देते हैं ,पंडत जी उधर बुलाते हैं
            मन कहता रहता है अकसर ,मैं प्रेम नगर की राह चलूं

फिर काहें उमर गुज़ारी है,इस द्वार गए ,उस द्वार गए
माटी का संचय क्या करना ,जब छोड़ यहीं सब जाना है

दुनिया ने तो झूठा समझा ,तुमने ही कब सच माना है !

                    
-आनन्द.पाठक
09413395592

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

गीत 47 : एक मन दो बदन ...

एक गीत : एक मन दो बदन ...

एक मन दो बदन की घनी छाँव में
इक क़दम तुम चलो,इक क़दम मैं चलूँ

ये कहानी नई तो नहीं है मगर
सब को अपनी कहानी नई सी लगे
बस ख़ुदा से यही हूँ दुआ  माँगता
प्रीति अपनी पुरानी कभी ना लगे

एक ही श्वाँस में हम सिमट जायेंगे
एक पल तुम ढलो,एक पल मैं ढलूँ

तेरे शाने से पल्लू सरक जो गया
मान लेता हूँ कोई निमन्त्रण नहीं
फिर वो पलकें झुकाने का क्या अर्थ था?
क्या वो मन का था मन से समर्पण नहीं ?

एक पल मधु-मिलन के लिए प्राण !क्यूँ
उम्र भर तुम जलो, उम्र भर मैं जलूँ ?

चाँदनी सी छलकती बहकती हुई
मेरे आँगन में उतरो कभी तो सही
कितनी बातें छुपा कर,दबा कर रखी
पास बैठो ,कहूँ कुछ, कही अनकही

तुम ज़माने की  बातों से डरना नहीं
फूल बन तुम खिलो ,गन्ध बन कर मिलूँ

उन के आने की कोई ख़बर तो नहीं
आँख मेरी क्यूँ रह रह फड़कने लगी
इस चमन में अचानक ये क्या हो गया
हर कली क्यूँ चहकने बहकने  लगी

नेह की डोर से जो कि टूटे नहीं
तुम मुझे बाँध लो,मैं तुम्हे बाँध लूँ

किसके आँचल को छू कर हवा आ गई
सोये सपने हमारे जगा कर गई
मैं भटकने लगा किस के दीदार में
और मुझ को ही मुझसे जुदा कर गई

एक आवाज़ आती रही उम्र भर
एक आभास बन कर तुम्हें मैं छलूँ

शब्द मेरे भी चन्दन हैं, रोली बने
भाव पूजा की थाली लिए, आ गया
तुमको स्वीकार ना हो, अलग बात है
दिल में आया ,जो भाया, वही गा गया

आरती का दीया हूँ तिरी ठौर का
लौ लगी है,जली है ,तो क्या ना मिलूँ ?
एक मन दो बदन की घनी छाँव में ......

-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 4 सितंबर 2013

एक ग़ज़ल 52[35] : गो धूप तो हुई है...

221---2122 // 221--2122

गो धूप तो हुई है , पर ताब वो नहीं है
जो ख़्वाब हमने देखा ,ये ख़्वाब वो नहीं है

मजलूम है कि माना,ख़ामोश रहता अकसर
पर बे-नवा नहीं है ,बे-आब वो नहीं है

कुछ मगरिबी हवाओं का पुर-असर है शायद
फ़सलें नई नई हैं ,आदाब वो नहीं है

अपनी लहू से सींचे हैं जांनिसारी कर के
आई बहार लेकिन शादाब वो नहीं है

एहसास-ए-हिर्स-ओ-नफ़रत,अस्बाक़-ए-तर्क़-ए-उलफ़त
मेरी किताब-ए-हस्ती में बाब वो नहीं है

इक नूर जाने किसकी दिल में उतर गई है
एहसास तो यक़ीनन ,पर याब वो नहीं है

ता-उम्र मुन्तज़िर हूँ दीदार-ए-यार का मैं
बेताब जितना "आनन",बेताब वो नहीं है

शब्दार्थ
ताब = गर्मी ,चमक
बे-नवा= बिना आवाज़ के
बे-आब= बिना इज्ज़त के
मगरिबी [हवा]= पश्चिमी [सभ्यता]
जांनिसारी =प्राणोत्सर्ग
आदाब =तमीज-ओ-तहज़ीब
शादाब = हरी भरी ,ख़ुशहाली
एहसास-ए-हिर्स-ओ-नफ़रत,अस्बाक़-ए-तर्क़-ए-उलफ़त= लालच औत नफ़रत की अनुभूति और प्यार मुहब्बत के छोडने/भुलाने के सबक़]
बाब = अध्याय [chapter]
मेरी किताब-ए-हस्ती में=मेरे जीवन की पुस्तक में
मुन्तज़िर = प्रतीक्षक
याब =प्राप्य

-आनन्द.पाठक
09413395592

बुधवार, 28 अगस्त 2013

गीत 46 : मिलन के पावन क्षणों में ....



चार  दिन की ज़िन्दगी से चार पल हमने चुराये
मिलन के पावन क्षणों में,दूर क्यों गुमसुम खड़ी हो ?

जानता हूँ इस डगर पर हैं लगे प्रतिबन्ध सारे
और मर्यादा खड़ी ले सामने  अनुबन्ध  सारे
मन की जब अन्तर्व्यथा नयनों से बहने लग गईं
तो समझ लो टूटने को हैं विकल सौगन्द सारे

हो नहीं पाया अभी तक प्रेम का मंगलाचरण तो
इस जनम के बाद भी अगले जनम की तुम कड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में .......

आ गई तुम देहरी पर कौन सा विश्वास लेकर   ?
कल्पनाओं में सजा किस रूप का आभास लेकर  ?
प्रेम शाश्वत सत्य है ,मिथ्या नहीं ,शापित नहीं है
गहन चिन्तन मनन करते आ गई चिर प्यास लेकर

केश बिखरे ,नयन बोझिल कह रही अपनी जुबानी
प्रेम के इस द्वन्द में तुम स्वयं से कितनी लड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में .....

हर ज़माने में लिखी  जाती रहीं कितनी  कथायें
कुछ प्रणय के पृष्ट थे तो कुछ में लिक्खी थीं व्यथायें
कौन लौटा राह से, इस राह पर जो चल चुका है
जब तलक है शेष आशा ,मिलन की संभावनायें

यह कभी संभव नहीं कि चाँद रूठे चाँदनी से
तुम हृदय की मुद्रिका में एक हीरे से जड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में .....

-आनन्द.पाठक
09413395592

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 51 : आप हुस्न-ओ-शबाब रखते हैं.....



2122--1212--22

आप हुस्न-ओ-शबाब रखते हैं
इश्क़ मेरे  भी  ताब रखते हैं

जान लेकर चलें हथेली  पे
हौसले इन्क़लाब  रखते  हैं

उनके दिल का हमें नहीं मालूम
हम दिल-ए-इज़्तिराब रखते हैं

जब भी उनके ख़याल में डूबे
सामने माहताब रखते  हैं

आप को जब इसे उठाना है
आप फिर क्यूँ हिज़ाब रखते हैं ?

मौसिम-ए-गुल कभी तो आयेगा
हम भी आँखों में ख़्वाब रखते हैं

अब तो बस,बच गया जमीर ’आनन
आज भी आब-ओ-ताब रखते हैं



-आनन्द.पाठक

शनिवार, 17 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 50 : वो शहादत पे सियासत कर गए...

2122--2122-212

वो शहादत पे सियासत कर गए
मेरी आंखों में दो आँसू भर गए

लोग तो ऐसे नहीं थेक्या हुआ ?
लाश से दामनकशां ,बच कर गए

देखने वाले तमाशा देख कर
राह पकड़ी और अपने घर गए

ये शराफ़त थी हमारी ,चुप रहे
क्या समझते हो कि तुम से डर गए?

सद गुनाहें याद क्यों आने लगे
बाअक़ीदत जब भी उनके दर गए

साथ लेकर क्या यहाँ से जाओगे
जो गये हैं साथ क्या लेकर गए

दिल के अन्दर तो कभी ढूँढा नहीं
ढूँढने आनन’ को क्यूँ बाहर गए
 
दामनकशां = अपना दामन बचा कर निकलने वाला
बाअक़ीदत =श्रद्धा पूर्वक


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 10 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 49[31] : आदर्श की किताबें...

221--2122 // 221-2122

आदर्श की किताबें पुरजोर बाँचता है
लेकिन कभी न अपने दिल में वो झाँकता है

जब सच ही कहना तुमको ,सच के सिवा न कुछ भी
फिर क्यूँ हलफ़ उठाते ,ये हाथ  काँपता है ?

फ़ाक़ाकशी से मरना ,कोई ख़बर न होती
ख़बरों में इक ख़बर है वो जब भी खाँसता है

रिश्तों को सीढ़ियों से ज़्यादा नहीं समझता
उस नाशनास से क्या उम्मीद  बाँधता है !

पैरों तले ज़मीं तो कब की खिसक गई है
लेकिन वो बातें ऊँची ऊँची ही हाँकता है

आँखे खुली है लेकिन दुनिया नहीं है देखी
अपने को छोड़ सबको कमतर वो आँकता है

कुछ फ़र्क़ तो यक़ीनन ’आनन’ में और उस में
मैं दिल को जोड़ता हूँ ,वो दिल को बाँटता है

-आनन्द पाठक-
09413395592

रविवार, 4 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 48[37] : दर्द-ए-उल्फ़त..

2122--1212--22

दर्द-ए-उल्फ़त है ,भोला भाला है
दिल ने मुद्दत से इसको पाला है

सैकड़ों तल्ख़ियां ज़माने  की
जाम-ए-हस्ती में हम ने ढाला है

मैं तो कब का ही मर गया होता
मैकदो ने मुझे सँभाला  है

जब हमें फिर वहीं बुलाना था
ख़ुल्द से क्यूँ हमें निकाला है

अब तो दैर-ओ-हरम के साए में
झूट वालों का बोलबाला है

हर फ़साना वो नामुकम्मल है
जिसमें तेरा नहीं हवाला है

आँख मेरी फड़क रही कल से
लगता वो आज आनेवाला है

आज तक हूँ ख़ुमार में ’आनन’
हुस्न ने जब से जादू डाला है


शब्दार्थ
मुद्दत = लम्बे समय से
तल्ख़ियां = कटु अनुभव
जाम-ए-हस्ती= जीवन के प्याले में
खुल्द = स्वर्ग से [ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन...]
नामुकम्मल =अधूरा है
खुमार = नशे में [ध्यान रहे चढ़ते हुए नशे को ’सुरूर’ कहते है
और उतरते हुए नशे को ’ख़ुमार’ कहते हैं

आनन्द.पाठक

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 47[04] : वो चाहता है ...

221---2121---1221---212
एक ग़ज़ल 

वो चाहता है  तीरगी को रोशनी  कहूँ
कैसे ख़याल-ए-ख़ाम को मैं आगही कहूँ ?

ग़ैरों के दर्द का तुम्हें  एहसास ही नहीं
फिर क्या तुम्हारे सामने ग़म-ए-आशिक़ी कहूँ !

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी से जो फ़ुरसत मुझे मिले
रुदाद-ए-ज़िन्दगी मै कभी अनकही  कहूँ

जाने को था किधर ,कि मै जाने लगा  किधर ?
मैं  बेखुदी कहूँ कि इसे तिश्नगी कहूँ ?

’ज़र’ भी पड़ा है सामने ,’ईमान’ भी  खड़ा
’आनन’ किसे मैं छोड़ दूँ,किसको ख़ुशी,कहूँ

-आनन्द पाठक--

सोमवार, 22 जुलाई 2013

एक ग़ज़ल 46 : रोशनी से कब तलक....


एक ग़ज़ल 46: रोशनी से कब तलक....

2122--2122---2122


रोशनी से कब तलक डरते रहोगे ?

’तालिबानी’ इल्म में पलते रहोगे



यूँ किसी के हाथ का बन कर खिलौना

कब तलक उन्माद में लड़ते रहोगे ?



तुम ज़मीर-ए-ख़ास को मरने न देना

गाहे-गाहे सच की तो सुनते रहोगे



प्यार के दो-चार पल जी लो,वगरना

नफ़रतों की आग में जलते रहोगे



जानता हूँ ’रोटियों’ के नाम लेकर

तुम सियासी चाल ही चलते रहोगे



मैं सदाकत के लिए लड़ता रहूँगा

और तुम ! दम झूट का भरते रहोगे



जब कभी फ़ुर्सत मिले,’आनन’ से मिलना

मिल जो लोगे ,बारहां मिलते रहोगे



-आनन्द.पाठक
09413395592


बुधवार, 10 जुलाई 2013

ग़ज़ल 45 [03 A] : फिर जलीं कुछ बस्तियाँ....

ग़ज़ल 45 [ 03 A]

2122---2122--2122--212

फिर जली कुछ बस्तियाँ ,ये काम रोजाना हुआ
फिर वही मुद्दआ उठा है  , जाना-पहचाना हुआ

हम समझते थे वो दिल के पाक दामन साफ़ हैं
गुप्त समझौते किए थे , हाथ जल जाना हुआ

पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ हम झेलते हैं मुफ़लिसी
आज तक रोटी का मसला हल न हो पाना हुआ

इस जुनून-ए-महज़बी से क्या हुआ हासिल तुम्हें ?
बेगुनाहों की लहू का सिर्फ़ बह जाना हुआ

और भी तो हैं तराइक़ बात कहने के लिए
क्या धमाकों में कभी कुछ बात सुन पाना हुआ ?

खिड़कियाँ खोलो तो समझो फ़र्क-ए-जुल्मत रोशनी
इन अँधेरों में वगरना जी के मर जाना हुआ

फिर वही एलान-ए-राहत, वायद-ए-मुआवज़ा
झुनझुने ’आनन’ के हाथों दे के बहलाना हुआ

-आनन्द पाठक-
09413395592

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

गीत 45: परदे के पीछे से...

एक गीत

परदे के पीछे से छुप कर ,मन ही मन शरमाती क्यों हो?
पायल फिर खनकाती क्यों हो ?


माटी से ही अगर बनाया ,माटी में क्यों मिला दिया है ?
मेरे आराधन को बोलो तुमने कैसा सिला दिया है ?
कैसा खेल रचाया तुमने , कैसी मुझको सज़ा मिली है ?
नज़रों में जब बसा लिया था, दिल से फिर क्यों भुला दिया है ?


मेरा दर्द नहीं सुनना तो अपना दर्द सुनाती क्यों हो ?
हुँक्कारी भरवाती क्यों हो ?


जितना सीधा सोचा था पर उतनी सीधी नहीं डगरिया
आजीवन भरने की कोशिश,फिर भी खाली रही गगरिया
दूर क्षितिज के पार गगन से करता रहा इशारा कोई
ढलने को जब शाम हो चली ,अब तो आजा मेरी नगरिया


काट चिकोटी मुझको ,हँस कर दूर खड़ी हो जाती क्यों हो ?
मुझको व्यर्थ सताती क्यों हो?


कितना चाहा रूप तुम्हारा शब्दों में कुछ ढाल सकूँ मैं
अल्हड़ यौवन पे था चाहा प्रेम चुनरिया डाल सकूँ मैं
गर्दन झुका के पलक झुकाना माना नहीं निमन्त्रण,फिर भी
चाहत ही रह गई अधूरी प्रणय दीप कि बाल सकूँ मैं


रह रह कर साने से अपने आँचल फिर सरकाती क्यों हो ?
अपने होंठ दबाती क्यों हो?


[हुँकारी = अपने समर्थन में ’हाँ’ हूँ’ करवाना]


शनिवार, 20 अप्रैल 2013

एक ग़ज़ल 44 : मेरे ग़म में वो ...


212--212--212--212

मेरे ग़म में वो आँसू बहाने लगे
देख घड़ियाल भी मुस्कराने लगे

नाम उनका हवाले में क्या आ गया
’गाँधी-टोपी’ हैं फिर से लगाने लगे

रोशनी डूब कर तो तभी मर गई
जब अँधेरे गवाही में आने लगे

बोतलों में रहे बन्द ’जिन’ अब तलक
फिर चुनावों में बाहर हैं आने लगे

दल बदल आप करते रहे उम्र भर
बन्दरों को गुलाटी सिखाने लगे

उम्र भर जो कलम के सिपाही रहे
बोलियां ख़ुद वो अपनी लगाने लगे

आजकल जाने ’आनन’ को क्या हो गया
यूं ज़माने से क्यों ख़ार खाने लगे ?

आनन्द.पाठक
09413395592

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

एक ग़ज़ल 43 : चौक पे कन्दील जब...

एक ग़ज़ल : चौक पे कन्दील जब ....

2122-2122-212


चौक पे कन्दील जब जलने लगी

तब सियासत मन ही मन डरने लगी



आदिलों की कुर्सियाँ ख़ामोश हैं

भीड़ ही अब फ़ैसला करने लगी



क़ातिलों की बात तो आई गई

कत्ल पे ही शक ’पुलिस’ करने लगी



ख़ून के रिश्ते फ़क़त पानी हुए

’मां’ भी बँटवारे में है बँटने लगी



जानता हूं ये चुनावी दौर है

फिर से सत्ता दम मिरा भरने लगी



तुम बुझाने तो गये थे आग ,पर

क्या किया जो आग फिर बढ़ने लगी



इस शहर का हाल क्या ’आनन’ कहूँ

क्या उधर भी धुन्ध सी घिरने लगी ?



-आनन्द पाठक
09413395592




आदिल = न्यायाधीश

गुरुवार, 28 मार्च 2013

एक ग़ज़ल 42 [31 A] : क्या करेंगे आप से हम याचनायें...

ग़ज़ल 42[31A] : क्या करेंगे आप से हम ....


फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन

2122---2122---2122

क्या करेंगे  आप से  हम याचनाएँ
लौट कर आनी सभी है जब सदाएँ

जो मिला अनुदान रिश्वत में बँटा है
फ़ाइलों में चल रहीं परियोजनाएँ

पत्थरों के शहर में कुछ आइने हैं
डर सताता है कहीं वो बिक न जाएँ

रोशनी के नाम दरवाजे खुले क्या
हादिसों की बढ़ गईं संभावनाएँ

चाहता है जो कहे,कुछ भी कहे ,वो
हर समय हम ’हाँ’ में उसकी ’हां’ मिलाएँ

आम जनता है बहुत कुछ देखती है
सब समझती है चुनावी गर्जनाएँ

वो इशारों में नहीं समझेगा ’आनन’
हैसियत जब तक नहीं उसकी बताएँ

-आनन.पाठक-

[सं 05-10-18]

शनिवार, 16 मार्च 2013

ग़ज़ल 41[09 A]: कोई नदी जो उनके घर से. गुज़र गई

एक ग़ज़ल 41 [09 A]: कोई नदी जो उनके..



221---2122-// 221---2122

कोई नदी जो उनके ,घर से गुज़र गई है
चढ़ती हुई जवानी  ,पल में उतर गई है

’बँगले" की क्यारियों में ,पानी तमाम पानी
प्यासों की बस्तियों में ,किसकी नज़र गई है

’परियोजना’ तो वैसे ’हिमखण्ड’ की तरह थी
पिघली तो भाप बन कर, जाने किधर गई है

हम बूँद बूँद तरसे ,थी तिश्नगी लबों की
आई लहर तो उनके, आँगन ठहर गई है

’’कम्मो’  से पूछ्ना था ,थाने घसीट लाए
’साहब’ से पूछना है ,सत्ता सिहर गई  है

वो आम आदमी है ,हर रोज़ लुट रहा है
क्या पास है कि उसके ,सरकार डर गई है ?

क्या फ़िक्र,रंज़-ओ-ग़म है ,क्या सोचते हो ’आनन’?
फिर क्यों नहीं गए तुम ,दुनिया जिधर गई है ?

-आनन्द.पाठक-

[सं 22-06-19]



गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

एक ग़ज़ल 40 : बहुत से रंज-ओ-ग़म ऐसे

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
फ़इलातुन--फ़इलातुन--फ़इलातुन--फ़ऊलुन
1222-1222-1222--122
-----------

बहुत से रंज-ओ-ग़म ऐसे हैं जो दिल में निहाँ हैं

मगर कुछ ऐसे भी हैं जो निगाहों से अयाँ हैं



ज़माना ’क़ैस’ या ’फ़रहाद’ से आगे तो देखे

हमारे भी तो किस्से में बहुत कुछ खूबियाँ हैं



मता-ए-ज़िन्दगी अपनी लुटा दी दर पे तेरे

भला बातें कहां सूद-ओ-ज़िया की दरमियाँ हैं !



सरापा अक्स हूँ तेरे ही हुस्न-ए-दिलबरी का

बता फिर दो दिलों के बीच में क्यों दूरियाँ हैं ?



जहाँ में झूट की जानिब खड़े मिलते हज़ारों

हक़ीक़त की गवाही देने वाले अब कहाँ हैं



हमारे सोचने से क्या कभी कुछ हो सका है !

हवादिस हम पे अपने ही तरीक़े से रवाँ हैं



नदामतपोश हूं ’आनन’ कि जब वो सामने हों

मगर चेहरे से सारी उलझनें मेरी बयाँ हैं





निहाँ हैं =छुपे हैं

अयाँ हैं = व्यक्त हैं

मता-ए-ज़िन्दगी= ज़िन्दगी भर की कमाई/जमा-पूंजी

सूद-ओ-ज़ियाँ = हानि-लाभ

सरापा अक्स = पूर्ण छवि/प्रतिलिपी/मुजस्सम हमशक्ल

हवादिस = बलायें/मुसीबतें (हवादिस= हादिसा का ब0ब0)

रवाँ हैं =जारी हैं

नदामतपोश हूँ = गुनाहों पर पश्चाताप कर छुपाने लगता हूं

बयाँ हैं =ज़ाहिर हैं



-आनन्द-
09413395592

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

गीत 44[08] : आज तो तुम पल रही हो.....


गीत 44[08]

आज तो तुम पल रही हो चाँद की नाज़ुक किरन में
कल अँधेरा साथ हो तो प्रिय ! मुझे फिर याद करना

आज कितने फूल शुभ बिखरे तुम्हारी राह में हैं
सैकड़ों आंखे  प्रतीक्षारत  तुम्हारी  चाह में हैं
झूलती हो ,कुछ अनागत स्वप्न को लेकर,हिंडोले
जब कि यह विस्तृत गगन सिमटा तुम्हारी बाँह में हैं

आज तो तुम छल रही हो स्वप्न बन कर ज़िन्दगी में
जब कभी एकान्त मन से डर लगे तो याद करना

देखता हूँ रोज नभ में टूटते कितने सितारे
देखता हूँ रोज कितनी डूबती नैया किनारे
पर तुम्हारे पायलों के रुनझुनी मधुरिम खनक पे
चाँद भी चूमा करे है पाँव दो संझा-सकारे

आज तो तुम सज रही सौन्दर्य की इक मूर्ति बन कर
खण्डहर बन जब कभी तन बिखर जाये ,याद करना

तुम पली हो चाँदनी में, मैं अँधेरे में जिया हूँ
तुम जली हो सोमरस से ,मैं हलाहल भी पिया हूँ
आज तो लगता तुम्हें डसती है बैरिन चाँदनी भी
मैं जला ख़ुशियां ,तुम्हारी राह को रौशन किया हूँ

चाहते कई लोग हैं भर दें सितारे माँग मे
मैं प्रतीक्षारत रहूंगा ,तुम मुझे फिर याद करना

-आनन्द.पाठक-
09413395592

इस गीत का English अनुवाद हमारे मित्र डा0 ख़लिश साहब ने किया है जो मैं अपने पाठकों की सुविधा के लिए नीचे लगा रहा हू“

From: Dr.M.C. Gupta


To: ekavita

Cc: Hindienglishpoetry ; anand pathak ; Tekk Savvy

Sent: Friday, 1 March 2013 5:18 PM

Subject: [ekavita] YOUR PATH’S LIGHTED BY THE MOON (English version of the original Hindi poem by Anand Pathak)





YOUR PATH’S LIGHTED BY THE MOON

[The everlasting hope of the silent lover.]



Your path’s lighted by the moon;

It sends serene rays today.

Yet if darknes does prevail,

Be sure to call me some day.



Your path is stewn with flowers;

Millions now wait for your glance.

You are lost in golden dreams;

Nature around you does dance.



Today this world charms you much

Through the prism of your wild thoughts.

When loneliness does haunt you,

Be sure to call me some day.



Daily in the sky I see,

There breaks up a shining star.

From the shore I watch helpless

A boat that does sink afar.



As you move, silver anklets’

Lilting tunes bewitch the moon;

When your weary gait totters,

Be sure to call me some day.



Today moon and stars guide you;

Darkness has brought up me though.

Manna has nurtured you but

Poison in my life does show.



Your tenderness is threatened

Today by silken moon rays.

My heart has burned for your sake,

That you may call me some day.



*Written in 7-7-7-7, abcb format.

M C Gupta "खलिश"

26 February 2013

NOTE—This is an English version of the original Hindi poem, given below, written by

Anand Pathak

akpathak317@yahoo.co.in

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

एक ग़ज़ल 39[54 A] : आप मुझको सामने पाते.....


Ghazal 39 [ 54 A ]

ग़ज़ल 39  [54]: आप मुझको साथ में पाते--
बह्र-ए-रमल मुसद्दस मक़्लूअ’ महज़ूफ़

2122---2122-----2-
------------------------------

आप मुझको साथ में  पाते
आसमाँ  से जो उतर आते

चाँद ,तारों ,ख़्वाब , वादों के
झुनझुने देकर न बहलाते

उँगलिया क्यों आप पर उठतीं
आइनों से जो न घबराते

और भी कितने मसाईल हैं
आप  हैं अनजान बन जाते

चाँदनी तो चार दिन की है
किसलिए हैं आप इतराते ?

साफ़ चेहरा अब कहाँ ढूँढू
सब रंगे चेहरे नज़र आते ?

बस यही आदत बुरी ’आनन’
दर्द अपने क्यों छुपा जाते ?

-आनन्द.पाठक-
[सं 27-10-18]





रविवार, 10 फ़रवरी 2013

एक ग़ज़ल 38 [56 A]: बदली हुई है आप की

ग़ज़ल 38[56 A]

बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु---मुफ़ाईलु--फ़ाइलुन
221---------2121-------1221-------2122
------------------------------------------

ग़ज़ल 38 : बदली हुई है आप की---

बदली हुई है आप की जो चाल-ढाल  है
लगता हर एक बात में कुछ गोलमाल है

दो-चार साल से हैं उसी मोड़ पे खड़े
’सबका विकास’ हो रहा उनका ख़याल है

दरबार में बिछा  भी तो कालीन सा बिछा
उस को गुमान ये है कि वो बाकमाल है

शाही कबाब मुर्ग मुसल्लम डकार  कर
फिर पूछते हैं देश का क्या हाल चाल है?

जाने हमारे दौर के लोगों को क्या  हुआ
जो तरबियत में आ गया इतना जवाल है

ये बात कम नहीं है कि ज़िन्दा है आदमी
हर आदमी के सामने कितना  सवाल है

 ’आनन’ उमीद रख अभी सब कुछ नहीं लुटा
फिर से उठा कि सामने रख्खी  मशाल है

-आनन्द पाठक-

[सं 27-10-18]

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

गीत 43 : कल्पनाऒ में जब तुम....

एक गीत : कल्पनाऒं में जब तुम....


कल्पनाओं में जब तुम उतरने लगी
कितने सपने सजाता रहा रात भर


झीनी घूँघट जो डाले थिरकती हुई
सामने तुम जो आकर खड़ी हो गई
फिर न पूछो कि क्या हो गया था हमें
सोच अपनी अचानक बड़ी हो गई

विन्दु का सिन्धु से इस मिलन पर्व का
भाव मन में जगाता रहा रात भर


बात कहने को यूँ तो बहुत थी मगर
भावनायें थी मन की प्रबल हो गईं
जैसे बहती हुई प्यास की इक नदी
और लहरें मिलन को विकल हो गईं

वक़्त से पहले ही बुझ न जाए कहीं
प्यार का दीप जलाता रहा रात भर


मौन ही मौन से तुमने क्या कह दिया
शब्द आकर अधर पे भटक से गये ?
जिस व्यथा की कथा हम सुनाने चले
वो गले तक ही आकर अटक से गये

तुमको फ़ुर्सत कहाँ थी कि सुनते मेरी
ख़ुद ही सुनता सुनाता रहा रात भर


कुछ ज़माने की थी व्यर्थ की बन्दिशें
कुछ हमारी तुम्हारी थी मज़बूरियाँ
फ़ासला उम्र भर इक बना ही रहा
मिट सकी ना कदम दो कदम दूरियाँ

पाप औ’ पुण्य में मन उलझता गया
अर्थ जितना बताता रहा रात भर   -
आनन्द पाठक-