बुधवार, 10 जुलाई 2013

ग़ज़ल 45 [03 A] : बस्तियाँ. जलती रहें ये.

ग़ज़ल 45 [ 03 A] ओके

2122---2122--2122--212

बस्तियाँ जलती रहें, ये काम रोज़ाना हुआ ।
बहस का यह मुद्दआ है जाना-पहचाना हुआ ।

हम समझते थे वो दिल के पाक दामन साफ़ हैं
गुप्त समझौते किए थे, हाथ जल जाना हुआ ।

पीढ़ियों दर पीढ़ियों हमने है झेली मुफ़लिसी
आज तक रोटी का मसला हल न हो पाना हुआ ।

इस जुनूँ से, नफ़रतों से, क्या हुआ हासिल उन्हें ?
बेगुनाहों के लहू का सिर्फ़ बह जाना हुआ ।

और भी तो हैं तरीक़े बात कहने के लिए ,
क्या धमाकों में कभी कुछ बात सुन पाना हुआ ?

खिड़कियाँ खोलो तो जानो फ़र्क दिन और रात में
इन अँधेरों में वगरना जी के मर जाना हुआ ।

घोषणा राहत की, वादा नौकरी का फिर वही
झुनझुने ’आनन’ के हाथों दे के बहलाना हुआ



-आनन्द पाठक-
09413395592

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