फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन-//-फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन
112---112--112---112 // 112--112--112--112
बह्र-ए-मुतदारिक़ मुसम्मन मख़्बून मुसक्कीन मुज़ाइफ़
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05
तुम भीड़ ख़रीदी देखे हो, आफ़ात1 नहीं देखें होंगे,
मुठ्ठी में बँधे इन शोलों के, जज़्बात नहीं देखें होंगे ।
गरदन जो झुका के बैठे हैं, वो
बेग़ैरत दरबारी है,
सर बाँध कफ़न दीवानों के, ख़िदमात नहीं देखें होंगे ।
”भारत तेरे टुकड़े होंगे ,इन्शा
अल्ला ,इन्शा अल्ला"
मासूम फ़रिश्तों सी शकलें ,जिन्नात2
नहीं देखें होंगे ।
ये चेहरे और किसी के हैं आवाज़ नहीं उनकी अपनी ,
परदे के पीछे साज़िशकुन, बदज़ात नहीं
देखें होंगे ।
जो बन्द मकां में रहते हैं, नफ़रत
की गलियों में जीते ,
वो बाद-ए-सबा, वो
उलफ़त के, बाग़ात नहीं देखें होंगे ।
भूखे मजलूमों3 की ताक़त, शायद
तुम ने जाना न कभी
बुनियाद हिलाते महलों के, लम्हात
नहीं देखें होंगे ।
गोली में नहीं होती ’आनन’, बस प्यार
में ताक़त होती है,
पत्थर के शहर में फूलों के, औक़ात
नहीं देखे होंगे ।
[सं 22-10-18]