मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

ग़ज़ल 106 [05 A] : तुम भीड़ खरीदी देखे हो--

ग़ज़ल 106[05 A] ओके

फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन-//-फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन
112---112--112---112 // 112--112--112--112
बह्र-ए-मुतदारिक़ मुसम्मन मख़्बून मुसक्कीन मुज़ाइफ़
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05


तुम भीड़ ख़रीदी देखे हो, आफ़ात1 नहीं देखें होंगे,

मुठ्ठी में बँधे इन शोलों के, जज़्बात नहीं देखें होंगे ।

गरदन जो झुका के बैठे हैं, वो बेग़ैरत दरबारी है,
सर बाँध कफ़न दीवानों के, ख़िदमात नहीं देखें होंगे ।

भारत तेरे टुकड़े होंगे ,इन्शा अल्ला ,इन्शा अल्ला"
मासूम फ़रिश्तों सी शकलें ,जिन्नात2 नहीं  देखें होंगे ।

ये चेहरे और किसी के हैं आवाज़ नहीं उनकी अपनी ,
परदे के पीछे साज़िशकुन, बदज़ात  नहीं  देखें होंगे ।

जो बन्द मकां में रहते हैं, नफ़रत की गलियों में जीते ,
वो बाद-ए-सबा, वो उलफ़त के, बाग़ात नहीं देखें होंगे ।

भूखे मजलूमों3 की ताक़त, शायद तुम ने जाना न कभी
बुनियाद हिलाते महलों के, लम्हात नहीं देखें होंगे ।

गोली में नहीं होती ’आनन’, बस प्यार में ताक़त होती है,
पत्थर के शहर में फूलों के, औक़ात नहीं देखे होंगे ।


-आनन्द.पाठक-
[सं 22-10-18]

शनिवार, 20 अक्टूबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 54

चन्द माहिया : क़िस्त 54 ओके

:1:
शिकवा न शिकायत है
जुल्म-ओ-सितम तेरा
क्या ये भी रवायत है

:2:
यह ज़ोर-ए- सितम तेरा
कैसा है जानम !
निकला ही न दम मेरा

  :3:
जो होना था वो हुआ
अहल-ए-दुनिया से
छोड़ो भी गिला शिकवा


:4:
इतना ही बस माना
राह-ए-मुहब्बत से
घर तक तेरे जाना

:5:
यादें कुछ सावन की
तुम जो नहीं  आए
बस एक व्यथा मन की



-आनन्द पाठक--

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

ग़ज़ल 105 [ 55 A] : वातनुकूलित आप ने आश्रम बना लिए---


ग़ज़ल 105 [55 A]


221---2121----1221----212

 

वातानुकूलित आप ने आश्रम बना लिए

सत्ता के इर्द-गिर्द ही धूनी रमा  लिए

 

’दिल्ली’ में बस गए हैं ’तपोवन’ को छोड़कर

अब साधुओं ने भी हैं मुखौटे चढ़ा लिए

 

सब वेद ज्ञान श्लोक ॠचा मन्त्र  बेच कर

जो धर्म बच गया था दलाली  में खा लिए

 

आए वो ’कठघरे’ में न चेहरे पे थी शिकन

उन साहिबों ने जेल ही में  घर बसा लिए

 

ये आप का हुनर था कि जादूगरी कोई

ईमान बेच आप ने पैसे  कमा  लिए

 

गूँगों की बस्तियों में वो अन्धों की भीड़ में

खोटे तमाम जो भी थे सिक्के चला लिए

 

’आनन’ तुम्हारा मौन था माना बहुत मुखर

लेकिन जहाँ था बोलना क्यों चुप लगा लिए

 

 

 

 

 

 

 

 

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

ग़ज़ल 104 [04 A] : जड़ों तक साज़िशें गहरी---


1222---1222--1222--122 ओके
एक ग़ज़ल 104[04 A] : जड़ों तक साजिशें गहरी---

जड़ों तक साज़िशें गहरी, सतह पर हादसे थे ।
जहाँ बारूद की ढेरी, वहीं  पर  घर  बने थे ।

हवा में मुठ्ठियाँ ताने  जो सीना ठोकते थे,
ज़रूरत जब पड़ी उनकी, तो उनके सर झुके थे

हमेशा आसमाँ को देखते चलते रहे वो
ज़मीं पाँवों तले थी खोखली, फिर भी खड़े थे


मुक़ाबिल रोशनी के वह, अँधेरा ले के आए,
वो अपने आप की परछाईयों  से यूँ डरे थे ।

 
हमारी चाह थी इतनी कि दर्शन आप के हों
मिले जब भी कहीं हम आप से, चेहरे चढ़े थे ।

 

बहुत उम्मीद थी ’आनन’ ,बहुत आवाज़ भी दी,
उन्हे जब चाहिए था जागना सोए हुए  थे ।



-आनन्द.पाठक--