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एक ग़ज़ल : इधर आना नहीं ज़ाहिद
इधर आना नहीं ज़ाहिद , इधर रिन्दों की बस्ती है
तुम्हारी कौन सुनता है ,यहाँ अपनी ही मस्ती है
भले हैं या बुरे हैं हम ,कि जो भी हैं ,या जैसे भी
हमारी अपनी दुनिया है हमारी अपनी हस्ती है
तुम्हारी हूर तुम को हो मुबारक और जन्नत भी
हमारे वास्ते काफी हमारी बुतपरस्ती है
तुम्हारी और दुनिया है ,हमारी और है दुनिया
ज़हादत की वही बातें ,यहाँ बस मौज़-मस्ती है
तुम्हारी मस्लहत अपनी ,दलाइल हैं हमारे भी
कि हम दोनो ही गाफ़िल हैं ये कैसी ख़ुदपरस्ती है ?
कभी छुप कर जो आना मैकदे में ,देखना ज़ाहिद
कि कैसे ज़िन्दगी आकर यहाँ मय को तरसती है
ज़माना तुमको ठुकराए तो फिर ’आनन’ से मिल लेना
भरा है दिल मुहब्बत से ,भले ही तंगदस्ती है
-आनन्द पाठक-
इधर आना नहीं ज़ाहिद , इधर रिन्दों की बस्ती है
तुम्हारी कौन सुनता है ,यहाँ अपनी ही मस्ती है
भले हैं या बुरे हैं हम ,कि जो भी हैं ,या जैसे भी
हमारी अपनी दुनिया है हमारी अपनी हस्ती है
तुम्हारी हूर तुम को हो मुबारक और जन्नत भी
हमारे वास्ते काफी हमारी बुतपरस्ती है
तुम्हारी और दुनिया है ,हमारी और है दुनिया
ज़हादत की वही बातें ,यहाँ बस मौज़-मस्ती है
तुम्हारी मस्लहत अपनी ,दलाइल हैं हमारे भी
कि हम दोनो ही गाफ़िल हैं ये कैसी ख़ुदपरस्ती है ?
कभी छुप कर जो आना मैकदे में ,देखना ज़ाहिद
कि कैसे ज़िन्दगी आकर यहाँ मय को तरसती है
ज़माना तुमको ठुकराए तो फिर ’आनन’ से मिल लेना
भरा है दिल मुहब्बत से ,भले ही तंगदस्ती है
-आनन्द पाठक-