आँख जब भी मिले ,प्यार में ही ढले
हाथ जब भी बढ़े दोस्ती के लिए
आदमी में अगर आदमियत न हो
है ज़हर आदमी ,आदमी के लिए --[नामालूम ]
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भीलन लूटीं गोपियाँ ,वही अर्जुन वही बान
मनुज बली नहीं होत है ,समय होत बलवान [ना मालूम ]
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क्या गेहूँ चावल मोठ मटर
क्या आग धुआँ क्या अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा
जब लाद चलेगा बंजारा ---- -नज़ीर अकबराबादी -[ बंजारानामा से ]
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रहिमन जिह्वा बावरी ,कह गई सुरग पताल
आपहि कहि अन्दर हुई ,जूती खाय कपाल -- -रहीम -
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वह ख़ुद ही जान जाते हैं ,बुलन्दी आसमानों की
परिंदों को नहीं दी जाती तालिम उड़ानॊं की ना मालूम
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यह आइना है सदाकत बयान करता है
कि इसके आगे अदाकारियां नहीं चलती -मंज़र भोपाली-
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तुम तकल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो ’फ़राज़’
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला - फ़राज़ अहमद ’फ़राज़’-
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अपने हर लफ़्ज़ से ख़ुद आइना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा -वसीम बरेलवी-
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--वन्दे मातरम--
नोट : प्रथम दो पद संस्कृत में हैं और शेष ’बंगला भाषा " में है ।
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥
कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥ २॥
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥४॥
वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥ ५॥
--बंकिम चन्द्र चटर्जी--
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शे’र
अब मैं समझा तेरे रुखसार पर तिल का मतलब
दौलत-ए-हुस्न पर पहरेदार बिठा रखा है
-नामालूम-
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जब वन में आग लग गई तो--
पेड़ ने हंस से कहा--
आग लगी वन-खंड में ,दाझै चन्दन वंश
मैं तो दांझा पंख बिन ,तू क्यों दाझै हंस
हंस ने पेड़ से कहा--
पान मरोडिया फल भख्या ,बैठ्या एकल डाल
तू दाझै मैं उड़ चलूँ ? जीणौ कितने साल
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पेड़ के वो पत्ते नहीं जो गिर जाए हम
आँधियों से कह तो औक़ात में रहें
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निगाहों में मंज़िल थी गिरे और गिर कर सँभलते रहे
हवाओं ने कोशिश बहुत की मगर ,चिराग़ आँधियों में चलते रहे
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परिन्दों को मंज़िल मिलेगी यक़ीनन
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं
वो लोग रहते हैं ख़ामोश अकसर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं
-ना मालूम -
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जब भी पिया है पत्थरों को तोड क पिया है
ऎ समन्दर तेरा बूँद भर भी एहसान नहीं मुझ पर
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फ़लक़ को जिद है जहाँ बिजलियाँ गिराने की
हमें भी जिद है वहीं आशियाँ बनाने की
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ज़िन्दगी की असली उड़ान बाक़ी है
ज़िन्दगी के कई इम्तिहान बाक़ी है
अभी तो नापी है मुठ्ठी भर ज़मीन हमने
अभी तो सारा आसमान बाक़ी है
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जब से मैं चला हूँ मंज़िल पर है नज़र
कभी रास्ते में मील का पत्थर नहीं देखा
-बशीर बद्र-
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क़ातिल की यह दलील भी मुंसिफ़ ने मान ली
मक़्तूल ख़ुद गिरा था ख़ंज़र की नोक पर
-नामालूम-
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प्रिय वाक्य प्रदानेन ,सर्वे तुष्यन्ति जन्तव :
तस्मात देव वक्तव्यं , "वचने किम दरिद्रता"
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ऐसा माना जाता है कि उर्दू में सबसे पहला माहिया चिराग़ हसन
’हसरत; मरहूम साहब ने लिखा था [ 1937 में ]
बागों में पड़े झूले
तुम भूल गए हम को
हम तुम को नहीं भूले
[स्रोत : फ़ाइलात -उर्दू अरूज़ का नया निज़ाम [प-216] - द्वारा
मुहम्मद याकूब ’आसी’ ]
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सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िन्दगानी फिर कहाँ
ज़िन्दगानी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ
--ख़्वाज़ा मीर ’दर्द’--
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मैं क़तरा हो कर समन्दर से जंग लेती हूँ
मुझे बचाना समन्दर की जिम्मेदारी है
दुआ करो कि सलामत रहे हिम्मत मेरी
यह इक चिराग़ कई आँधियो पे भारी है
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मज़िल पर जो पँहुच गए ,उन्हें नाज़-ए-सफ़र तो कोई नहीं
दो-चार क़दम जो चले नहीं रफ़्तार की बातें करते हैं
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ऎ मेरे रहबर बता ,मेरा कारवाँ क्योंकर लुटा ?
मुझे रहजनों से गिला नहीं ,तेरी रहबरी का सवाल है
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जिसके आँगन में उमीदी का शजर लगता है
उसका हर ऎब ज़माने को हुनर लगता है
- परवीन शाकिर--
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कैसे बताऊँ क्या हुई जीने की आरज़ू
इक हादसे में आप अपनी मौत मर गई
-सरवर आलम ’राज़’ सरवर
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’अज़्म’ यह जब्त की आदाब कहाँ से सीखी
तुम तो हर रंग में लगते थे बिखरने वाले ।
- अज़्म बेहजाद -