शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024
अनुभूति 162/49
मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024
अनुभूति 161/48
अनुभूति 161/48
रविवार, 20 अक्तूबर 2024
अनुभूति 160/47
अनुभूति 160/47
637
तर्क नहीं जब, नहीं दलाइल
शोर शराबा ही शामिल हो
क्यों उलझे हो उसी बहस में
अन्तहीन जो लाहासिल हो ।
638
तुम ख़ुद में हो एक पहेली
आजीवन हल कर ना पाया
पर्दे के अन्दर पर्दा है --
राज़ यही कुछ समझ न आया।
639
सूरज कब श्रीहीन हुआ है
जन-मानस को जगा दिया है
बादल को यह भरम हुआ है
सूरज उसने छुपा दिया है ।
640
वही अनर्गल बातें फिर से
वही तमाशा फिर दुहराना
जिन बातों का अर्थ न कोई
उन बातों में फिर क्यों आना ।
-आनद.पाठक-
दलाइल = दलीलें [ दलील का बहुवचन]
लाहासिल = जिसका कोई हासिल न हो, अनिर्णित
गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024
अनुभूति 159/46
अनुभूति159/46
633
नहीं समझना है जब तुमको
कौन तुम्हें फिर समझा पाए
इतनी जिद भी ठीक नहीं है
घड़ी मिलन की बीती जाए ।
634
सबके अपने जीवन क्रम है
सबकी अपनी मजबूरी है
मन तो वैसे साथ साथ है
तन से तन की ही दूरी है ।
635
समझौते करने पड़ते हैं
जीवन की गति से, प्रवाह में
कभी ठरना, गिर गिर जाना
मंज़िल पाने की निबाह में
636
एक तुम्ही तो नहीं अकेली
ग़म का बोझ लिए चलती हो
हर कोई ग़मजदा यहाँ है
ऊपर से दुनिया छलती है ।
-आनन्द.पाठक-
सोमवार, 14 अक्तूबर 2024
अनुभूति 158/45
अनुभूति 158/45
629
भला बुरा या जैसा भी हूँ
जो बाहर से, सो अन्दर से
शायद और निखर जाऊँ मै
पारस परस तुम्हारे कर से ।
630
विरह वेदना अगर न होती
तड़प नहीं जो होती इसमे
पता कहाँ फिर चलता कैसे
प्रेम भावना कितना किसमे।
631
हम दोनों की राह अलग अब
लेकिन मंज़िल एक हमारी
प्रेम अगन ना बुझने पाए
चाहे जो हो विपदा भारी ।
632
दोषारोपण क्या करना अब
किसने जोड़ा, किसने छोड़ा
टूट गई जब प्रेम की डोरी
व्यर्थ बहस क्या किसने तोड़ा
-आनन्द पाठक-
अनुभूति157/44
625
मुझे मतलबी समझा तुमने
सोच तुम्हारी, मैं क्या बोलूँ
खोल चुका दिल पूरा अपना
और बताओ कितना खोलूँ
626
कमी सभी में कुछ ना कुछ तो
कौन यहाँ सम्पूर्ण स्वयं में ।
सत्य मान कर जीते रहना
आजीवन बस एक भरम में ।
627
जो होना है सो होगा ही
व्यर्थ बहस है व्यर्थ सोचना
पाप-पुण्य की बात अलग है
कर्मों का फ़ल यहीं भोगना ।
628
ग़लत सदा ही समझा तुमने
देव नहीं में , नहीं फ़रिश्ता
जैसी तुम हो, वैसा मैं भी
दिल से दिल का केवल रिश्ता
-आनन्द.पाठक--
x
अनुभूति 156/43
रविवार, 13 अक्तूबर 2024
कोना-01
[ इस कोने में अपना कोई शे’र/कविता/गीत/मुक्तक नहीं अपितु अन्य तमाम चुनिंदा शायरों/कवियों के चुनिंदा अश’आर/ क़ता’अ/-मुक्तक./ गीतांश-आदि का मज़्मुआ [संकलन] है जो मुझे बेहद पसंद है]-
-एक कोने में 10-10 रचनाएँ होंगी
कोना 01
1
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे । - बशीर बद्र
अनुभूति 155/42
अनुभूतिया 155/42
617
सात जनम की बातें करते
सुनते रहते वचन धरम में
एक जनम ही निभ जाए तो
बहुत बड़ी है बात स्वयं में ।
618
बंद अगर आँखें कर लोगी
फिर कैसे दुनिया देखोगी
कौन तुम्हारा, कौन पराया
लोगों को कैसे समझोगी ।
619
सरल नही है सच पर टिकना
पग पग पर है फिसलन काई
मिल कर टाँग खीचने वाले
झूठों के जो है अनुयायी ।
620
यह दुनिया है, बिना सुने ही
ठहरा देगी तुमको मजरिम
लाख सफाई देते रहना
वही फैसला उसका अंतिम
-आनन्द पाठक-
शनिवार, 12 अक्तूबर 2024
अनुभूतियाँ 154/41
गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024
ग़ज़ल 427[ 76 फ़] ; नशा दौलत का है उसको--
ग़ज़ल 427 [76 फ़]
1222---1222---1222---1222
नशा दौलत का है उसको, अभी ना होश आएगा
खुलेगी आँख तब उसकी, वो जब सब कुछ गँवाएगा।
बहुत से लोग ऐसे हैं, ख़ुदा ख़ुद को समझते हैं
सही जब वक़्त आएगा, समय सब को सिखाएगा।
बख़ूबी जानता है वह कि उसकी हैसियत क्या है
बड़ा खुद को बताने में तुम्हें कमतर बताएगा ।
वो साज़िश ही रचा करता, हवाओं से है याराना
अगर मौक़ा मिला उसको, चिराग़ों को बुझाएगा
किताबों में लिखीं बाते, सुनाता हक़ परस्ती की
अमल में अब तलक तो वह, न लाया है, न लाएगा
हवा में भाँजता रहता है तलवारें दिखाने को
जहां कुर्सी दिखी उसको, चरण में लोट जाएगा ।
शराफत की भली बातें, कहाँ सुनता कोई "आनन"
सभी अपनी अना में है, किसे तू क्या सुनाएगा ।
-आनन्द.पाठक-
सोमवार, 30 सितंबर 2024
अनुभूतियाँ 153/40
अनुभूति 153/40
609
पहले वाली बात कहाँ अब
मौसम बदला तुम भी बदली
वो भी दिन क्या दिन थे अपने
मैं था ’पगला" तुम थी ’पगली
610
जिन बातों से चोट लगी हो
मन में उनको, फिर लाना क्यों
जख्म अगर थक कर सोए हो
फिर उनको व्यर्थ जगाना क्यों
611
जब से दूर गए हो प्रियतम
साथ गईं मेरी साँसे भी
देख रही हैं सूनी राहें
और प्रतीक्षारत आँखे भी
612
समझाने का मतलब क्या फिर
बात नहीं जब तुमने मानी
क्या कहता मैं जब तुमने ही
राह अलग चलने की ठानी
-आनन्द.पाठक
अनुभूतियाँ 152/39
605
काट दिए जब दिन विरहा के
मत पूछो कैसे काटे हम
सारी ख़ुशियाँ एक तरफ़ थी
जीवन टुकड़ों में बाँटे हम
हार गए हों जो जीवन से
टूट गईं जिनकी आशाएँ
एक सहारा देना उनको
मुमकिन है फिर से जी जाएँ
607
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल ।
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल ।
नदिया की अपनी मर्यादा
तट के बन्धन में रहती है
अन्तर्मन में पीड़ा रखती
दुनिया से कब कुछ कहती है
-आनन्द.पाठक-
रविवार, 29 सितंबर 2024
ग़ज़ल 426[75 फ़] : झूठे ख़्वाब दिखाते क्यों हो
ग़ज़ल 426[75 फ़]
21--121--121--122 =16
झूठे ख़्वाब दिखाते क्यों हो
सच को तुम झुठलाते क्यों हो
कुर्सी क्या है आनी-जानी
तुम दस्तार गिराते क्यों हो
तर्क नहीं जब पास तुम्हारे
इतना फिर चिल्लाते क्यों हो।
गुलशन तेरा मेरा सबका
फिर दीवार उठाते क्यों हो ।
बाँध कफ़न हर बार निकलते
पीठ दिखा कर आते क्यों हो ।
जब जब लाज़िम था टकराना
हाथ खड़े कर जाते क्यों हो ।
पाक अगर है दिल तो ’आनन’
दरपन से घबराते क्यों हो ।
-आनन्द.पाठक -
शुक्रवार, 27 सितंबर 2024
ग़ज़ल 425 [74 फ़] : कोई आता है दुनिया में
ग़ज़ल 425[74 फ़}
1222---1222---1222---1222
कोई आता है दुनिया में , कोई दुनिया से जाता है,
नवाज़िश है करम उनका, हमे क्या क्या दिखाता है
नही जो पाक सीरत हो, भरा हिर्स-ओ-हसद से दिल
इबादत या ज़ियारत हो, ख़ुदा नाक़िस बताता है ।
भरोसा है अगर उस पर, झिझक क्या है, हिचक फिर क्या
उसी का नाम लेता चल, अज़ाबों से बचाता है ।
न जाने क्या समझ उसकी, बहारों को ख़िज़ा कहता
हक़ीक़त जान कर भी वह, हक़ीक़त कह न पाता है ।
अदा करना जो चाहो हक़, तुम्हारी अहलीयत होगी
वगरना बेग़रज़ कोई फ़राइज़ कब निभाता है ।
तबियत आ ही जाती है जो ख़्वाहिश हो अगर उनकी
बना कर राहबर भेजे जिसे अपना बनाता बनाता है ।
हुए गुमराह क्यों ’आनन’ ये सीम-ओ-ज़र के तुम पीछे
अगर दिल की सुना करते , सही राहें बताता है ।
-आनन्द.पाठक-
मंगलवार, 24 सितंबर 2024
ग़ज़ल 424 [73-फ़] : गुनाह कर के भी होता वो---
ग़ज़ल 424[73 फ़]
1212---1122---1212---112/22
गुनाह कर के भी होता वो शर्मसार नहीं
दलील यह है कि दामन तो दाग़दार नहीं
हज़ार रंग वो बदलेगा, झूठ बोलेगा,
मगर कहेगा कि "कुर्सी’ से उसको प्यार नहीं।
बताते ख़ुद को ही मजलूम बारहा सबको
चलेगा दांव तुम्हारा ये बार बार नहीं ।
ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता, मुगालते में है
कि उससे बढ़ के तो कोई ईमानदार नहीं।
दिखा के झूठ के आँसू , ख़बर बनाते हो
तुम्हारी बात में वैसी रही वो धार नहीं ।
यक़ीन कौन करेगा तुम्हारी बातों पर
तुम्हारी साख रही अब तो आबदार नहीं।
भले वो जो भी कहे सच तो है यही ’आनन’
किसी भी शख्स पे उसको है ऎतबार नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 423 [72-फ़] : मुख़ालिफ़ जो चलने लगी हैं हवाएँ
ग़ज़ल 423 [72-फ़]
122---122---122---122
मुख़ालिफ़ जो चलने लगी हैं हवाएँ
चिराग़-ए-मुहब्बत कहाँ हम जलाएँ ।
बला आसमानी से क्या ख़ौफ़ खाना
अगर साथ होंगी तुम्हारी दुआएँ ।
बदल जाएगी मेरी दुनिया यक़ीनन
मेरी ज़िंदगी में अगर आप आएँ ।
मिलेगा ठिकाना कहाँ और हमको
जहाँ जा के सजदे में यह सर झुकाएँ।
सभी अपने ग़म में गिरफ़्तार बैठे
यह जख़्म-ए-जिगर जा के किसको दिखाएँ ?
परिंदे शजर छोड़ कर उड़ गए हैं
शजर कैसे अपनी जमीं छोड़ जाएँ ।
तुम्ही को ये दुनिया बनानी है ’आनन’
फ़रिश्ते उतर कर जो आएँ न आएँ ।
-आनन्द.पाठक-
शुक्रवार, 20 सितंबर 2024
कविता 32 : आसुरी शक्तियाँ
आसुरी शक्तियाँ
पाशविक प्रवृत्तियाँ
देवासुर संग्राम में
कल भी थी, आज भी है |
रावण मरा नहीं करता है
कंस सदा ज़िंदा रहता है
मन के अंदर
द्वंद सदा चलता रहता है ।
निर्भर करता
आप किधर किस ओर खड़े हैं
कितना कब तक आप लड़े हैं ।
सोमवार, 16 सितंबर 2024
अनुभूतियाँ 151/38
अनुभूतियाँ 151/ 38
601
आसमान के कितने ग़म है
धरती के भी क्या कुछ कम हैं?
कौन देखता इक दूजे की
आँखे किसकी कितनी नम हैं ।
602
एक समय ऐसा भी आया
जीवन में अंगारे बरसे ।
जलधारों की बात कहाँ थी
बादल की छाया को तरसे ।
603
एक बात को हर मौके पर
घुमा-फिरा कर वही कहेगा।
ग़लत दलीलें दे दे कर वह
ग़लत बात को सही कहेगा ।
604
जब अपने मन का ही करना
फिर क्या तुमसे कुछ भी कहना ।
जिसमें भी हो ख़ुशी तुम्हारी
काम वही तुम करती रहना ।
-आनन्द पाठक-
अनुभूतियाँ 150/37
क़िस्त 150/37
597
बहुत दिनों के बाद मिली हो
आओ, बैठॊ पास हमारे -
यह मत पूछो कैसे काटे
विरहा में, दिन के अँधियारे ।
598
मन के अन्दर ज्योति प्रेम की
राह दिखाती रही उम्र भर
जिसे छुपाए रख्खा मैने
पीड़ा गाती रही उम्र भर
599
साथ तुम्हारा ही संबल था
जिससे मिला सहारा मुझको
साँस साँस में तुम ना घुलती
मिलता कहाँ किनारा मुझको
600
सदियों की तारीख़ भला मै
लम्हों में बतलाऊं कैसे ?
जीवन भर की राम-कहानी
पल दो पल में गाऊँ कैसे ?
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियां 149/36
अनुभूतियाँ 149/36
593
एक किसी के जाने भर से
दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती
चाह अगर है जीने की तो
राह नई खुद राह दिखाती
594
कहाँ गई वो ख़ुशी तुम्हारी
कहाँ गया अब वो अल्हड़पन
इस बासंती मौसम में भी
दुखी दुखी सी क्यों रहती जानम
595
कब तक मौन रहोगी यूँ ही
कुछ तो अन्तर्मन की बोलो
अन्दर अन्दर क्यों घुलती हो
कुछ तो मन की गाँठें खोलो
596
हर बार छला दिल ने मुझको
हर बार उसी की सुनता हूँ
क्या होता हैं सपनों का सच
मालूम, मगर मैं बुनता हूँ
अनुभूतियाँ 149/36
अनुभूतियाँ 149/36
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल ।
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल ।
:2;
रविवार, 15 सितंबर 2024
अनुभूतियाँ : क़िस्त 114/01
क़िस्त 114/ क़िस्त 1
453
कब आना था तुमको लेकिन
निश दिन मैने पंथ निहारे
हर आने जाने वाले से
पूछ रहा हूँ साँझ-सकारे।
454
जिन रिश्तों में तपिश नहीं हो
उन रिश्तों को क्या ढोना है
’हाय’ हेलो तक ही रह जाना
रस्म निबाही का होना है
455
कैसे मैं समझाऊँ तुमको
नही समझना ना समझोगी
तुम्ही सही हो,
मैं ही ग़लत हूँ
बिना बात मुझ से उलझोगी
456
बात बात पर नुक़्ताचीनी
बात कहाँ से कहाँ ले गई
क्या क्या तुमने अर्थ निकाले
जहाँ न सोचा, वहाँ
ले गई
शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
मुक्तक 22
गुरुवार, 12 सितंबर 2024
अनुभूतियाँ 148/35 :
अनुभूतियाँ 148/35
589
सदा बसें मेरे हिरदय में
राम रमैया सीता मैया
अंजनि पुत्र केसरी नंदन
साथ बिराजै लछमन भैया
590
हो जाए जब सोच तुम्हारी
राग द्वेष मद मोह से मैली
राम कथा में सब पाओगे
जीवन के जीने की शैली ।
:591
एक बार प्रभु ऐसा कर दो
अन्तर्मन में ज्योति जगा दो
काम क्रोध मद मोह तमिस्रा
मन की माया दूर भगा दो ।
592
इस अज्ञानी, इस अनपढ़ पर
कृपा करो हे अवध बिहारी
भक्ति भाव मन मे जग जाए
कट जाए सब संकट भारी
-आनन्द.पाठक-
मंगलवार, 10 सितंबर 2024
मुक्तक 21
कविता 31 : जब सच उठ कर
कविता 31 : जब सच कर उठ कर
कविता 30 : वही तितलियाँ--
कविता 30 : वही तितलियाँ---
जब बचपन मेरंग बिरंगी शोख तितलियाँ
बैठा करती थी फूलों पर
भागा करता था मै
पीछे पीछे ।
जब भी उनको छूना चाहा
उड़ जाती थीं इतरा कर
इठला कर, मुझे थका कर ।
वही तितलियाँ बैठ गईं अब
अपने अपने फूलों पर
पास से गुज़रूँ, पूछे हँस कर
"अब घुटनों का दर्द तुम्हारा, कैसा कविवर" ?
-आनन्द पाठक-
कविता 29 : सूरज निकले उससे पहले--
कविता 29 : सूरज निकले उस से पहले--
सूरज निकले उससे पहले
या डूबे तो बाद में उसके
रोज़ हज़ारों क़दम निकलते
कुआँ खोदते पानी पीते
तिल तिल कर हैं मरते ,जीते
सबकी अपनी अलग व्यथा है
महानगर की यही कथा है ।
-आनन्द.पाठक-
कविता 28 : चन्दन वन से
कविता 28: चन्दन वन से
जब बबूल बन से गुज़रोगे
क्या पाओगे ?
राहों में काँटे ही काँटे
दूर दूर तक बस सन्नाटे ।
चन्दन बन से जब गुज़रोगे
एक सुगन्ध
भर जाएगी साँसों में
सावधान भी रहना होगा
शाखों से लिपटे साँपों से ।
-आनन्द.पाठक-
कविता 27 : ख़्वाब देखना
कविता 27 :ख़्वाब देखना--
ख़्वाब देखना ,बुरा नहीं है ।
हक़ है तुम्हारा।
यह किसी की दुआ नहीं है।
सिर्फ़ देखना रोज़ देखना
और देखते ही बस रहना, कुछ न करना
फिर सो जाना, फिर खो जाना
ठीक नहीं है ।
उठो , जगो, पुरुषार्थ जगाओ
पुरुषार्थ तुम्हारा भीख नही है ।
-आनन्द.पाठक-
कविता 26 : बदलते रिश्ते
कविता 26 :बदलते रिश्ते
-आनन्द.पाठक-
कविता 25 : एक कवि ने-- [हास्य]
कविता 25 : एक कवि ने --- [हास्य]
अपनी कन्या की शादी का
विज्ञापन छपवाया
लेखन कुछ ऐसा बनवाया
'वर चाहिए'
'रचना' मेरी स्वरचित मौलिक
अब तक नहीं प्रकाशित
इसी लिए रह गई आज तक
क्वारी अविवाहित
विज्ञापन के तथ्य यदि शंकित है
मौलिकता का प्रमाण-पत्र
'रचना ' के पृष्ठ भाग पर
-----०----०
किसी पत्र के संपादक ने
हामी भर दी
कवि जी ने शादी कर दी
एक साल के बाद
संपादक ने
धन्यवाद के साथ
खेद सहित
'रचना ' वापस कर दी।
और लिख दिया
रचना सुन्दर अति-श्रेष्ठ है
उम्र में हम से वरिष्ठ है
छप नही सकती
अन्य कोई हो छोटी रचना यदि आप की
तो शायद खप सकती है
कविता 24 : सतवाँ जनम यही है--[हास्य]
कविता 24 :सतवाँ जनम यही है [ हास्य]
'सुनते हैं जी !
कल शाम मंदिर में मैंने
क्या माँगा था ?
सात जनम तक पति रुप में
तुम को पाऊ
चरणों की सेवा कर
जीवन सफल बनाऊँ" ।
मैंने बोला " भाग्यवान !
एक बात तो तुम ने कही सही है।
छह जनम तो बीत चुका है
सतवाँ जनम यही है ।
कविता 23 : एक देश
कविता 23 [ आ0 धूमिल जी की एक कविता की प्रेरणा से]
एक देश
दूसरे देश से लड़ता है
दूसरा देश विरोध में लड़ता है ।
एक तीसरा देश भी है
जो लड़ता नहीं, लड़ाता है ।
अपना हथियार बेच,
मोटा मुनाफ़ा कमाता है।
मैं पूछता हूँ
वह तीसरा देश कौन है
इस विषय पर भी U.N.O मौन है।
-आनन्द.पाठक-
शुक्रवार, 6 सितंबर 2024
ग़ज़ल 422 [ 71-फ़] : हाल इतना तेरा बुरा तो नहीं-
ग़ज़ल 71-फ़
2122---1212---112
हाल इतना तेरा बुरा तो नहीं ।
वक़्त तेरा अभी गया तो नहीं ।
सामने हैं अभी खुली राहें ,
हौसला है,अभी मरा तो नहीं ।
एक दीपक तमाम उम्र जला
आँधियों से कभी डरा तो नहीं ।
जानता हूँ तू बेवफ़ा न सही
चाहे जो है तू बावफ़ा तो नहीं ।
इश्क अंजाम तक भले न गया
इश्क करना कोई ख़ता तो नहीं ।
आँख तेरी है क्यूँ छलक आई,
ज़िक्र मेरा कहीं हुआ तो नहीं ?
बात यह भी तो है सही ’आनन’
ज़िन्दगी क़ैद की सज़ा तो नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
मंगलवार, 3 सितंबर 2024
गीत 087 : इससे पहले कि हम रोशनी से जलें--
गीत 087: गीत 14 [ अभी संभावना है ]
इससे पहले कि हम रोशनी से जलें,’आदमी’ तो जगा आदमी में ।
आदमी से अजनबी हुआ आदमी
रंग के भेद में रंग गया आदमी ।
काल गोरे हो तन पर लहू एक रंग
जात और पात में बँट गया आदमी ।
इससे पहले कि हम धर्म अधूरा पढ़ें,"ढाई आख़र" पढ़े आख़िरी में ।
आदमी है खड़ा लेकर ’परमाणु-बम्ब’
आदमी बन गया साँप का तन-बदन ।
हर ज़हर से ज़हरीला हुआ आदमी
आदमी बन गया एक सीलन घुटन ।
इससे पहले कहीं हम-नस्ल ना बचे, ’गाँधी-गौतम’ बचा आदमी ।
आदमी को निगलता हुआ आदमी
आदमी से उबलता हुआ आदमी ।
आदमी आदमी से परेशान है -
अग्नि-शलाका उगलता हुआ आदमी ।
इससे पहले कि हम पर अँधेरा हँसे, रोशनी तो जगा आदमी में ।
’गाँधी’ वह जो मिटे आदमी के लिए
’सुकरात’ वह जो ज़हर के प्याले पिए
आदमी ने ही सूली चढ़ाया उसे -
आदमी जो जिया आदमी के लिए ।
इससे पहले कि फिर कोई सूली चढ़े, एक "ईशा" जगा आदमी में ।
इससे पहले कि हम रोशनी से जलें,’आदमी’ तो जगा आदमी में ।
-आनन्द.पाठक-
गीत 087 : वह नई रोशनी की फिर से बातें करते है --
गीत 087 [ अभी संभावना है]
वह नई रोशनी की फिर से बातें करते हैं
मैं एक अँधेरा तब से अब तक भोग रहा हूँ ।
गलियों गलियों नुक्कड़ नुक्कड़ चौराहों पर
’सम्पूर्ण क्रान्ति" का नारा हमसे लगवाएँगे ।
पुन: सुनहले स्वप्न दिखा सूनी आँखों में
सिंहासन सत्ता का हमसे हिलवाएँगे ।
तार तार हो गई मेरी विश्वास चदरिया
मैं पेबन्द पेबन्द तब से अब तक जोड़ रहा हूँ।
हम आज तलक है खड़े उन्हीं चौराहों पर
कल हमे अकेला छोड़ कि "दिल्ली’ चले गए ।
सब सत्ता के बँटवारे में आसक्त रहे
कितने वर्षों हम उनके हाथों छले गए ।
वह आश्वासन का बोझ सौंप आश्वस्त हुए
मैं टुकड़ा-टुकड़ा अब तक जीवन जोड़ रहा हूँ ।
हर कोई एक मशाल लिए अपने हाथों में
" जे0पी0 बनने का दम्भ लिए फिरता रहता है।
हर रथी यहाँ अब स्वयं सारथी बन बैठा
हर नेता खुद को महारथी सोचा करता ।
वह शहर शहर में अश्वमेध की बातें करता
मैं बलिवेदी की तब से अब तक सोच रहा हूँ।
-आनन्द.पाठक-
मंगलवार, 27 अगस्त 2024
मुक्तक 20
सोमवार, 26 अगस्त 2024
ग़ज़ल 421 [70-फ़] : ये हस्ती चन्द रोज़ां की
ग़ज़ल 421[70 फ़]
1222---1222---1222---1222
ये हस्ती चंद रोज़ां की, फ़क़त इतना फ़साना है ।
किसी के पास जाना है तो ख़ुद से दूर जाना है।
उमीदों से भरा है दिल कि आओगे इधर इक दिन
अक़ीदा है अभी क़ायम , क़यामत तक निभाना है ।
तुम्हे एह्सास तो होगा, तड़पता है किसी का दिल
उठा तो अब निक़ाब-ए-रुख, नफ़स का क्या ठिकाना है ।
हवाओं में घुली ख़ुशबू पता उसका बताती है
मुझे मत रोक ऎ ज़ाहिद !मुझे उस ओर जाना है ।
ज़माने की हिदायत को भला माना कहाँ आशिक
नहीं सुनना जिसे कुछ भी, उसे फिर क्या सुनाना है ।
हमारी बुतपरस्ती की शिकायत क्यों तुम्हें, वाइज़ !
तुम्हारी राह चाहे जो, हमारी आशिक़ाना है ।
जुनून-ए-शौक़ है ज़िंदा तभी तक मैं भी हूँ ज़िंदा
सिवा इसके न ’आनन’ को मिला कोई बहाना है ।
-आनन्द.पाठक-
मंगलवार, 20 अगस्त 2024
दोहे 21 : श्रावणी
दोहे 21 : श्रावणी
सोमनाथ के द्वार पर, शरणागत 'आनन्द ।
ना जानू कैसे करूँ, स्तुति वाचन छन्द ।।
शिव जी से क्या माँगना , जाने मेरा हाल ।
बस इतना ही दें प्रभू , मन ना हो वाचाल ॥
भक्ति-भाव में मन रमे, बाबा भोलेनाथ ।
वर इतना बस दीजिए, कभी ना छूटे हाथ ॥
रविवार, 18 अगस्त 2024
अनुभूतियाँ 147/34
उद्यम रत हैं जो दुनिया में
उन्हें भला अवकाश कहाँ है ।
उड़ने पर जब आ जाएँ तो
एक नया आकाश वहाँ है ।
586
नई चेतना, नई प्रेरणा ,
हिम्मत हो, कल्पना नई हो ,
आसमान ख़ुद झुक जाएगा
पंख नया, भावना नई हो ।
587
अनुभूतियाँ 146/33
अनुभूतियाँ 146/33
581
जब अपने मन का ही करना
फिर क्या तुमसे कुछ भी कहना ।
जिसमें भी हो ख़ुशी तुम्हारी
काम वही तुम करती रहना ।
582
अपने अंदर नई चेतना
किरणों का भंडार सजाए ।
व्यर्थ इन्हें क्या ढोते रहना ,
अगर समय पर काम न आए।
583
सूरज डूब गया हो पूरा
ऐसी बात नहीं है साथी ।
उठॊ चलो, प्रस्थान करो तुम
अभी रोशनी है कुछ बाक़ी ।
584
सफ़र हमारा नहीं रुकेगा,
जब तक मन में आस रहेगी ।
जब तक मंज़िल हासिल ना हो
इन अधरों पर प्यास रहेगी ।
-आनन्द. पाठक-
शुक्रवार, 16 अगस्त 2024
दोहा 22 : सामान्य
:1:
ऊँची ऊँची फेंकता , पंडित बने महान ॥
गुरुवार, 15 अगस्त 2024
ग़ज़ल 420 [69 फ़] : मिटा दोगी अगर मेरी मुहब्बत --
ग़ज़ल 420 [ 69 फ़]
1222---1222---1222---122
मिटा दोगी अगर मेरी मुहब्बत की निशानी
हवाओं में रहेगी गूँजती मेरी कहानी ।
कभी तनहाइयों में जब मुझे सोचा करोगी ,
नहीं तुम भूल पाओगी मेरी यादें पुरानी ।
वो दर्या का किनारा,चाँदनी रातों का मंज़र
मुझे सब याद आएँगी, तेरी बातें सुहानी ।
भँवर में डूबती कश्ती किसी की तू ने देखी ,
न भूला हूँ तेरा डरना, न अश्क़-ए- नागहानी ।
अरे! अफ़सोस क्या करना, मुहब्बत की ये कश्ती
किसी की पार लग जानी , किसी की डूब जानी ।
भले मानो न मानो, इश्क़ तुहफा है ख़ुदा का
हसीं आग़ाज़ से अंजाम तक है जिंदगानी ।
मुसाफिर इश्क़ का है वह, न उसको ख़ौफ़ कोई
बलाएँ हो ज़मीनी या बला-ए-आसमानी ।
तुम्हें लगता था ’आनन’ वह तुम्हारी ही रहेगी
ग़रज़ की है यहाँ दुनिया, सभी बातें जबानी ।
-आनन्द.पाठक-
बुधवार, 14 अगस्त 2024
ग़ज़ल 419 [68 फ़] : नहीं वह राज़ से पर्दा उठाता है--
ग़ज़ल 419[ 68 फ़]
1222---1222---1222
नहीं वह राज़ से पर्दा उठाता है ।
हमेशा ग़ैब से दुनिया चलाता है।
अक़ीदा साबित-ओ-सालिम कि झूठा है ?
यही हर मोड़ पर वह आजमाता है ।
नज़र आता नहीं लेकिन कहीं तो है
इशारों में मुझे कोई बुलाता है ।
उतर जाना है कश्ती ले के दरिया में ,
भरोसा है तो फिर क्यों ख़ौफ़ खाना है ।
चिराग़ों को भले तुम क़ैद कर लोगे ,
उजालों को न कोई रोक पाता है ।
हुनर होगा तुम्हारा ख़ास जो कोई
ज़माने में नुमायाँ हो ही जाता है ।
ज़माना जो भी समझे इश्क़ को’ ’आनन’
निभाना पर इसे सबको न आता है ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 418[67फ़] : जब कहीं तेरी रहगुज़र आई
ग़ज़ल 418[67-फ़]
2122---1212---22
जब कहीं तेरी रहगुज़र आई ।
याद तेरी ही रात भर आई ।
एक लम्हा तुम्हे था क्या देखा
बाद ख़ुद की न कुछ ख़बर आई ।
छोड़ कर जो गई किनारे को
लौट कर फिर न वो लहर आई ।
तुमको देखा तो यूँ लगा ऐसे,
ज़िंदगी जैसे फिर नज़र आई ।
वज़्द में दिल नहीं रहा अपना
उनके आने की जब ख़बर आई।
दर्द अपना कि था ज़माने का
आँख दोनों में मेरी भर आई ।
बात फिर ख़त्म हो गई ’आनन’
बुतपरस्ती पे जब उतर आई ।
-आनन्द पाठक -
मंगलवार, 13 अगस्त 2024
गीत 86[10] : जन्म दिन पर
गीत 86 [10] : जन्म दिन पर--
जन्म दिन पर आज जीवन को नया आयाम दे दो ।
पुष्प बन विहसों कि तुम नवगंध बिखरे
हर बरस मंगलमय़ी व्यक्तित्व निखरे ।
जन्म दिन की शुभ घड़ी, कोई नी पहचान दे दो ।
जन्म-दिन पर आज जीवन को--
आज पावन पर्व पर शुभकामनाएं~
’खुश रहो प्रिय !’ -बस यही है भावनाएँ ।
गीत अनगाए हमारे हो सके स्वरदान दे दो ।
जन्म-दिन पर आज जीवन को--
मधुर स्मृति सौंप कर इक वर्ष बीता
संकल्प आगत औ’ अनागत कौन जीता?
आज यह संक्रान्ति क्षण को इक नया सा नाम दे दो ।
जन्म-दिन पर आज जीवन को--
-आनन्द.पाठक-
शनिवार, 10 अगस्त 2024
ग़ज़ल 417 [21-अ] : तुम्हे लगता है जैसे--
ग़ज़ल 417 [21 अ]
1222---1222---1222---1222
तुम्हें लगता है जैसे यह तुम्हारी ही बड़ाई है
खरीदी भीड़ की ताली, खरीदी यह बधाई है ।
जहाँ कुछ लोग बिक जाते, खनकते चन्द सिक्कों पर
वहाँ सच कटघरे में हैं, जहाँ झूठी गवाही है ।
हमें मालूम है कल क्या अदालत फ़ैसला देगा ,
मिलेगी क़ैद फूलों को, कि पत्थर की रिहाई है ।
खड़ा है दस्तबस्ता, सरनिगूँ दरबार में जो शख़्स
वही देता सदा रहता, बग़ावत की दुहाई है ।
रँगा चेहरा है खुद उसका, मुखौटे पर मुखौटा है,
कमाल-ए-ख़ास यह भी है कि उस पर भी रँगाई है।
भरोसा क्यों नहीं उसको , ज़माने पर , न ख़ुद पर ही
न लोगों से ही वह मिलता , न ख़ुद से आशनाई है ।
फिसलना तो बहुत आसान होता है यहाँ ’आनन’
बहुत मुशकिल हुआ करती ये शुहरत की चढ़ाई है।
-आनन्द पाठक-
गुरुवार, 8 अगस्त 2024
ग़ज़ल 416[32 अ] : रखें इलजाम हम किस पर
ग़ज़ल 416 [ 32 अ ]
1222---1222---1222---1222
रखें इलजाम हम किस पर, वतन की इस तबाही का ।
सभी तो तर्क देते है, यहाँ अपनी सफ़ाई का ।
लगा है हाथ जिसके खूँ, छुपा कर है रखा ख़ंज़र
किया दावा हमेशा ही वो अपनी बेगुनाही का ।
मिला कर हाथ दुश्मन से, वो ग़ैरों से रहा मिलता
सरे महफ़िल किया चर्चा ,वो मेरी बेवफ़ाई का ।
क़दम दो-चार- दस भी रख सका ना घर से जो बाहर
वही समझा गया क़ाबिल हमारी रहनुमाई का ।
पला करता है गमलों में , घरौदों के जो साए में
उसे लगता हमेशा क्यों, वो मालिक है ख़ुदाई का।
बदल देता हो जो अपनी गवाही चन्द सिक्कों पर
भला कोई करे कैसे यकीं उसकी गवाही का ।
ज़माने की मसाइल पर नहीं वह बोलता ’आनन’
लगा अपना सुनाने ही वो किस्सा ख़ुदसिताई का ।
-आनन्द पाठक-
मंगलवार, 6 अगस्त 2024
ग़ज़ल 415 [63 A] : हमेशा क्यों किया करते हो बस --
ग़ज़ल 415 [63 A]
1222---1222---1222---1222
हमेशा क्यों किया करते हो बस तलवार की बातें
कभी तो कर लिया करते दिल-ए-दिलदार की बातें ।
जो सरहद की लकीरें हैं न दिल पर खीचिएँ उनको
सभी मिट जाएँगी करते रहें कुछ प्यार की बातें ।
उठा कर देखिए तारीख़ पिछले इन्क़लाबों की ,
सड़क पर आ गई जनता, हवा दरबार की बातें ।
लगा कर आग नफ़रत की जला दोगे अगर गुलशन
करेगा कौन फिर बोलॊ गुल-ओ-गुलजार की बातें ।
अगर करनी बहस है तो करो मुफ़लिस की रोटी पर
न टी0वी0 पर करो बस बैठ कर बेकार की बातें ।
यहीं जीना, यहीं मरना, यहीं रहना है हम सबको ,
करे फिर किसलिए हम सब अबस तकरार की बातें।
बहुत अब हो चुकी ’आनन’ मंदिर और मसज़िद की
सुनो अब तो ग़रीबों की , सुनो लाचार की बातें ।
-आनन्द.पाठक-
सोमवार, 5 अगस्त 2024
ग़ज़ल 414 [66 फ़] : इश्क़ करना बुरा नहीं होता
414 [66 फ़]
2122---1212---22-
इश्क़ करना बुरा नहीं होता ,
हर बशर बावफ़ा नहीं होता ।
हुस्न कब आ के दिल चुरा लेगा
दिल को भी ये पता नहीं होता ।
आप के दर तलक कईं राहें
एक ही रास्ता नहीं होता ।
बात मैं क्या सुनूँ तेरी ज़ाहिद ,
दिल ही जब आशना नहीं होता ।
प्यास कोई अगर नहीं होती
आदमी फिर चला नहीं होता ।
दिल अगर खोल कर जो हम रखते
लौट कर वो गया नहीं होता ।
दरहक़ीक़त यह बात है ’आनन’
इश्क़ का मरहला नहीं होता ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 413 [ 65-फ़] : हर ज़ुबाँ पर है बस यही चर्चा
ग़ज़ल 413 [ 65-फ़]
2122---1212---22
हर ज़ुबाँ पर है बस यही चर्चा ,
राज़ हो फ़ाश जब उठे परदा ।
इतनी ताक़त कहाँ थी आँखों में
देखता मैं जो आप का जल्वा ।
लोग पूछा किए अजल से ही
आप से कौन सा है ये रिश्ता ।
दिल में आकर लगे समाने वो
दिल ये होने लगा है बेपरवा ।
मर गई जब से है अना अपनी
अब न कोई रहा गिला शिकवा ।
मिल गया जा के जब समंदर में
फिर वो दर्या कहाँ रहा दर्या ।
उस तरफ़ क्यों न तुम गए ’आनन’
जिस तरफ़ बाग़रज़ खड़ी दुनिया ।
-आनन्द.पाठक-
बाग़रज़ = स्वार्थ से
शनिवार, 3 अगस्त 2024
ग़ज़ल 412 [64-फ़] : जिसको चाहा कहाँ उसे पाया
ग़ज़ल 412 [64-फ़ ]
2122---1212---22
जिसको चाहा, कहाँ उसे पाया ।
वो गया लौट कर नहीं आया ॥
ज़िंदगी बोल कर गई जब से ,
फिर ये दुनिया लगी मुझे माया ।
ग़ैब से ही करे इशारे. वो ,
सामने कब भला नज़र आया ।
एक ही है जो मेरा अपना है
और कोई मुझे नहीं भाया ।
शेख़ साहब न रोकिए मुझको
आज महबूब मेरे घर आया ।
रंज़-ओ-ग़म, चन्द अश्क़ के क़तरे
इश्क़ का बस यही है सरमाया ।
कैसे कह दूँ मैं इश्क़ में ’आनन’
कौन तड़पा है कौन तड़पाया ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 411[ 63-फ़] : मेरी यादों में आ रहा कोई
ग़ज़ल 411 [63-फ़ ]
2122---1212---22
मेरी यादों में आ रहा कोई
जैसे मुझको बुला रहा कोई।
या ख़ुदा दिल की ख़ैरियत माँगू
रुख़ ए पर्दा उठा रहा कोई ।
वह ज़ुबाँ से तो कुछ नहीं कहता
पर निगाहे झुका रहा कोई ।
सामने देख कर नज़र आता ,
हाल दिल का छुपा रहा कोई ।
गीत वैसे तो गा रहा मेरा ,
दर्द अपना सुना रहा कोई ।
अब तो बातों में रह गई बातें
अब न वादा निभा रहा कोई।
बात कुछ भी तो थी नहीं ’आनन’
ताड़, तिल का बना रहा कोई ।
-आनन्द.पाठक-
शुक्रवार, 2 अगस्त 2024
ग़ज़ल 410 [64 A] : खुलने दो खिड़कियों को ,--
ग़ज़ल 410 [64 A]
221---2122---// 221---2122
खुलने दो खिड़कियों को , ताजी हवा तो आए
बहका हुआ है गुलशन, कुछ गीत तो सुनाए ।
माना कि पर कटे हैं , दिल में तो हौसले हैं .
कह दो ये आसमाँ से, मुझको न आजमाए ।
हर शाम राह देखी , रख्खे दिए जला कर ,
अब याद भी नहीं है, कितने दिए जलाए ।
दीदार का सफ़र तो ,इतना नहीं है आसाँ
दीवानगी ने मुझकॊ, क्या क्या न दिन दिखाए ।
चेहरे तमाम चेहरे , सब एक-सा दिखे है ।
किसको सही कहे दिल. किसको ग़लत बताए।
महफ़िल सज़ा करेगी , कुछ लोग जब न होंगे ,
उनको भी याद करना , जो लौट कर न आए ।
शायद समझ वो जाए, तारीफ़-ए-इश्क़ क्या है,
जब प्यार में हम ’आनन’, ख़ुद को मिटा के आए ।
-आनन्द.पाठक-
चन्द माहिए 105/15
चन्द माहिए 105/15 [ उस पार]
:1:
कलियाँ हैं जन्नत की
ख़ूशबू आती है
माली के मिहनत की ।
:2:
गुरुवार, 1 अगस्त 2024
ग़ज़ल 409 [ 33 A] : लोग चले हैं प्यास बुझाने --
ग़ज़ल 409 [ 33 A]
21-121-121-122//21-121-121-121-122
लोग चले है प्यास बुझाने, बिन पानी तालाब जिधर है ,
ढूँढ रहे हैं साया मानो , जिस जानिब ना एक शजर है।
दीप जलाने वाले कम हैं , शोर मचाने वाले सरकश,
रहबर ही रहजन बन बैठा, सहमी सहमी आज डगर है।
आदर्शों की बाद मुसाफिर रख लें सब अपनी झोली में
कौन सुनेगा बात तुम्हारी, सोया जब हर एक बशर है ।
कितने दिन तक रह पाओगे. शीशे की दीवारों में तुम
आज नहीं तो कल तोड़ेंगे, सबके हाथों में पत्थर है ।
दरवाजे सब बंद किए हैं, बैठे हैं कमरे के भीतर
क्या खोले हम खिड़की, साहिब !बाहर ख़ौफ़ भरा मंज़र है ।
सीने में बारूद भरा है, हाथों में माचिस की डिब्बी
निकलूँ भी तो कैसे निकलूँ, सबके हाथों में ख़ंज़र है ।
सूरज की किरणों को ’आनन’ लाने को जो लोग गए थे,
अँधियारे लेकर लौटे हैं, घोटालों में क़ैद सहर है ।
-आनन्द.पाठक-
बुधवार, 31 जुलाई 2024
ग़ज़ल 408 [34 A] : किन किन ख़याल-ओ-ख़ाब में
ग़ज़ल 408 [34 A]
2212---1212---2212---12
किन किन ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता है आदमी
कितनी जगह से जुड़ के भी टूटा है आदमी ।
कितने सवाल हैं यहाँ जीने के नाम पर ,
हर इक सवाल में यहाँ उलझा है आदमी ।
हालात-ज़िंदगी में वह ऐसा जकड़ गया ,
हँसता न आदमी है, ना रोता है आदमी ।
जो भी गए हैं वह सभी इस राह से गए
जा कर वहाँ से कब कहाँ लौटा है आदमी।
आवाज़ आप दें उसे , बोलेगा वह ज़रूर
अन्दर जो दिल में आप के बैठा है आदमी ।
हर मोड़ पर हज़ार जहाँ आदमी दिखे ,
पर आदमी में अब कहाँ दिखता है आदमी ।
मुशकिल तमाम है तो क्या ’आनन’ ये जान लो
ज़िंदा है हौसला तो फिर ज़िंदा है आदमी ।
-आनन्द.पाठक-