शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

मुक्तक 22

122   122   122   122
1
तुम्हे लग न जाए किसी की नजर
मेरे हमनवा ऐ मेरे हमसफर
जुदाई की रातें न काटे कटी
शब-ए-वस्ल क्यूँ है लगे मुख्तसर

2
212   212  212
दिल में उलफत जगी तो रहे
इक शराफत बनी तो रहे
वह फरिश्ता बने ना बने
आदमी, आदमी तो रहे ।

3
221   2121   1221   212
कुछ सिरफिरे हैं लोग तुम्हे बरगला रहें
मजहब के नाम पर तुम्हे जन्नत दिखा रहें
दीपक जला के राह दिखाना था कल जिन्हे
मिल कर हवा के साथ वो बस्ती जला रहे

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 148/35

 अनुभूतियाँ 148/35

:1:
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल ।
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल ।

:2;



मंगलवार, 10 सितंबर 2024

मुक्तक 21

1
2122   2122   212
जो भी कहना था उन्हें वह कह गए
हम सियासत में उलझ कर रह गए
'वोट' वो आँसू बहा कर माँगते
भावनाओं में हम आकर बह गए ।

2
221    2121    1221   212
ग़ैरों से तेरे हाल की मिलती रही खबर
हर रोज देखता रहा तेरी ही रहगुजर
वैसे तमाम उम्र तेरा मुंतजिर रहा
ऐ जान! क्यों न भूल से आई कभी इधर?

3
122   122   122   122
कटी उम्र, उनको बुलाते बुलाते
जमाना लगेगा उन्हे आते आते
सफर जिंदगी में वो गाहे ब गाहे
हमे बेसबब क्यों रहे आजमाते

4
122    122   122   122
इशारों से गर तुम न हमको बुलाते
गुनह जाने हमको कहाँ ले के जाते
अगर दिल मे होता उजाला न तुमसे
सही या ग़लत क्या है, क्या हम बताते

-आनन्द पाठक -