बुधवार, 11 मार्च 2020

ग़ज़ल 145 : लगे दामन दामन पे

फ़’लुन--फ़े’लुन---फ़े’लुन --फ़े’लुन
122---122------122----122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
-------------------
ग़ज़ल 145 : लगे दाग़ दामन पे--

लगे दाग़ दामन पे , जाओगी कैसे ?
बहाने भी क्या क्या ,बनाओगी कैसे ?

चिराग़-ए-मुहब्बत बुझा तो रही हो
मगर याद मेरी मिटाओगी  कैसे ?

शराइत हज़ारों यहाँ ज़िन्दगी  के
भला तुम अकेले निभाओगी कैसे ?

नहीं जो करोगी  किसी पर भरोसा
तो अपनो को अपना बनाओगी कैसे ?

रह-ए-इश्क़ मैं सैकड़ों पेंच-ओ-ख़म है
गिरोगी तो ख़ुद को उठाओगी कैसे ?

कहीं हुस्न से इश्क़ टकरा गया तो
नज़र से नज़र फिर मिलाओगी कैसे ?

कभी छुप के रोना ,कभी छुप के हँसना
ज़माने से कब तक  छुपाओगी कैसे ?

अगर पास में हो न ’आनन’ तुम्हारे
तो शाने पे सर को टिकाओगी कैसे ?

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 10 मार्च 2020

ग़ज़ल 144[01A] : रोशनी मद्धम नहीं करना--

144 [ 01 A]

2122---2122----2122-----2122


ग़ज़ल 144 : रोशनी मद्धम नहीं करना---

रोशनी मद्धम नहीं करना अभी संभावना है
 कुछ अभी बाक़ी सफ़र है तीरगी से सामना है

यह चराग़-ए-इश्क़ मेरा कब डरा हैंआँधियों से
रोशनी के जब मुक़ाबिल धुंध का बादल घना है

लौट कर आएँ परिन्दे शाम तक इन डालियों पर
इक थके बूढ़े शजर की आखिरी यह कामना है

हो गए वो दिन हवा जब इश्क़ थी शक्ल-ए-इबादत
कौन होता अब यहाँ राह-ए-मुहब्बत में फ़ना है

जाग कर भी सो रहे हैं लोग ख़ुद से  बेख़बर भी
है जगाना लाज़िमी ,आवाज देना कब मना है

आदमी से जल गया है ,भुन गया है आदमी जो
आदमी ही आदमी का हमसुखन है ,आशना है

दस्तकें देते रहो तुम हर मकां, हर दर पे’आनन’
आदमी में आदमीयत जग उठे संभावना है

-आनन्द.पाठक-
Corrected 24-08-24