मंगलवार, 29 नवंबर 2022

गीत 76: कौन यह निर्णय करेगा --

 गीत 76

2122---2122--2122

कौन यह निर्णय करेगा ?

कौन किसको दे गया है वेदनाएँ ।


कल तलक थे एक दूजे के लिए हम

       अब न वो छाया, न वो परछाइयाँ हैं 

वक़्त ने कुछ खेल ऐसा कर दिया है

एक मैं हूँ साथ में तनहाइयाँ हैं ।

कौन सुनता है किसी की,

ढो रहे हैं सब यहाँ अपनी व्यथाएँ


हर तुम्हारी शर्त को मैने निभाया

जो कहा तुमने वो मैने गीत गाया

बादलों के पंख पर संदेश भेंजे-

आजतक उत्तर मगर कोई न आया ।

क्या कमी पूजन विधा में-

क्यों नहीं स्वीकार होती अर्चनाएँ?


साथ रहने की सुखद अनुभूतियाँ थीं

याचना थी, चाहतें थीं. कल्पना थी

ज़िंदगी के कुछ सपन थे जग गए थे

प्रेम में था इक समर्पण, वन्दना थी।

कल तलक था मान्य सब कुछ

आज सारी हो गईं क्यों वर्जनाएँ ?


चाँद से भी रूठती है चाँदनी क्या !

फूल से कब रूठती है गंध प्यारी !

कुछ अधूरे स्वप्न है तुमको बुलाते

मान जाओ, भूल जाओ बात सारी

कह रहा है मन हमारा

लौट आने की अभी संभावनाएँ

कौन यह निर्णय करेगा .कौन किसको दे गया है वेदनाएँ ?


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 9 नवंबर 2022

ग़ज़ल 284 [49इ]: बन के साया चल रहा था हमक़दम

 ग़ज़ल 284[49इ]


2122--2122--212


बन के साया चल रहा था हमक़दम 

’अलविदा’ कह कर गया मेरा सनम


वक़्त देता ज़ख़्म हर इनसान को

वक़्त ही भरता रहेगा दम ब दम


बोझ यह हल्का लगेगा दिन ब दिन

हौसले से जब रखोगे हर क़दम


बोझ अपना ख़ुद उठाना उम्र भर

सिर्फ़ लफ़्ज़ों से नहीं होते हैं कम


ज़िन्दगी आसान तो होती नहीं

रहगुज़र में सैकड़ॊं हैं पेंच-ओ-ख़म


फ़लसफ़े की बात है अपनी जगह

बाँटता है कौन किसका दर्द-ओ- ग़म


जानता है तू भी ’आनन’ सत्य क्या

बेसबब क्यों कर रहा है चश्म-ए-नम?


-आनन्द.पाठक

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

ग़ज़ल 283[48इ] : आप से है एक रिश्ता जाविदाँ

 ग़ज़ल 283[48इ]


2122---2122---212


आप से है एक रिश्ता जाविदाँ

एक क़तरा और बह्र-ए-बेकराँ


राजमहलों की हकीकत एक सी

वक़्त के हाथों मिटा नाम-ओ-निशाँ


छोड़ कर जाना तेरी महफिल, हमे

वक़्त सबका है मुक़र्रर जब यहाँ


और भी दुनिया में हैं तेरी तरह

एक तू ही तो नहीं है सरगिराँ  


चाहतों में ही उलझ कर रह गई

हर बशर की नामुकम्मल दास्ताँ


संग-ए-दिल भी चीख उठता देख कर

जब उजड़ता है किसी का आशियाँ


वह ज़माना अब कहाँ ’आनन’ रहा

ज़ाँ-ब लब तक जब निभाते थे ज़बाँ


-आनन्द.पाठक- 


जाविदाँ     = नित्य, शाश्वत,अनश्वर

बह्र-ए-बेकराँ = असीम सागर

सरगिराँ         =नाख़ुश ,अप्रसन्न  

ज़ाँ ब लब तक = अन्तिम अन्तिम समय तक [ मृत्यु काल तक]  

रविवार, 6 नवंबर 2022

ग़ज़ल 282[47इ] : प्यार में होता नहीं सूद-ओ-ज़ियाँ

 ग़ज़ल 282/47


2122--2122--212


प्यार में होता नहीं सूद-ओ-ज़ियाँ

वक़्त लेता हर क़दम पर इम्तिहाँ


आँख करती आँख से जब गुफ़्तगू

आँख पढ़ती आँख का हर्फ़-ए-बयाँ


इक मुकम्मल दास्तान-ए-ग़म कभी

अश्क की दो बूँद में होती निहाँ


कौन सा रिश्ता है जो टूटा नहीं

शक रहा जब दो दिलों के दरमियाँ 


वस्ल की सूरत निकल ही आएगी

मैं तुम्हारी हूँ जमीं, तुम आसमाँ


ज़िंदगी रंगीन भी आती नज़र

देखते जब आप इसमें ख़ूबियाँ


लोग हैं अपने मसाइल में फ़ँसे

कौन सुनता है किसी की दास्ताँ


इश्क़ में ’आनन’ अभी नौ-मश्क़ हो

हार कर ही जीत मिलती हैं यहाँ


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

सूद-ओ-ज़ियां = हानि-लाभ

निहाँ = छुपा हुआ

वस्ल = मिलन

मसाइल =मसले.समस्यायें

नौ-मश्क़ = नए नए अनाड़ी


 

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

ग़ज़ल 281[46इ] : याद में यार की मैं रहा

 ग़ज़ल 281(46E)


212--212--212--212


 याद में यार की मै रहा मुब्तिला

कौन आया गया है न मुझको पता


इश्क आवाज़ देता न जो हुस्न को

क्या न होती ये तौहीन-ए-हुस्न-ओ-अदा ?


बारहा कौन करता इशारा मुझे

ग़ैब से कौन देता है मुझको सदा


मैने चाहा कि अपना बना लूँ उसे

ज़िन्दगी से रहा बेसबब फ़ासला


एक क़तरे में तूफ़ाँ का इमकान है

वक़्त आने दे फिर देख होता है क्या


मैकदा भी यहीं और मसजिद यहीं

और दोनो में है एक सा ही नशा


ख़ुद के अन्दर नहीं ढूँढ पाया जिसे

फिर तू दैर-ओ-हरम में किसे ढूँढता ?


राह-ए-उल्फ़त में होना फ़ना जब नहीं

क्या समझ कर तू ’आनन’ इधर आ गया?


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 2 नवंबर 2022

ग़ज़ल 280[45इ] : भूल पाया जिसे उम्र भर भी नहीं

 ग़ज़ल 280[45 इ]

212--212--212--212


भूल पाया उसे उम्र भर भी नहीं

जिसने देखा मुझे इक नज़र भी नहीं


धूल चेहरे पे उसके जमी है मगर

हैफ़! इसकी उसे कुछ ख़बर भी नहीं


आस ले कर हूँ बैठा उसी राह पर

जो कभी उसकी यह रहगुज़र भी नहीं


मेरी बातों को सुन, अनसुना कर दिया

या ख़ुदा ! उस पे होता असर भी नहीं


मैं सुनाऊँ भी क्या और किस बाब से

दास्ताँ अपनी है मुख़्तसर भी नहीं


एक दीपक अकेला रहा जूझता

अब हवाओ से लगता है डर भी नहीं


जो ख़यालों में मेरे हमेशा रहा

आजकल हमसुखन हमसफ़र भी नहीं


 जिस्म-ए-फ़ानी को ’आनन’ जो समझा था घर

वक़्त-ए-आख़िर रहा तेरा घर भी नहीं



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

हैफ़ ! = अफ़सोस 

बाब     = अध्याय [ Chapter,]

मुख़्तसर = संक्षेप [ in short ]

जिस्म-ए-फ़ानी = नश्वर शरीर

वक़्त-ए-आख़िर =  अन्त समय में