रविवार, 26 अक्तूबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 10



:1: 

रंगोली आँगन की
देख रही राहें
छुप छुप कर साजन की

:2:


धोखा ही सही ,माना

अच्छा लगता है 
तुम से धोखा खाना

:3:


औरों से रज़ामन्दी

महफ़िल में  तेरी 
मेरी ही जुबांबन्दी ?

:4:


माटी से बनाते हो 

क्या मिलता है जब
माटी में मिलाते हो ?

:5:


सच ,वो, न नज़र आता 

कोई है दिल में
जो राह दिखा  जाता 

-आनन्द.पाठक-

[सं 15-06-18]


बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

मुक्तक 04/04 D

:1;
बदली हुई हवा है ज़माना बदल गया
ऎ यार मेरे अब तो मुहब्बत की बात कर
नफ़रत है तेरी सोच में पहले इसे बदल
करनी है तुझको तो उल्फ़त की बात कर


:2:

कौन सा है जो ग़म दिल पे गुज़रा नहीं
बारहा टूट कर भी  हूँ   बिखरा   नहीं
क्यों मुझे हो खबर क्या है सूद-ओ-ज़ियाँ
इश्क़ का ये नशा है जो  उतरा नहीं

;3:

जब कभी अपनी ज़ुबां वो खोलता है
झूठ ही बस झूठ हरदम  बोलता है
जानता वो झूठ क्या है और सच क्या
वो फ़िज़ां में ज़ह्र फिर क्यों घोलता है ?



   :4:
दावा करते हैं वो सूरज नया निकलने का
नई दिशा में ,नई राह पर लेकर चलने का
लेकिन काली रात अभी तो ढली नहीं, साथी !
थमा नहीं है अभी सिलसिला बेटी जलने का


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

एक ग़ज़ल 63 : तलाश जिसकी थी...



1212--1122--1212--22

तलाश जिसकी थी वो तो नहीं मिला,फिर भी
उसी की याद में ये दिल है मुब्तिला फिर भी

हज़ार तौर तरीक़ों से  आज़माता है 
क़रीब आ के वो रखता है फ़ासिला फिर भ

अभी तो आदमी, इन्सान बन नहीं पाया
अज़ल से चल रहा पैहम ये काफ़िला फिर भी

चिराग़ लाख बुझाओ, न रुक सकेगा ये  
नए चिराग़ जलाने का सिलसिला फिर भी

लबों की प्यास अभी तक नहीं बुझी साक़ी
पिला चुका है बहुत और ला पिला फिर भी

गया वो छोड़ के जब से ,चमन है वीराना
जतन हज़ार किए दिल नहीं खिला फिर भी

बहुत सही हैं ज़माने की तलखियाँ "आनन’
हमारे दिल में किसी से नहीं गिला फिर भी


शब्दार्थ
मुब्तिला  = ग्रस्त 
अज़ल   = अनादि  काल 
पैहम   = निरन्तर ,लगातार
तल्ख़ियां = कटु अनुभव

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]