शनिवार, 8 जनवरी 2011

गीत 25 [19] : जब देहरी को ....

गीत 25 [19]: मेरी देहरी को ....

मेरी देहरी को ठुकरा कर जब जाना है
फिर बोलो वन्दनवार सजा कर क्या होगा ?


आँखों के नेह निमन्त्रण की प्रत्याशा में
आँचल के शीतल छाँवों की अभिलाषा में
हर बार गईं ठुकराई मेरी मनुहारें-
हर बार ज़िन्दगी कटी शर्त की भाषा में

जब अँधियारों की ही केवल सुनवाई हो
फिर ज्योति-पुंज की बात चला कर क्या होगा ?


तुम निष्ठुर हो ,तुम प्रणय समर्पण क्या जानो !
दो अधरों की चिर-प्यास भला तुम क्या जानो !
क्यों  लगता मेरा पूजन तुमको आडम्बर ?
हर पत्थर में देवत्व छुपा तुम क्या जानो !

जब पूजा के थाल छोड़ उठ जाना ,प्रियतम !
फिर अक्षत-चन्दन ,दीप जला कर क्या होगा ?


मेरी गीता के श्लोक तुम्हें क्यों व्यर्थ लगे ?
मेरे गीतों के दर्द तुम्हें असमर्थ लगे
जीवन-वेदी माटी की है पत्थर की नहीं
क्यों तुमको ठोकर लगे ,तुम्हें अभिशप्त लगे?

जब हवन-कुण्ड की ज्योति जली बुझ जानी है
फिर ऋचा मन्त्र का पाठ सुना कर क्या होगा !

मेरी देहरी को ठुकरा कर .............

-आनन्द पाठक-

सं 27-11-20