साठ साल को तौलते ,पांच साल से लोग
पलडे तो मेढक भरे ,डंडी पर अभियोग
आवत ही हर्षण लगे ,नैनन भरे सनेह
'आनंद' तहां न जाइए 'वोटन' बरसे मेह
बैठे-बैठे खडे हुए , नेता जी तत्काल
वोट काटने आ गए दो-चार 'डमी' के साथ
सौदेबाजी चल रही चार दिना की ठाठ
राजनीति व्यापार हुई ,लोकतंत्र की हाट
होली से पहले हुआ होली का हुडदंग
पक्ष-विपक्ष करने लगा कीचड ले बदरंग
हर नेता समझा किया अपने कद को ताड़
जोगी सारे हो गए हो गए मठ उजाड़
बाहुबली का चुनाव में दर्द न बूझे कोय
संत वचन व सुभासितानी पूछत है का होय
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद संस्करण)
गुरुवार, 22 नवंबर 2007
दोहे ०७...
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
दोहे ०६....
क्षीर कहाँ अब बच गया ,बचा नीर ही नीर
फिर भी छीना-झपट है संसद में गंभीर
वोटन चोटन अस करी जस कबहूँ न कराय
'झुरिया' 'छमिया' गाँव की आँख दिखावत जाय
ढुलमुल ऐसा बोलिए अर्थ न समझे कोय
पार्टी -प्रवक्ता के लिए सच्चा नेता सोय
नैनन आंसू भर लिए ,देख देश का हाल
लगे सोच में डूबने कैसे करे हलाल
एम०पी० कुछ खरीद कर बहुमत करते सिद्ध
इसी तरह करते रहे लोकतंत्र समृद्ध
एक पाँव कुर्सी रखे एक पाँव है जेल
जनता मग्न हवे देखती राजनीति का खेल
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद संस्करण)
फिर भी छीना-झपट है संसद में गंभीर
वोटन चोटन अस करी जस कबहूँ न कराय
'झुरिया' 'छमिया' गाँव की आँख दिखावत जाय
ढुलमुल ऐसा बोलिए अर्थ न समझे कोय
पार्टी -प्रवक्ता के लिए सच्चा नेता सोय
नैनन आंसू भर लिए ,देख देश का हाल
लगे सोच में डूबने कैसे करे हलाल
एम०पी० कुछ खरीद कर बहुमत करते सिद्ध
इसी तरह करते रहे लोकतंत्र समृद्ध
एक पाँव कुर्सी रखे एक पाँव है जेल
जनता मग्न हवे देखती राजनीति का खेल
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद संस्करण)
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
रविवार, 18 नवंबर 2007
हास्य-क्षणिका 05 : पत्नी जी के जन्म दिवस पर---
एक कविता : पत्नी जी के जन्म-दिवस पर
पत्नी जी के जन्म-दिवस पर
मैने भी कुछ हुलस हुलस कर
’चार लाइना ’ लिख डाला
"जन्म दिन पर आज
जीवन को नया आयाम दे दो
"जन्मदिन की शुभ घडी
कोई नई पहचान दे दो "
प्रत्युत्तर में पत्नी बोली
"घड़ी? कौन सी?
शादी में जो घड़ी मिली थी
क्या कर डाला ?
"मेरे बाप को समझा क्या
H.M.T वाला !"
-आनन्द.पाठक-
[पत्नी के आगे "जी" ग्रह शान्ति के लिए लगाया है-आप लोग भी लगाया करें ]
पत्नी जी के जन्म-दिवस पर
मैने भी कुछ हुलस हुलस कर
’चार लाइना ’ लिख डाला
"जन्म दिन पर आज
जीवन को नया आयाम दे दो
"जन्मदिन की शुभ घडी
कोई नई पहचान दे दो "
प्रत्युत्तर में पत्नी बोली
"घड़ी? कौन सी?
शादी में जो घड़ी मिली थी
क्या कर डाला ?
"मेरे बाप को समझा क्या
H.M.T वाला !"
-आनन्द.पाठक-
[पत्नी के आगे "जी" ग्रह शान्ति के लिए लगाया है-आप लोग भी लगाया करें ]
[सं 07-12-18]
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
हास्य- क्षणिका 04
कहते हैं
लेखन एक विधा है
सफल वह नहीं जो जन्म से सधा हैं
समर्थ वह नहीं जो समर्थ लिखा है
समर्थ वह
जो अनर्थ लिख कर भी
छपता है ,बिकता है
कवि स्वान्त: सुखाय लिखता है
यह बात और
पाठक 'सेरिडान' लिए पढ़ता है
लेखन एक विधा है
सफल वह नहीं जो जन्म से सधा हैं
समर्थ वह नहीं जो समर्थ लिखा है
समर्थ वह
जो अनर्थ लिख कर भी
छपता है ,बिकता है
कवि स्वान्त: सुखाय लिखता है
यह बात और
पाठक 'सेरिडान' लिए पढ़ता है
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
क्षणिका 03
क्षणिका 03
बदलते रिश्ते
नहीं उतरते आसमान से
कहीं फ़रिश्ते
नहीं दिखाते सच के रस्ते
लोग यहाँ ख़ुद गर्ज़ है इतने
बदले जैसे कपड़े, वैसे
रोज़ बदलते रहते रिश्ते ।
-आनन्द.पाठक-
-आनन्द.पाठक-
Labels:
क्षणिका
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
शुक्रवार, 16 नवंबर 2007
दोहे
नारी थी पत्थर हुई , पत्थर से फिर नारि
देख 'अहल्या' ,सोचते इन्द्र वही व्यभिचार
देख 'अहल्या' ,सोचते इन्द्र वही व्यभिचार
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
गुरुवार, 15 नवंबर 2007
चुनावी दोहे 05
राजनीति के घाट पर भई संतन की भीड़
'हाई कमान 'बाटत टिकट ,टिकट लई धन-वीर
कंधे-कंधे ढो रहे , ले लंगडी सरकार
वही समर्थन वापसी,फिर वैतलवा डार
नहीं ताव नही आग अब ,नहीं उचित यही काल
'परमाणु संधि ' में उलझ गयो आगे कौन हवाल
वादे करते जाइए आश्वासन देवें भीख
जनता जाए भाड़ में लोकतंत्र की सीख
मगरमच्छ आंसू बहे देख दलित की भीड़
धीरे-धीरे हो गई राजनीति की रीढ़
राजनीति व्यापार में उलटी चलती रीति -
कलतक जिनसे दुश्मनी ,आज उन्ही से प्रीति
लोकतंत्र के नाम पर भीड़्तंत्र पहचान
पत्थर को शिवलिंग समझ करे आचमन पान
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद संस्करण )
'हाई कमान 'बाटत टिकट ,टिकट लई धन-वीर
कंधे-कंधे ढो रहे , ले लंगडी सरकार
वही समर्थन वापसी,फिर वैतलवा डार
नहीं ताव नही आग अब ,नहीं उचित यही काल
'परमाणु संधि ' में उलझ गयो आगे कौन हवाल
वादे करते जाइए आश्वासन देवें भीख
जनता जाए भाड़ में लोकतंत्र की सीख
मगरमच्छ आंसू बहे देख दलित की भीड़
धीरे-धीरे हो गई राजनीति की रीढ़
राजनीति व्यापार में उलटी चलती रीति -
कलतक जिनसे दुश्मनी ,आज उन्ही से प्रीति
लोकतंत्र के नाम पर भीड़्तंत्र पहचान
पत्थर को शिवलिंग समझ करे आचमन पान
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद संस्करण )
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
मंगलवार, 13 नवंबर 2007
कविता 2 [03]:महानगर है ...
कविता 2[ 03 ]
महानगर है
कहते हैं यह महानगर है
गिर जाए बीज अगर भूले से
उगता नहीं ,यहाँ जीता है
कारों के पहिए के नीचे
दब जाते हैं कितने अंकुर
जीने को मिलता सीलन
एक सडन ,संत्रास ,घुटन
जहरीली हवा अँधेरा ,जिनका कोई नही सवेरा
श्वास-श्वास में भरा धुआ है
जीवन जैसे अंध कुआ है
हर दिवस ही महासमर है
महानगर है
--- ---
फिर उगती कैक्टस की पौध
नागफनी के कांटे
शून्य ह्रदय ,संवेदनहीन
पसरे फैले दूर-दूर तक
अंतहीन सन्नाटे
नहीं उगते हैं चंदन वन
रक्तबीज के वंशज उगते
वृक्षों पर नरभक्षी उगते
टहनी पर बदूकें उगती
पास गए तो छाया चुभती
कुछ लोग तो पाल-पोष
गमलों में रखते
शयन-कक्ष में,घर-आँगन में
धीरे-धीरे फ़ैल-फ़ैल कर
शयन-कक्ष से, घर से बढ़ कर
गली-गली में बढ़ते -बढ़ते
हो जाता संपूर्ण शहर
जंगल ही जंगल
कांक्रीट का जंगल
-- --- --
कांक्रीट के जंगल में
आता नहीं वसंत
बस आते कौओं के झुंड
गिध्धों की टोली
नहीं गूंजती कोयल बोली
गूंजा करते बम्ब धमाके
बंदूकों की गोली
फूल पलाश के लाल नहीं दिखते हैं
रंग देते हैं हमी शहर के दीवारों को
लाल-रंग से खून के छीटें
नहीं सुनाती संगीत हवाएं
मादक द्रव्य सेवन करते
हमी नाचते झूमे-गाएं
हमी मनाते गली-शहर
दिग-दिगंत ,अपना वसंत
-----
सच है यह भी
इस जंगल के मध्य अवस्थित
कहीं एक छोटा -सा उपवन
नंदन -कानन
छोटा-सा पोखर ,शीतल-जल,मन-भावन
अति पावन
पास वहीं केसर की क्यारी
महक रही है
हरी मखमली घास चुनरिया
पसरी फैली हुई लताएँ
अल्हड़ युवती -सी
महकी -महकी हुई हवाएं रजनी-गंधा सी
काश ! कि यह छोटा उपवन
फ़ैल-फ़ैल जंगल हो जाता
जन-जन का मंगल हो जाता
-आनन्द पाठक--
कहते हैं यह महानगर है
गिर जाए बीज अगर भूले से
उगता नहीं ,यहाँ जीता है
कारों के पहिए के नीचे
दब जाते हैं कितने अंकुर
जीने को मिलता सीलन
एक सडन ,संत्रास ,घुटन
जहरीली हवा अँधेरा ,जिनका कोई नही सवेरा
श्वास-श्वास में भरा धुआ है
जीवन जैसे अंध कुआ है
हर दिवस ही महासमर है
महानगर है
--- ---
फिर उगती कैक्टस की पौध
नागफनी के कांटे
शून्य ह्रदय ,संवेदनहीन
पसरे फैले दूर-दूर तक
अंतहीन सन्नाटे
नहीं उगते हैं चंदन वन
रक्तबीज के वंशज उगते
वृक्षों पर नरभक्षी उगते
टहनी पर बदूकें उगती
पास गए तो छाया चुभती
कुछ लोग तो पाल-पोष
गमलों में रखते
शयन-कक्ष में,घर-आँगन में
धीरे-धीरे फ़ैल-फ़ैल कर
शयन-कक्ष से, घर से बढ़ कर
गली-गली में बढ़ते -बढ़ते
हो जाता संपूर्ण शहर
जंगल ही जंगल
कांक्रीट का जंगल
-- --- --
कांक्रीट के जंगल में
आता नहीं वसंत
बस आते कौओं के झुंड
गिध्धों की टोली
नहीं गूंजती कोयल बोली
गूंजा करते बम्ब धमाके
बंदूकों की गोली
फूल पलाश के लाल नहीं दिखते हैं
रंग देते हैं हमी शहर के दीवारों को
लाल-रंग से खून के छीटें
नहीं सुनाती संगीत हवाएं
मादक द्रव्य सेवन करते
हमी नाचते झूमे-गाएं
हमी मनाते गली-शहर
दिग-दिगंत ,अपना वसंत
-----
सच है यह भी
इस जंगल के मध्य अवस्थित
कहीं एक छोटा -सा उपवन
नंदन -कानन
छोटा-सा पोखर ,शीतल-जल,मन-भावन
अति पावन
पास वहीं केसर की क्यारी
महक रही है
हरी मखमली घास चुनरिया
पसरी फैली हुई लताएँ
अल्हड़ युवती -सी
महकी -महकी हुई हवाएं रजनी-गंधा सी
काश ! कि यह छोटा उपवन
फ़ैल-फ़ैल जंगल हो जाता
जन-जन का मंगल हो जाता
-आनन्द पाठक--
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
कविता 1[02]:आप क्यों उदास रहते हैं ?
कविता 01[02]
आप क्यों उदास रहते हैं ?
अतीत की कोई
अनकही व्यथा दर्द
आंखों में उतर आता है
नीरव आंखो की दो-बूंद
सागर की अतल गहराइयों से
कहीं ज्यादा गहरा
कहीं ज्यादा अगम्य हो जाता है
आप के अंतस का दावानल
सूर्य की तपती किरणों से
कहीं ज्यादा तप्त व दग्ध हो जाता है
उदासी का यह चादर फेंक दे अनंत में
और देखें अनागत वसंत
लहरों का उन्मुक्त प्रवाह
जिन्दगी के सुगंध
जो आप के आस-पास रहते हैं
फिर आप क्यों उदास रहते हैं
आप क्यों उदास रहते हैं
-आनन्द.पाठक-
अतीत की कोई
अनकही व्यथा दर्द
आंखों में उतर आता है
नीरव आंखो की दो-बूंद
सागर की अतल गहराइयों से
कहीं ज्यादा गहरा
कहीं ज्यादा अगम्य हो जाता है
आप के अंतस का दावानल
सूर्य की तपती किरणों से
कहीं ज्यादा तप्त व दग्ध हो जाता है
उदासी का यह चादर फेंक दे अनंत में
और देखें अनागत वसंत
लहरों का उन्मुक्त प्रवाह
जिन्दगी के सुगंध
जो आप के आस-पास रहते हैं
फिर आप क्यों उदास रहते हैं
आप क्यों उदास रहते हैं
-आनन्द.पाठक-
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
मंगलवार, 6 नवंबर 2007
साबुनी दोहे
नशा चढ़ गया फिल्म का ,टूटा उनका मौन
हर कन्या से पूछते 'हम आप के कौन'
'चारित्रिक व्यक्तित्व ' पर जो कीचड़ लग जाय
'सर्फ़-अल्ट्रा ' से धोइए श्वेत धवल होई जाय
साबुन मल मल जग मुआ धवल वस्त्र ना होय
हाथ ओ०के० मल्यो धवल धवल ही होय
लड़की देखन जाइहाओ वस्त्र लिहाओ चमकाय
हरा डटटर्जेंट व्हील का इज्ज़त लेय बचाय
सुपर सर्फ़ से धुल गयो ,भ्रष्टाचार लकीर
दाग ढूँढते रह गए साधू-संत-फकीर
हर कन्या से पूछते 'हम आप के कौन'
'चारित्रिक व्यक्तित्व ' पर जो कीचड़ लग जाय
'सर्फ़-अल्ट्रा ' से धोइए श्वेत धवल होई जाय
साबुन मल मल जग मुआ धवल वस्त्र ना होय
हाथ ओ०के० मल्यो धवल धवल ही होय
लड़की देखन जाइहाओ वस्त्र लिहाओ चमकाय
हरा डटटर्जेंट व्हील का इज्ज़त लेय बचाय
सुपर सर्फ़ से धुल गयो ,भ्रष्टाचार लकीर
दाग ढूँढते रह गए साधू-संत-फकीर
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
क्षणिका 02
क्षणिका 02 [हास्य]
अपनी कन्या की शादी का
विज्ञापन छपवाया
लेखन कुछ ऐसा बनवाया
'वर चाहिए'
'रचना' मेरी स्वरचित मौलिक
अब तक नहीं प्रकाशित
इसी लिए रह गई आज तक
क्वारी अविवाहित
विज्ञापन के तथ्य यदि शंकित है
मौलिकता का प्रमाण-पत्र
'रचना ' के पृष्ठ भाग पर
अंकित है
-----०----०
किसी पत्र के संपादक ने
हामी भर दी
कवि जी ने शादी कर दी
एक साल के बाद
संपादक ने
धन्यवाद के साथ
खेद सहित
'रचना ' वापस कर दी।
और लिख दिया
रचना सुन्दर अति-श्रेष्ठ है
उम्र में हम से वरिष्ठ है
छप नही सकती
अन्य कोई हो छोटी रचना यदि आप की
तो शायद खप सकती है
-----०----०
किसी पत्र के संपादक ने
हामी भर दी
कवि जी ने शादी कर दी
एक साल के बाद
संपादक ने
धन्यवाद के साथ
खेद सहित
'रचना ' वापस कर दी।
और लिख दिया
रचना सुन्दर अति-श्रेष्ठ है
उम्र में हम से वरिष्ठ है
छप नही सकती
अन्य कोई हो छोटी रचना यदि आप की
तो शायद खप सकती है
-आनन्द.पाठक-
Labels:
क्षणिका
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
क्षणिका 01
क्षणिका 01[हास्य]
सतवाँ जनम यही है
'सुनते हैं जी !
कल शाम मंदिर में मैंने
क्या माँगा था ?
सात जनम तक पति रुप में
तुम को पाऊ
चरणों की सेवा कर
जीवन सफल बनाऊँ" ।
मैंने बोला " भाग्यवान !
एक बात तो तुम ने कही सही है।
छः जनम तो बीत चुका है
सतवाँ जनम यही है ।
-आनन्द.पाठक-
Labels:
क्षणिका
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
गुरुवार, 1 नवंबर 2007
चुनावी दोहे ०४
टी वी पर दिखने लगे , हरे-भरे से खेत
मौसम आम चुनाव का ,लगता है संकेत
लिए कटोरा हाथ में ,पांच साल के बाद
मुझ गरीब को कह रहे स्वामी मालिक नाथ
जनता की आवाज़ है लोकतंत्र की भीत
राजनीति के शास्त्र में सुटकेश की जीत
मस्जिद -मन्दिर में फंसी मतदाता की टांग
कुर्सी के व्यापार में कैसे -कैसे स्वांग
मैडम अम्मा श्री चरण कंठी माला सौंप
टिकट अवश्य मिल जाएगा फिर काहे का खौफ
माथा टेकत-टेकते सिल पर परो निशान
बिना रीढ़ वाले भी अब चलते सीना तान
निर्दल को न जिताइए मोटा जिसका पेट
लंगडी जब सरकार हो ऊँचा कर दे रेट
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद)
मौसम आम चुनाव का ,लगता है संकेत
लिए कटोरा हाथ में ,पांच साल के बाद
मुझ गरीब को कह रहे स्वामी मालिक नाथ
जनता की आवाज़ है लोकतंत्र की भीत
राजनीति के शास्त्र में सुटकेश की जीत
मस्जिद -मन्दिर में फंसी मतदाता की टांग
कुर्सी के व्यापार में कैसे -कैसे स्वांग
मैडम अम्मा श्री चरण कंठी माला सौंप
टिकट अवश्य मिल जाएगा फिर काहे का खौफ
माथा टेकत-टेकते सिल पर परो निशान
बिना रीढ़ वाले भी अब चलते सीना तान
निर्दल को न जिताइए मोटा जिसका पेट
लंगडी जब सरकार हो ऊँचा कर दे रेट
(प्रकाशित राजस्थान पत्रिका अहमदाबाद)
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007
चुनावी दोहे 02....
नेता ऐसा चाहिऐ , जैसे सूप सुहाय
चन्दा ,चन्दा गहि रहे ,पर्ची देइ उड़ाय
नेता जी बूझन लगे ,अब अदरक के स्वाद
वोट उगाने मे लगे. दे ’जुमले’ की खाद
सत्ता जिसकी सहचरी , कुर्सी हुई रखेल
ऐसे नेता घूमते , डाल कान में तेल
नेता से टोपी भली ,ढँक ले सारा पाप
नौकरशाही अनुचरी ,आगे आगे आप
वैसे छाप अँगूठ थे ,निर्वाचन के पूर्व
जब से मंत्री बन गए, भये ज्ञान के सूर्य
सूटकेस भर चल दिए . लिए सुदामा भेंट
द्वापर से कलियुग हुआ, अब दिल्ली का रेट
बलत्कार बढ़ने लगे, लूट-पाट में वृद्धि -
नेता कोई हो रहा ,आसपास में सिद्ध
-आनन्द.पाठक-
[सं 18-08-18]
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
बुधवार, 17 अक्तूबर 2007
चुनावी दोहे 01
नेता जी बाटन लगे , लड्डू चूरन नोट -
लगता है फिर आ गया, बेमौसम फिर वोट
स्थायी सरकार की, बात करे है लोग
मेरी गुरबत को किये ,जो स्थाई लोग
सामाजिक इन्साफ की, ऐसे देते हाँक
नफ़रत फैली शहर में ,गाँव गाँव में पाँक
दल बदली करने लगे ,तपे तपाये लोग
बात कहाँ आदर्श की,अवसरवादी योग
लोकसभा देने लगी ,निर्वाचन की टेर
एक जगह जुटने लगे,कोआ -हंस-बटेर
’गाँधी टोपी’ पहन कर, निर्वाचन कम्पेन
शाम 'ताज' "डीनर" करें , लिए हाथ 'शेम्पेंन’
जिसने जितनी बेंच दी ,'टोपी' और 'जमीर '
राजनीति में हो गयी , उतनी ही जागीर
लँगड़ा है ’स्केट’ पर ,अँधा लिए कमान
गूंगा गुंगियाता फिरे, भारत देश महान
-आनन्द.पाठक-
[सं 18-08-18]
Labels:
दोहे
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
गुरुवार, 16 अगस्त 2007
शरणम श्रीमती जी
यह मेरा प्रथम व्यंग संग्रह है .इस संग्रह का प्रकाशन "अयन प्रकाशन १/२० ,मेहरौली दिल्ली ११००३० " .मूल्य १२५/-
दर्द के कई रूप होते हैं । जब समग्र दर्द एकाकार हो जाता है तो कोई आयाम नहीं रहता ,कोई रंग नहीं रहता ,आंसू बन जाता है ,फिर वह आंसू चाहे आप की आंखो से बहे या गालिब की आंखो से ,एक रंग हो जाता है । अभिव्यक्ति की शैली ,विधा मात्र के अन्तर से पीडा का मूल्यांकन कम हो उचित नहीं ।
व्यक्ति समाज की मूळ इकाई है .यह संभव नही कि समाज का परिवेश प्रभावित हो और व्यक्ति का व्यक्तित्व अप्रभावित रहे .यदि सामाजिक व्यवस्था में विकृतियाँ व्याप्त हो रहीं हो तो व्यक्ति का सोच प्रभावित होना तय है । दुषप्रभाव के प्रति आंख मूंद लेने से एक संवेदन शून्यता पैदा होती है । जब यही विरूपण की पीडा मानवीय संवेदंशीलामना व्यक्ति महसूस करता है तो प्रस्फुटित होती है एक कविता ,एक ग़ज़ल ,एक कहानी ,एक व्यंग . जन्म लेता है एक वाल्मीकि ।
व्यंग एक आईना है.यह आप पर निर्भर करता है कि आप अपना रूप निहारते हैं ,संवारते हैं या हाथ में पत्थर उठाते हैं .इन्ही सब भावनाओं से मैंनें एक अकिंचन प्रयास किया है ।
पुस्तक के सभी व्यंग को इस साईट पर लिखना संभव तो नही ,पर मैं प्रयास करूंगा कि कुछ चुनिंदा व्यंग आप के समक्ष प्रस्तुत करूं ।
इस संग्रह में २८ व्यंगों का संकलन है :-
दर्द के कई रूप होते हैं । जब समग्र दर्द एकाकार हो जाता है तो कोई आयाम नहीं रहता ,कोई रंग नहीं रहता ,आंसू बन जाता है ,फिर वह आंसू चाहे आप की आंखो से बहे या गालिब की आंखो से ,एक रंग हो जाता है । अभिव्यक्ति की शैली ,विधा मात्र के अन्तर से पीडा का मूल्यांकन कम हो उचित नहीं ।
व्यक्ति समाज की मूळ इकाई है .यह संभव नही कि समाज का परिवेश प्रभावित हो और व्यक्ति का व्यक्तित्व अप्रभावित रहे .यदि सामाजिक व्यवस्था में विकृतियाँ व्याप्त हो रहीं हो तो व्यक्ति का सोच प्रभावित होना तय है । दुषप्रभाव के प्रति आंख मूंद लेने से एक संवेदन शून्यता पैदा होती है । जब यही विरूपण की पीडा मानवीय संवेदंशीलामना व्यक्ति महसूस करता है तो प्रस्फुटित होती है एक कविता ,एक ग़ज़ल ,एक कहानी ,एक व्यंग . जन्म लेता है एक वाल्मीकि ।
व्यंग एक आईना है.यह आप पर निर्भर करता है कि आप अपना रूप निहारते हैं ,संवारते हैं या हाथ में पत्थर उठाते हैं .इन्ही सब भावनाओं से मैंनें एक अकिंचन प्रयास किया है ।
पुस्तक के सभी व्यंग को इस साईट पर लिखना संभव तो नही ,पर मैं प्रयास करूंगा कि कुछ चुनिंदा व्यंग आप के समक्ष प्रस्तुत करूं ।
इस संग्रह में २८ व्यंगों का संकलन है :-
Labels:
पुस्तक परिचय
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
बुधवार, 15 अगस्त 2007
अभी संभावना है ...
प्रिय मित्रों !
गजलों एवं गीतों का यह संग्रह मेरी दूसरी प्रकाशित कृति है । इस पुस्तक का भी प्रकाशन "अयन प्रकाशन ' १/२० मेहरौली नई दिल्ली ११००३० " ने किया हे । मूल्य रु १२५/-।
हिंदी में गजल को नया आयाम मिला है । अब ग़ज़ल हुस्न -ओ -इश्क ,सागरों-ओ-मीना ,साकी -मयखाना ,बुलबुल-ओ-सैयाद,गुलो-गुलशन से निकल कर बहुत दूर तक आ गई है । अब तो ग़ज़ल आज की राजनेतिक विसंगतियों पर ,सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करती नजर आती है ,बेबाक राय देती है । आम आदमी को जगाती है ,जगाने को बाध्य करती है ।
सूली पर टंगा हुआ आदमी ,सर पर 'संविधान ' उठाए चौराहे पर खडा
'बुधना' ,फुटपाथ से फुटपाथ तक सारी जिन्दगी का सफ़र तय करता हुआ
'मंगरू' .बिन व्याही बेटी के बापू की गिरवी रखी हुई पगडी ,कोठी में मिलती 'छमिया' की लाश और 'हरिया ' को होती सजा ,सडको पर उतरती भीड़ को गोलिओं से समझाने की भाषा ,नागफनी से चुभते लोग ,पैसों से खरीदते बाहुबली कायदे कानून की धज्जियाँ उडाते राजनेताओं का बेदाग साफ बच निकलना क्या एक लंगडी व अपाहिज व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न नही लगाते ?क्या हम तटस्थ रह कर और मात्र मूक-दर्शक बन कर इस प्रदूषण में पाप के भागी नहीं बन रहे हैं ।
सच है । यह सब हम -आप को पता है परन्तु अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है .अभी संभावना है .काफी संभावना है .आवश्यकता है तो एक समर्थ प्रयास की .एक ईमानदार कोशिश की ॥
इस संग्रह में ६६ गज़ल एवं २१ गीतों का संकलन है
Labels:
पुस्तक परिचय
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
सदस्यता लें
संदेश (Atom)