शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025
अनुभूतियाँ 173/60
अनुभूतियाँ 172/59
अनुभूतियाँ 172/59
685
बंजारों-सा यह जीवन है
साथ चला करती है माया
साथ साँस जैसे चलती है
जहाँ जहाँ चलती है काया
686
समय कहाँ रुकता है, प्यारे !
धीरे धीरे चलता रहता ।
अपने कर्मों का जो फ़ल हो
इसी जनम में मिलता रहता ।
687
प्यास मिलन की क्या होती है
भला पूछना क्या आक़िल से
वक़्त मिले तो कभी पूछना
किसी तड़पते प्यासे दिल से ।
688
मन का जब दरपन ही धुँधला
खुद को कैसे पहचानोगे ?
राह ग़लत क्या, राह सही क्या
आजीवन कैसे जानोगे ?
-आनन्द.पाठ्क-
[ आक़िल = अक्ल वाला ]
गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025
अनुभूतियाँ 171/58
अनुभूतियां~ 171/58
681
जीवन चलता रहता अविरल
कहीं कठिन पथ, कहीं सरल है
जीवन इक अनबूझ पहेली
कभी शान्त मन ,कभी विकल है ।
682
सोन चिरैया रोज़ सुनाती
अपनी बीती नई कहानी
कभी सुनाती खुल कर हँस कर
कभी आँख में भर कर पानी ।
683
जब से तुम वापस लौटी हो
लौटी साथ बहारें भी हैं ।
चाँद गगन में अब हँसता है
साथ हँस रहे तारे भी हैं ।
684
अगर समझ में कमी रही तो
कब तक रिश्ते बने रहेंगे
स्वार्थ अगर मिल जाए इसमे
कब तक रिश्ते बचे रहेंगे ।
रविवार, 23 फ़रवरी 2025
रिपोर्ताज 15 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25
रिपोर्ताज 15 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25
मित्रो ! \
अजय कुमार शर्मा "अज्ञात ’सोशल मीडिया, साहित्यिक मंचों का एक जाना पहचाना नाम है । आप एक साहित्यिक संस्था ; परवाज-ए-ग़ज़ल’ के संस्थापक है ।एक साहित्य- प्रेमी, एक ग़ज़लकार है और कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुके हैं। आप लगभग एक दर्जन साझा-संकलन का सम्पादन कर चुके हैंऔर आप के स्वयं के कई गज़ल संग्रह/ काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
आप द्वारा संपादित नवीनतम साझा ग़ज़ल संग्रह -"हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें-मंज़र-ए-आम हो चुकी है जिसमें हरियाणा के गण्यमान/उदीयमान गज़लकारों के गज़लें संग्रहित है । यह उनका प्रेम ही कहिए कि इस संग्रह में इस हक़ीर की भी एक ग़ज़ल संकलित है।
आज दिनांक 23-02-2025 को अजय ’अज्ञात ’ जी स्वयं चल कर मेरे निवास स्थान ’ गुड़गाँव’ पर पधारे और "हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें" एक प्रति अपने हाथों से मुझे भेंट की। साथ ही अपनी दो और किताबे--हमराह [ ग़ज़ल संग्रह] और गुहर-ए-नायाब [ सह-स्म्पादित]भी भेट की।
निश्चय ही यह मेरे लिए गौरव और सम्मान का क्षण था। एक विशेष गौरवानुभूति हुई।
इन संग्रहो को फ़ुरसत में विस्तार से पढ़ूँगा और अपनी राय भी दूंगा। प्रथम दॄष्टया यह तो स्पष्ट है कि यह कार्य इतना आसान नहीं होता जितना देखने में लगता हैइससे आप की लगन ,गहराई, निस्वार्थ परिश्रम, अभिरुचि का परिचय मिलता है। आप ऐसे ही साहित्य जगत की निस्वार्थ सेवा करते रहें, मेरी शुभकामना है।
आप की संस्था-परवाज़-ए-ग़ज़ल [जो ग़ज़ल विधा की पूर्णतया समर्पित संस्था है ] उत्तरोत्तर प्रगति पर अग्रसरित रहे और परवाज की बुलंदिया हासिल करती रहे यही मेरी कामना है।
इस संक्षिप्त मुलाकात में ग़ज़ल लेखन के दशा-दिशा की चर्चा के साथ साथ अन्य विषयों पर भी चर्चा हुई ख़ास तौर पर अरूज़ पर।
इन मुलाक़ात के क्षणॊं के कुछ चित्र लगा रहा हूँ
-आनन्द.पाठक-
शनिवार, 22 फ़रवरी 2025
ग़ज़ल 430 [04G ] : यह झूठ की दुनिया ,मियां !
ग़ज़ल 430 [04-G)
2212---2212
यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !
सच है यहाँ बे आशियाँ ।
क्यों दो दिलों के बीच की
घटती नहीं है दूरियाँ ।
बस ख़्वाब ही मिलते इधर
मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।
इस ज़िंदगी के सामने
क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।
हर रोज़ अब उठने लगीं
दीवार दिल के दरमियाँ ।
तुम चंद सिक्कों के लिए
क्यों बेचते आज़ादियाँ ।
किसको पड़ी देखें कभी
’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।
-आनन्द.पाठक-
बुधवार, 19 फ़रवरी 2025
अनुभूतियाँ 170/57
माहिया गायन [02] होली पर: डा0 अर्चना पाण्डेय की आवाज़ में
माहिया गायन [02] : डा0 अर्चना पाण्डेय की आवाज़ में
मित्रो !
इस मंच पर और अन्य साहित्यिक मंच पर ,समय समय पर अपने माहिए लगाता रहता हूं।
आज उन्ही माहियों में से मेरे कुछ माहियों का सस्वर पाठ डा0 अर्चना पांडेय जी ने अपनी आवाज़ मे किया है।मेरे माहियों को स्वर दिया है ।
जो आप लोगो के श्रवणार्थ और टिप्पणी हेतु इस मंच पर लगा रहा हूँ~
https://youtu.be/-uWOt1CNo_o?si=JVKYW-HUhQmaz_V2डा0 अर्चना पाण्डेय लोकगीत गायिका स्वर साधिका भी हैं। कई मंचों से और कई पुरस्कारों से सम्मानित भी
हो चुकी है और कई साझा काव्य संग्रह का संपादन भी कर चुकी है। सम्प्रति आप एक केन्द्रीय विभाग हैदराबाद के राजभाषा हिंदी अधिकारी पद पर
कार्यरत हैं
डा0 अर्चना पांडेय जी को इस सत्प्रयास को मेरी सतत शुभ कामनाएं॥
आप लोग भी अपनी राय दें।
सादर
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 169/56
अनुभूतियाँ 169/56
673
ऐसे भी कुछ लोग मिलेंगे
ख़ुद को ख़ुदा समझते रहते
आँखों पर हैं पट्टी बाँधे
अँधियारों में चलते रहते ।
674
दिल जो कहता, कह लेने दो
कहने से मत रोको साथी !
दीपक अभी जला रहने दो
रात अभी ढलने को बाक़ी
675
माना राह बहुत लम्बी है
हमको तो बस चलना साथी
जो रस्मे हों राह रोकती
मिल कर उन्हे बदलना साथी
676
नीड बनाना कितना मुश्किल
उससे मुश्किल उसे बचाना
साध रही है दुनिया कब से
ना जाने कब लगे निशाना ।
-आनन्द पाठक-
मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025
माहिया गायन [01] : डा0 अर्चना पाण्डेय की आवाज़ में
माहिया गायन [01] : डा0 अर्चना पाण्डेय की आवाज़ में
मित्रो !
इस मंच पर और अन्य साहित्यिक मंच पर ,समय समय पर अपने माहिए लगाता रहता हूं।
आज उन्ही माहियों में से मेरे कुछ माहियों का सस्वर पाठ डा0 अर्चना पांडेय जी ने अपनी आवाज़ मे किया है।मेरे माहियों को स्वर दिया है ।
जो आप लोगो के श्रवणार्थ और टिप्पणी हेतु इस मंच पर लगा रहा हूँ~
https://youtu.be/Yj3uatWB9YI?si=3_7oVjpEbrHCDXeP
डा0 अर्चना पाण्डेय लोकगीत गायिका स्वर साधिका भी हैं। कई मंचों से और कई पुरस्कारों से सम्मानित भी
हो चुकी है और कई साझा काव्य संग्रह का संपादन भी कर चुकी है। सम्प्रति आप एक केन्द्रीय विभाग हैदराबाद के राजभाषा हिंदी अधिकारी पद पर
कार्यरत हैं
डा0 अर्चना पांडेय जी को इस सत्प्रयास को मेरी सतत शुभ कामनाएं॥
आप लोग भी अपनी राय दें।
सादर
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 168/55
अनुभूतियाँ 168/55
669
मुक्त हंसी जब हँसती हो तुम
हँस उठता है उपवन मधुवन
कोयल भी गाने लगती है
और हवाएँ छेड़े सरगम ।
670
मछली जाल बचा कर निकले
लेकिन कब तक बच पाती है
प्यास अगर दिल में जग जाए
स्वयं जाल में फँस जाती है ।
671
अवसरवादी लोग जहाँ हों
ढूँढा करते रहते अवसर
स्वार्थ प्रबल उनके हो जाते
धोखा देते रह्ते अकसर
672
कितनी बार लड़े, झगड़े हम
रूठे और मनाए भी हैं ।
विरह वेदना में रोए तो
गीत खुशी के गाए भी हैं।
-आनन्द.पाठक-
रविवार, 16 फ़रवरी 2025
व्यंग्य वाचन : डा0 अर्चना पाण्डेय की आवाज में : वेलेन्टाइन डे: चौथी कसम
मित्रो !
पिछले दिनों इसी मंच पर अपनी एक व्यंग्य व्यथा : वैलेन्टाइन डे :चौथी कसम : लगाई थी
जिसका वाचन हिंदी कवयित्री और लेखिका डा0 अर्चना पांडेय जी ने अपनी आवाज़ मे किया है
जो आप लोगो के श्रवणार्थ और टिप्पणी हेतु इस मंच पर लगा रहा हूँ।
जिसका ’लिंक; नीचे लगा रहा हूँ
https://www.youtube.com/watch?v=3PpjoJ1GUMA
यह उनका प्रथम प्रयास है।
वैसे हिंदी मंच से व्यंग्य वाचन परम्परा कभी प्रसिद्ध व्यंग्यकार आ0[स्व0] के0पी0 सक्सेना जी और
आ0 [ स्व0] शरद जोशी जी ने शुरु किया था ,मगर यह विधा परवान न चढ़ सकी।
संप्रति, प्रसिद्ध व्यंग्यकार आ0 सम्पत सरल जी ने इसे कुछ हद तक इसे जीवन्त बनाए रखा है और यू-ट्यूब पर बहुत सी उनकी
कड़ियां उपलब्ध हैं। देखा जा सकता है।
उर्दू साहित्य में वैसे यह परम्परा "दास्तानगोई" या "किस्सागोई बहुत पहले थी । अब यह परम्परा धीरे धीरे लुप्त
होती जा रही है।
इसी परम्परा की नव वाहिका डा0 अर्चना पांडेय जी को इस प्रथम प्रयास को मेरी सतत शुभ कामनाए॥आप लोग भी अपनी राय दें।
सादर
-आनन्द.पाठक-
गीत 90: बादलों के पंख पर
गीत 90 : बादलों के पंख पर ---
2122---2122---2122---2122
बादलों के पंख पर मैं जब प्रणय के गीत लिखता
काल की निष्ठुर हवाएँ, क्यों मिटा देती हैं हँस कर
अब तो यादें शेष हैं बस, उन सुखद बीते दिनों की
जब कभी हम-तुम मिला करते थे मधुमय चाँदनी में
पूछती हैं अब लताएँ जो कभी साक्षी बनी थी
" क्या हुई थी बात तुमसे उन दिनों की यामिनी में ?"
आशियाने पर ही मेरे क्यॊ गिरा करती है बिजली
हादिसे क्यों साथ मेरे ही हुआ करते हैं अकसर ।
क्यों नहीं भाता जगत को प्रेम की भाषा मनोहर
क्यों हमेशा देखता है प्रेम को दूषित नयन से ।
डाल पर बैठे हुए जब दो विहग दुख बाँटते हैं
सोचने लगती है दुनिया क्या न क्या अपने ही मन से
आँधियों से जूझ कर जब आ गई कश्ती किनारे
लोग साहिल पर खड़े क्यों हाथ में ले ईंट-पत्थर ।
छोड़ कर जब से गई तुम कुछ कहे बिन, कुछ सुने बिन
फिर न उसके बाद कोई स्वप्न जागा, चाह जागी
शून्य में जब ढूँढता हूँ मैं कभी चेहरा तुम्हारा
दूर तक जाती नज़र है, लौट कर आती अभागी ।
रात की तनहाइयों में जब कभी तुमको पुकारा
साथ देने आ गए तब चाँद-तारे भी उतर कर ।
बादलों के पंख पर जब----
-आनन्द.पाठक-
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025
अनुभूतियाँ 167/54
अनुभूतियाँ 167/54
665
लोग समझते रहे हमेशा
अपनी अपनी ही नज़रों से
तौल रहे है प्रेम हमारा
काम-वासना के पलड़ों से।
666
नहीं भुलाने वाली बातें
तुम्ही बता दो कैसे भूलें ?
माना हाथ हमारे बौने
चाह मगर थी, तुमको छू लें।
667
ऊषा की तुम प्रथम किरण बन
आती हो जब द्वार हमारे ,
खुशबू से भर जाता आँगन
खिल जाते हैं सपने सारे ।
668
आशा और निराशा के संग
तुमने जितना पिया अँधेरा
एक अटल विश्वास प्रबल था
तब जा कर यह हुआ सवेरा ।
-आनन्द.पाठक--
ग़ज़ल 429[03G] : ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसिला है
ग़ज़ल 429 [03 G]
2122---2122---2122-
फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम
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ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसि्ला है्
यह किसी के चाहने से कब रुका है ?
वक़्त अपना वक़्त लेता है यक़ीनन
वक़्त आने पर सुनाता फ़ैसला है ।
कौन सा पल हो किसी का आख़िरी पल
हर बशर ग़ाफ़िल यहाँ , किसको पता है ।
कारवाँ का अब तो मालिक बस ख़ुदा ही
राहबर जब रहजनों से जा मिला है ।
रोशनी का नाम देकर् हर गली ,वो
अंध भक्तों को अँधेरा बेचता है ।
आप की अपनी सियासत, आप जाने
क्या हक़ीक़त है, ज़माना जानता है ।
वह अना की क़ैद से बाहर न आया
इसलिए ख़ुद से अभी नाआशना है
वक़्त हो तो सोचना फ़ुरसत में ’आनन’
मजहबी इन नफ़रतों से क्या मिला है ।
-आनन्द.पाठक-