गीत 90 : बादलों के पंख पर ---
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बादलों के पंख पर मैं जब प्रणय के गीत लिखता
काल की निष्ठुर हवाएँ, क्यों मिटा देती हैं हँस कर
अब तो यादें शेष हैं बस, उन सुखद बीते दिनों की
जब कभी हम-तुम मिला करते थे मधुमय चाँदनी में
पूछती हैं अब लताएँ जो कभी साक्षी बनी थी
" क्या हुई थी बात तुमसे उन दिनों की यामिनी में ?"
आशियाने पर ही मेरे क्यॊ गिरा करती है बिजली
हादिसे क्यों साथ मेरे ही हुआ करते हैं अकसर ।
क्यों नहीं भाता जगत को प्रेम की भाषा मनोहर
क्यों हमेशा देखता है प्रेम को दूषित नयन से ।
डाल पर बैठे हुए जब दो विहग दुख बाँटते हैं
सोचने लगती है दुनिया क्या न क्या अपने ही मन से
आँधियों से जूझ कर जब आ गई कश्ती किनारे
लोग साहिल पर खड़े क्यों हाथ में ले ईंट-पत्थर ।
छोड़ कर जब से गई तुम कुछ कहे बिन, कुछ सुने बिन
फिर न उसके बाद कोई स्वप्न जागा, चाह जागी
शून्य में जब ढूँढता हूँ मैं कभी चेहरा तुम्हारा
दूर तक जाती नज़र है, लौट कर आती अभागी ।
रात की तनहाइयों में जब कभी तुमको पुकारा
साथ देने आ गए तब चाँद-तारे भी उतर कर ।
बादलों के पंख पर जब----
-आनन्द.पाठक-
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