बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 170/57

अनुभूतियाँ 170/57

677
तुम क्या जानो विरह वेदना
जिसने देखी नहीं जुदाई
होठो पर हो हास भले ही
आँख विरह मे तो भर आई

678
बहुत दिनों के बाद मिली हो
लौट के आया है यह शुभ दिन
भला बुरा जो भी हो कहना
कह लेना फिर और किसी दिन

679
छोड़ो जाने दो, रहने दो
वही दिखावा, वही बहाना
अपने ही दिल की बस सुनना
मेरे दिल को कब पहचाना 

680
तुम गमलों में पली हुई हो
तुम्हे सदा मिलती है छाया
नंगे पाँव चला हूँ अबतक
मैं तपते सहरा से आया ।

-आनन्द.पाठक-

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