अनुभूतियाँ 172/59
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बंजारों-सा यह जीवन है
साथ चला करती है माया
साथ साँस जैसे चलती है
जहाँ जहाँ चलती है काया
686
समय कहाँ रुकता है, प्यारे !
धीरे धीरे चलता रहता ।
अपने कर्मों का जो फ़ल हो
इसी जनम में मिलता रहता ।
687
प्यास मिलन की क्या होती है
भला पूछना क्या आक़िल से
वक़्त मिले तो कभी पूछना
किसी तड़पते प्यासे दिल से ।
688
मन का जब दरपन ही धुँधला
खुद को कैसे पहचानोगे ?
राह ग़लत क्या, राह सही क्या
आजीवन कैसे जानोगे ?
-आनन्द.पाठ्क-
[ आक़िल = अक्ल वाला ]
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