शनिवार, 24 नवंबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 55

चन्द माहिया : क़िस्त 55

1
जब जब घिरते बादल
प्यासी धरती क्यों
होने लगती पागल ?

:2:
भूले से कभी आते
मेरी दुनिया में
वादा तो निभा जाते

:3:
इस मन में उलझन है
धुँधला है जब तक
यह मन का दरपन है

:4:
जब छोड़ के जाना था
फिर क्यों आए थे ?
क्या दिल बहलाना था?

:5:
अब और कहाँ जाना
तेरी आँखों का
यह छोड़ के मयखाना

-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

ग़ज़ल 108[51] : वक़्त सब एक सा नहीं होता---

एक ग़ज़ल :

2122---1212---22
वक़्त सब एक सा  नहीं होता
सुख हो दुख , देरपा नहीं होता

आदमी है,गुनाह  लाज़िम है
आदमी तो ख़ुदा  नहीं  होता

एक ही रास्ते से जाना  है
और फिर लौटना नहीं होता

किस ज़माने की बात करते हो
कौन अब बेवफ़ा नहीं  होता ?

हुक्म-ए-ज़ाहिद पे बात क्या कीजै
इश्क़ क्या है - पता नहीं  होता

लाख माना कि इक भरम है मगर
नक़्श दिल से जुदा नहीं होता

बेख़ुदी में कहाँ ख़ुदी ’आनन’
काश , उन से मिला नहीं होता

-आनन्द.पाठक- 

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

ग़ज़ल 107[01] : एक समन्दर मेरे अन्दर----

बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़ूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आखिर
मूल   बह्र ------फ़ अ’ लु   -फ़ऊलु--फ़ऊलु---फ़ऊलुन
                          21---------121------121-------122
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ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...

एक  समन्दर ,  मेरे  अन्दर
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर

एक तेरा ग़म  पहले   से ही
और ज़माने का ग़म उस पर

तेरे होने का भी तसव्वुर
तेरे होने से है बरतर

चाहे जितना दूर रहूँ  मैं
यादें आती रहतीं अकसर

एक अगन सुलगी  रहती है
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर

प्यास अधूरी हर इन्सां  की 
प्यासा रहता है जीवन भर

मुझको ही अब जाना  होगा   
वो तो रहा आने  से ज़मीं पर 

सोन चिरैया  उड़ जायेगी     
रह जायेगी खाक बदन पर   

सबके अपने  अपने ग़म हैं
सब से मिलना’आनन’ हँस कर

-आनन्द पाठक-

[सं 30-06-19]