शुक्रवार, 31 मई 2024

ग़ज़ल 385 [49F] : औरों की तरह हाँ में मैने हाँ नही कहा

 ग़ज़ल 385[49F]

221---2121---1221---212


औरों की तरह "हाँ’ मे मैने "हाँ’ नहीं कहा

शायद इसीलिए मुझे पागल समझ लिया ।


लफ़्ज़ों के ख़ल्त-मल्त से  कुछ इस तरह कहा

जुमलों में जैसे फिर से नया रंग भर दिया ।


उसके तमाम झूठ थे तारीफ़ की मिसाल

मेरे तमाम सच को वो ख़ारिज़ ही कर दिया 


 वह आँख बन्द कर के कभी ध्यान में रमा

कुछ बुदबुदाया, भीड़ ने ’मन्तर’-समझ लिया।


गूँगी जमात की उसे जब बस्तियाँ दिखीं ,

 हर बार वह चुनाव में पहले वहीं  गया ।


’दिल्ली’  में जा के जब कभी गद्दीनशीं हुआ

घर के ही कोयले में  ’ज़वाहिर’ उसे दिखा  ।


कितनी अज़ीब बात थी सब लोग चुप रहे

’आनन’ ग़रीब था तो सरेआम लुट गया ।


-आनन्द.पाठक-

ख़ल्त-मत = फेट-फ़ाट , गड्म-गड्ड

सं 01-07-24


गुरुवार, 30 मई 2024

ग़ज़ल 384(48F) : जिंदगी और क्या सुनाना है

ग़ज़ल 384[48F]
2122---1212---22


ज़िंदगी! और क्या सुनाना है 
कर्ज़ तेरा हमे चुकाना है ।

ज़िंदगी दूर दूर ही रहती
पास अपने उसे बिठाना है ।

उनके आने की क्या ख़बरआई
फिर मिला जीने का बहाना है ।

बात दैर-ओ-हरम की क्या उनसे
जिनको उस राह पर न जाना है ।

रंग ऐसा चढ़ा नहीं उतरा
जानता क्या नहीं जमाना है

इन तक़ारीर के सबब क्या हैं
राज़ ही जब नही बताना  है ।

जो अँधेरों में अब तलक बैठे
उनके दिल में दिया जलाना है ।

बेसबब क्यों भटक रहा ’आनन’
दिल में ही उसका जब ठिकाना है ?

-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24
तक़ारीर =प्रवचन


ग़ज़ल 383(47F): जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी

 ग़ज़ल 383 [47F]

2122---2122---212


जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी

किस तरह उलझा हुआ है आदमी


ज़िंदगी भर द्वंद में जीता रहा-

अपने अंदर जो बसा है आदमी ।


सभ्यता की दोड़ में आगे रहा

आदमीयत खो दिया है आदमी


ज़िंदगी की सुबह में सूली चढ़ा

शाम में उतरा किया है आदमी ।


देखता है ख़ुद हक़ीक़त सामने

बन्द आँखें कर रखा है आदमी ।


पैर चादर से सदा आगे रही

उम्र भर सिकुड़ा किया है आदमी।


चाह जीने की है ’आनन’ जब तलक

मर के भी ज़िंदा रहा है आदमी ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


बुधवार, 29 मई 2024

ग़ज़ल 382[46F]: आप का शौक़ है एहसान जताए रखना

 ग़ज़ल 382[46F] 

2122---1122---1122--22


आप का शौक़ है एहसान जताए रखना

मेरी मजबूरी है रिश्तों को जगाए रखना।


आप की सोच में वैसे तो अभी ज़िंदा हूँ

वरना जीना है भरम एक बनाए रखना ।


सच को अर्थी न मिली, झूठ की बारात सजी

ऐसी बस्ती में बसे चीख दबाए रखना ।


जुर्म इतना था मेरा झूठ को क्यों झूठ कहा

जिसकी इतनी थी सज़ा,ओठ सिलाए रखना।


 इन अँधेरों मे कोई और न मुझ-सा भटके

कोई आए न सही दीप जलाए रखना ।


 कौन सी बात हुई व्यर्थ की बातों पर भी

आसमाँ हर घड़ी सर पर ही उठाए रखना।


राजदरबार में ’आनन’ भी मुसाहिब होता

शर्त इतनी थी कि बस सर को झुकाए रखना।


-आनन्द.पाठक- 

सं 01-07-24

मुसाहिब = दरबारी

ग़ज़ल 381[45F] : फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

 ग़ज़ल 381[45F]

2122---2122---2122--2 

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं]


फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

फिर नया करना बहाना छोड़िए, श्रीमन !


हम जो अंधे थे भुनाते आप थे सिक्के

खोटे सिक्कों का भुनाना छोड़िए, श्रीमन !


आप के जुमलों का सानी क्या कहीं होगा

हाथ पर सरसो उगाना छोडिए, श्रीमन !


सरफिरो की बस्तियाँ हैं, क्या ठिकाना है

हाथ में माचिस थमाना छोड़िए, श्रीमन !


आइना देखा कि शीशे का मकाँ देखा

देख कर पत्थर उठाना छोड़िए, श्रीमन !


बन्द कमरे में घुटन बढ़ने लगी कब से

खुशबुओं से तर बताना छोड़िए, श्रीमन !


जख़्म ’आनन’ के अगर जो भर नहीं सकते

फिर नमक इन पर लगाना छोड़िए, श्रीमन !


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


मंगलवार, 28 मई 2024

ग़ज़ल 380 [44F] : वह झूठ बोलता था मै

ग़ज़ल 380 [44F]

221 2121 1221 212

वह झूठ बोलता था मै, घबरा के रह गया
 सच बोलने को था कि मैं, हकला के रह गया

क्या शह्र का रिवाज़ था, मुझको नहीं पता
ऐसा जला कि हाथ मै सहला के रह गया

सुलझाने जब चला कभी हस्ती की उलझने
मै जिंदगी को और भी उलझा के रह गया

पूछा जो जिंदगी ने कभी हाल जो मेरा
दो बूँद आँसुओ की मै छलका के रह गया

डोरी तेरी तो और किसी हाथ मे रही
तू व्यर्थ अपने आप पे इतरा के रह गया

उससे उमीद थी  कि नई बात कुछ करे
लेकिन पुरानी बात ही दुहरा के रह गया 

'आनन' खुली न आँख अभी तक  तेरी जरा
खुद को खयाल-ए- खाम से बहला के रह गया

-आनन्द पाठक-
सं 30-06-24

शनिवार, 25 मई 2024

ग़ज़ल 379 [ 44-अ] : जब ग़रज़ उनकी तो रिश्तों --

 ग़ज़ल 379 [44-अ

2122---1122---1122---112/22


जब ग़रज़ उनकी, तो रिश्तों का सिला देते हैं

 काम मेरा जो पड़ा , मुझको भगा  देते हैं ।


उनके एहसान को मैने तो सदा याद रखा

मेरे एहसान को कसदन वो भुला देते हैं ।


आप के सर जो झुके बन्द मकानो में  झुके

मैने सजदा भी किया , सर को उड़ा देते हैं ।


आप का फ़र्ज़ यही है तो कोई बात नहीं

जुर्म किसने था किया मुझको सज़ा देते हैं ।


ज़िंदगी आज भी उनके ही क़सीदे पढ़ती

प्यार के नाम पे गरदन जो कटा देते  हैं ।


आप जो ख़ुश हैं तो मुझको न शिकायत कोई

वरना अब लोग कहाँ ऐसा सिला देते हैं ।


हार जब सामने उनको नज़र आती ’आनन’

और के सर पे वो इलज़ाम लगा देते हैं ।


-आनन्द.पाठक-



शुक्रवार, 24 मई 2024

ग़ज़ल 378 [ 60-अ] : ऐसी भी हो ख़बर कहीं अख़बार में लिखा--

 ग़ज़ल 378 [ 60-अ]

221---2121---1221---212


ऐसी भी हो ख़बर कोई अख़बार में लिखा ,

’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का है पता ।


समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,

जब इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।


बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह

इस शहर में’उसूल’ की गठरी उठा उठा।


जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,

मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।


हर सिम्त शोर सुन रहे हैं जंग-ए-अज़ीम का ,

इन्सानियत को तू भी  दिल-ओ-जान से बचा ।


मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे

अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।


क्यों तस्करों के शहर में ’आनन’ तू आ गया,

तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।


-आनन्द पाठक-


ग़ज़ल 377 [ 53-अ] : अज़ाब-ए-ज़िंदगी यूँ भी --

 

ग़ज़ल 377/ 53-अ 

1222---1222---1222---1222

अज़ाब-ए-ज़िंदगी, वैसे  सफ़र में कब रुका करते

मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी  सामना करते ।


ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं

बहुत से लोग अपने ही शराइत पर जिया करते ।


तुम्हारी ही सुनी ऎ ज़िंदगी ! जो भी कहा तुमने

हमारी भी सुनी होती तो कुछ हम भी कहा करते ।


गिरेंगी बिजलियाँ तय है कभी मेरे ठिकाने पर

हवादिश आशियाने पर मेरे अकसर हुआ करते।


कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,

तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।


कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी , हमने

तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।


नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -

जिन्हे करना वफ़ा ’आनन’ लब-ए-दम तक,किया करते।


-आनन्द.पाठक-


गुरुवार, 23 मई 2024

ग़ज़ल 376 [ 52-अ] : काश ! सूरत आप की असली नज़र आती


ग़ज़ल 376/ 52-अ

2122---2122---212---2

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं है।


काश ! सूरत आप की असली नज़र आती

आप की सदभावना,  झूठी  नज़र आती ।


वक़्य आने पर खड़े होंगे चलो , माना 

काश ! उनके रीढ़ की हड्डी नज़र आती ।


जब भी सुनते राग दरबारी सुना करते 

वेदना मेरी उन्हें गाली  नज़र  आती ।


आदमी की मुफ़लिसी हो या कि रंज़-ओ-ग़म

अब उन्हें हर बात में ;कुर्सी; नज़र आती ।


जब से ’दिल्ली’ जा के बैठे हो गए अंधे

क्यारियाँ सूखी भी हरियाली नज़र आती ।


हाथ धोने के लिए बेताब बैठे हैं ,

’योजना’-गंगा सी कुछ बहती नज़र आती ।


आदमी की जब कभी बोली लगी ’आनन’

’आदमीयत’ मुफ़्त में बिकती नज़र आती ।


-आनन्द.पाठक-





ग़ज़ल 375 [51-अ] : बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब


ग़ज़ल 375/ 51-अ

221---2121---1221---212[1]


बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब 

या तो नक़ाबपोश है या फिर है बेनिक़ाब


जिस आदमी की खुद की कभी रोशनी नहीं

औरों की रोशनी से चमकता है लाजवाब ।


सत्ता के जोड़-तोड़ में वह बेमिसाल है

उम्मीद कर रहें हैं कि लाएगा इन्क़िलाब ।


उस आदमी की डोर किसी और हाथ में

उड़ता है आसमान में उड़ता हे बेहिसाब।


वो झूठ को सच की तरह बोलता रहा

ऐसे ही लोग ज़िंदगी में आज कामयाब ।


उसकी नज़र में पहले तो शर्म-ओ-हया भी था

आता है सामने जो अब आता है बेहिजाब ।


’आनन’ जिधर भी देखिए हर शख़्स ग़मजदा

हर शख़्स की ज़ुबान पे तारी है ज़ह्र आब ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

इन्तिख़ाब = चुनाव

ज़ह्रआब = विष




बुधवार, 22 मई 2024

ग़ज़ल 374 [ 49-अ] : हम क़ैद में क्यों रहते

 ग़ज़ल 374

221---1222  // 221----1222


हम क़ैद में क्यों रहते, पिंजड़े में क्यों पलते

गर उनकी तरह हम भी, भेड़ों की तरह चलते ।


सच जान गए जितने ,आश्वस्त रहे उतने ,

वो झूठ के दम पर ही ,दुनिया को रहे छलते ।


बस कर्म किए जाना, होना है सो होगा ही

लिख्खे हैं जो क़िस्मत में ,टाले से कहाँ टलते ।


बिक जाते अगर हम भी, दुनिया तो नहीं रुकती

बस सर ही  झुकाना था, यह हाथ नहीं मलते ।


जुमलॊं से अगर सबको, गुमराह नहीं करते

आँखों में सभी  के तुम, सपनों की तरह पलते।


जीवन का यही सच है, चढ़ना है तो ढलना भी

सूरज भी यहाँ ढलता, तारे भी यहाँ ढलते ।


’आनन’ जो कभी तुमने, इतना तो किया होता

भटका न कोई होता,  दीपक सा अगर जलते ।


-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 21 मई 2024

ग़ज़ल 373 [ 48-अ] : सुनना ही नहीं उनको

 

ग़ज़ल 373 [48-अ]

221---1222//221---1222


सुनना ही नहीं उनको, क्या उनको सुनाना है

बहरों के मुहल्लों में , क्या शंख बजाना है ।


सावन में हुआ अंधा, हर रंग हरा दिखता ,

मानेंगा नहीं जब वो, क्या सच का बताना है


दावा तो यही करता, वह एक खुली पुस्तक

हर पेज फटा जिसका, क्या है कि पढ़ाना है।


एहसान फ़रामोशी , रग रग में भरी उसके

वह जो भी कहे चाहे , सब झूठ बहाना है ।


चाबी का खिलौना है, चाबी से चला करता

जितनी हो ज़रूरत बस , उतना ही चलाना है।


मालूम सभी को है, है रीढ़ नहीं उसकी 

किस ओर ढुलक जाए, क्या उसका ठिकाना है ।


भीतर से बना हूँ जो , बाहर भी वही ’आनन’

दुनिया जो भले समझे, क्या है कि छुपाना है ।


-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 20 मई 2024

ग़ज़ल 372 [43F] : शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है


ग़ज़ल 372 [43F]

2122---2122---2122


शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है

रात फिर लगता है कुछ घपला हुआ है।


लोग सहमें है , नज़र ख़ामोश है

आस्थाओं पर कहीं हमला हुआ है ?


लोग क्यों  नज़रें चुरा कर चल रहे अब,

मन का दरपन फिर कहीं धुँधला हुआ है ।


शहर के हालात कुछ अच्छे न दिखते,

मज़हबी कुछ सोच से गँदला हुआ है ।


रोशनी के नाम पर लाए अँधेरे ,

कौन सा यह रास्ता निकला हुआ है ?


मुफ़्त राशन, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बिजली

आदमी बस झूठ से बहला हुआ है ।


आज ’आनन’ बुद्ध गाँधी की ज़रूरत

आदमी जब स्वार्थ का पुतला हुआ है ।


-आनन्द.पाठक-

सं 30-06-24


ग़ज़ल 371[42F]: कितने रंग बदलता है वह

ग़ज़ल 371 [42F]

21---121---121---122


कितने रंग बदलता है, वह

ख़ुद ही ख़ुद को छलता है, वह ।


सीधी सादी राहों पर भी

टेढ़े-मेढ़े  चलता है , वह ।


जितना जड़ से कटता जाता

उतना और उछलता है, वह ।


बन्द किया है सब दरवाजे

अपने आप बहलता है, वह ।


करते हैं सब कानाफ़ूसी -

जिस भी राह निकलता है वह ।


औरों के पांवों से चलता ,

अपने पाँव न चलता है, वह।


’आनन’ की तो बात अलग है,

दीप सरीखा जलता है, वह ।


-आनन्द.पाठक-

सं 30-06-24


रविवार, 19 मई 2024

ग़ज़ल 370 [41F]: मेरे सवाल का अब वो जवाब


ग़ज़ल 370 [41F]

1212----1122---1212---22


मेरे सवाल का अब वो जवाब क्या देगा 

इधर उधर की सुना कर उसे घुमा देगा


वो अपने आप को शायद ख़ुदा समझता है

यही नशा है जो, इक दिन उसे डुबा देगा ।


यह बात और की है, आप क्यों परीशाँ  है

ये वक़्त ही है जो सबको सबक़ सिखा  देगा ।


हुनर कमाल का उसका, न कोई सानी है

नहीं हो आग जहाँ, वह धुआँ उठा देगा ।


वही है मुफ़्त की बिजली वही चुके वादे

घिसे पिटे से हैं नारे, नया वो क्या देगा ।


जुबान पर है शहद और सोच में फ़ित्ना 

खबर किसी को न होगी वो जब दग़ा देगा ।


अब उसकी बात का ’आनन’ बुरा भी क्या माने

सिवा वो झूठ के दुनिया को और क्या देगा ।


-आनन्द.पाठक -

सं 30-06-24



शुक्रवार, 17 मई 2024

ग़ज़ल 369/ 14-अ : जब बनाने मैं चला था


ग़ज़ल 369/14-अ

2122---2122--2122---212


जब बनाने मैं चला था एक अपना आशियाँ

आँधियों ने धौंस दी थीं बिजलियों नें धमकियाँ


ज़िंदगी मेरी कटी हर रंग में हर रूप में

दो घड़ी तुम क्या मिले फिर उम्र भर की तल्ख़ियाँ ।


गिर पड़े तो उठ गए, जब उठ गए तो चल पड़े

राह अपनी खो गई कुछ मंज़िलों के दरमियाँ ।


यार के दीदार की चाहत में हम थे बेख़बर

हम जिधर गुज़रे उधर थीं क़ातिलों की बस्तियाँ ।


ऐश-ओ-इशरत शादमानी जब कभी हासिल हुई

अहल-ए-दुनिया बेसबब करने लगी सरगोशियाँ ।


कम नहीं यह भी कि हम ज़िंदा रहे हर हाल में

उम्र भर की फाँस थीं दो-चार पल की ग़लतियाँ ।


हार ’आनन’ ने कभी माना नहीं , लड़ता रहा 

फिर उसे सोने न दीं कुछ ख़्वाब की बेताबियाँ ।


-आनन्द.पाठक-



बुधवार, 15 मई 2024

ग़ज़ल 368/13-अ : क्या मुझको समझना है


ग़ज़ल 368/13-अ

221---1222//221---1222


क्या मुझको समझना है, क्या तुमको बताना है

किरदार अधूरा है, झूठा  ये फ़साना  है ।


इस एक निज़ामत के, तुम एक अदद पुर्जा ,

नाज़िम तो नहीं ख़ुद हो, जाने ये ज़माना   है ।


तुम चाँद सितारों की बातों में न खो जाना ,

मक़्सूद न ये मंज़िल , जीने का बहाना  है ।


रुकने से कभी तेरे, दुनिया तो नहीं रुकती

यह मन का भरम तेरा, कच्चा है पुराना है ।


माना कि बहुत दूरी, हम भी न चले होंगे,

जाना है बहुत आगे, हिम्मत को जगाना है ।


हटने से तो अच्छा है, लड़ना है अँधेरों से

हर मोड़ उमीदों का , इक दीप जलाना है ।


हो काम भले मुशकिल, डरना न कभी ’आनन’

जन गण के लिए हम को, इक राह बनाना है ।


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 14 मई 2024

ग़ज़ल 367[40F] : इज़हार-ए-मुहब्बत के आदाब हुआ करते


ग़ज़ल 367 [40F]

221---1222-// 221--1222


इज़हार-ए-मुहब्बत के आदाब हुआ करते,

अपनी तो सुनाते हो, मेरी भी सुना करते।


कहने को कहो जो भी, होना था यही आख़िर,

हमने तो वफ़ा की थी, तुम भी तो वफ़ा करते ।


आसान नहीं होता, जीवन का सफ़र ,हमदम!

कुछ सख़्त मराहिल भी, हस्ती में हुआ करते ।


सरमस्त जो होते हैं रोके से कहाँ रुकते

उनकी तो अलग दुनिया, मस्ती में जिया करते।


कब सूद, जियाँकारी होती  है मुहब्बत में ,

उल्फ़त का तक़ाज़ा है, दिल खोल मिला करते।


होती है मुहब्बत की, तासीर कभी तारी 

अग़्यार भी जाने क्यों, अपने ही लगा करते।


आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ’आनन’ तू परीशां क्यों

होतें है फ़ना सब ही, जो इश्क़ किया करते ।


-आनन्द.पाठक-


मराहिल = पड़ाव

 जियाँकारी = कदाचार ,बुरे आचरण/विचार

अग़्यार = ग़ैर लोग, अनजान लोग

सरमस्त = बेसुध, मतवाला

तासीर = असर, प्रभाव

सं 30-06-24

रविवार, 12 मई 2024

ग़ज़ल 366/47अ : मुशकिल है बहुत मुशकिल

ग़ज़ल 366/ 47-अ

221---1222// 221-1222


मुश्किल है बहुत मुश्किल अपनों से विदा लेना

नायाब हैं ये आँसू, पलकों में छुपा लेना  ।


किस दिल में तुम्हे रहना, अधिकार तुम्हारा है, 

राहों में अगर अगर मिलना , नज़रे न चुरा लेना ।


जो साथ तुम्हारे हैं, मुंह मोड़ के चल देंगे ,

जो रूठ गए अपने, उनको तो मना लेना ।


हैं लोग बहुत ऐसे, सब कुछ न जिन्हें मिलता

हासिल जो हुआ तुमको, बस दिल से लगा लेना।


जीवन का सफ़र लम्बा, आसान नहीं होता ,

अपना जो लगे तुमको, हमराज़ बना लेना ।


महफ़िल में तुम्हारे जब, कल मैं न रहूँ शामिल

पर गीत मेरे होंगे, अधरों पे सजा लेना ।


’आनन’ जो हुआ पागल, आदत न गई उसकी

राहों में पड़े काँटे, पलको से उठा लेना ।


-आनन्द. पाठक- 


शनिवार, 11 मई 2024

ग़ज़ल 365 [39F]: अच्छा हुआ कि आप जो

 ग़ज़ल 365[39F]

221---2121---1221---212


अच्छा हुआ कि आप जो आए नहीं इधर

पत्थर लिए खड़े अभी कुछ लोग बाम पर


श्रद्धा के नाम पर  खड़ी अंधों की भीड़ है

जाने किधर को ले के चलेगा यह राहबर ।


मिलता है दौड़ कर जो गले से, तपाक से

मिलिए उस आदमी से तो दामन सँभाल कर।


वैसे तुम्हारे शहर का हमको नहीं पता ,

लेकिन हमारे शहर का माहौल पुरख़तर !


आँखों में ख़ास रंग का चश्मा चढ़ा हुआ ,

देखा न उसने सच कभी , चश्मा उतार कर।


हालात शादमान कि ना शादमान हो,

जीना यहीं है छोड़ के जाना है अब किधर ।


ऐसी तुम्हारी जात तो ’आनन’ कभी न थी

कुछ माल-ओ-ज़र बना लिए दस्तार बेच कर ।


-आनन्द पाठक-


शादमान, नाशादमान = सुख-दुख , हर्ष विषाद

जात = व्यक्तित्व

माल-ओ- ज़र = धन दौलत

दस्तार = पगड़ी ,इज्जत

सं 30-06-24





मुक्तक 10 [ चुनावी]

 मुक्तक 10 : चुनावी मुक्तक


:1:

राजतिलक की है तैयारी

सब ही माँगे भागीदारी ,

एक हमी तो ’हरिश्चन्द्र; हैं

बाक़ी सब हैं भ्रष्टाचारी ।

:2:

कुरसी देख देख मन डोले

माल दिखा तो पत्ता खोले

भरे तराजू मेढक सारे

कैसे कोई इनको तोले

:3:

सबके अपने अपने नारे

कर्ज माफ कर देंगे सारे

यह अपनी "गारंटी" भइया

'वोट' हमें जब देगा प्यारे !

:4:

रोजगार हम घर घर देंगे

तुझको भी हम अवसर देंगे

मुफ्त रेवड़ी राशन-पानी

से तेरा हम घर भर देंगे


:5:

ये सब हैं मौसामी परिंदे

’वोट’ माँगना- इनके धन्धे

वोट जिसे भी चाहे देना

आँख खोल कर देना , बंदे !

-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 10 मई 2024

मुक्तक 09 [चुनावी]

चुनावी मुक्तक 

:1:

खबरों का बाजार गर्म है,
राजनीति में झूठ धर्म है,
भाँज हवा में तलवारें बस
हर चुनाव का यही मर्म है ।

2:
वादे हैं वादों का मौसम
जन्नत भी लाकर देंगे हम
’वोट’ हमी को देना प्यारे!
बाद कहाँ तुम ! बाद कहाँ हम !

;3:
ऊँची ऊँची फ़ेंक रहा ,वह
अपनी रोटी सेंक रहा, वह
जुमलों का बाज़ार सजाए -
सच कहने से झेंप रहा, वह ।

:4:
कितना हूँ मैं भोला भाला
ना खाया , ना खाने वाला
पहले आने दे ’कुरसी’ पर
राम राज फिर आने वाला ।

;5:
सुन मेरे आने की आहट
दे दे अपना वोट फटाफट
भर दूँगा मैं ’खाता’ तेरा 
गिरते रहना नोट खटाखट ।

-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 9 मई 2024

दोहा 17 : चुनावी दोहे

   दोहे 17: चुनावी दोहे


आँसू चार बटोर कर, भरी सभा छलकाय ।
इसी बहाने हॊ सही ,चन्द वोट  मिल जाय॥

झूठ बोल कर चल दिया, अफ़वाहों का दौर ।
सच की कसमें खा रहा, झूठों का सिरमौर ॥

मार गुलाटी आ गए, पलटू  जी इस पार ।
कहीं न जाना अब उन्हें, कहते बारम्बार ।

संविधान के नाम पर, करते है हुड़दंग ।
चील कबूतर कर रहें, साथ साथ सतसंग ।।

करना धरना कुछ नहीं, करते है बकवास ।
ऐसे नेता पर करे , क्या कोई विश्वास ॥

ग़ज़ल 364/30 A: ठोकर लगी किसी को--

 



ग़ज़ल  364/30 A

221--2122   // 221---2122


ठोकर लगी किसी को, आँखें खुली किसी की 

गिर कर सँभल भी जाना, यह सीख ज़िंदगी की ।


रफ़्तार-ए-ज़िंदगी  से वह तेज दौड़ता है ,

चाहत हज़ार चाहत क्यों एक आदमी की ?


मरता था माल-ओ-ज़र पर, दुनिया से जब गया वह

इक दास्तान-ए-आख़िर, मुठ्ठी  खुली हुई की ।


परबत से, घाटियों से, चल कर यहाँ तक आई

सागर को क्या पता है, क्या प्यास इक नदी की ?


मँडरा रहें है बादल, आसार जंग के हैं ,

हर देश खौफ़ में है ,पीड़ा नई सदी की ।


सूरज कहाँ रुका है , दो-चार जुगनुओं से 

सबकॊ पता हमेशा  औक़ात रोशनी की ।


’आनन’ तमाम बातें , मालूम है तुम्हे भी , 

क्या बात मैने तुमसे, अब तक कोई नई की  ?


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 8 मई 2024

दोहा 16: सामान्य

 दोहा 16: सामान्य

अगर प्यार से बोलता, मैं भी जाता मान ।
इतना भी है क्या भरा, मन में अहम गुमान ।।

ग्यानी, ध्यानी लोग जो, हमे गयौ बतलाय ।
जिसकी जितनी उम्र है, उतना ही रुक पाय ॥

प्रेम प्रीत ना देखता, क्या है किसकी जात ।
होती रहती है जहाँ , दिल से दिल की बात ॥

खोटे सिक्के चल पड़े, जब उसके दो-चार ।
ख़ुद को कहने लग गया, हुनरमंद सौ बार ॥

सबकी मंज़िल एक है, भले अलग हों राह ।
जान रहे हैं यह सभी, फिर क्यों भरते आह ॥

अगर बंद है कर दिया, अपने मन का द्वार ।
फिर ना कोई आएगा, करने को उद्धार ॥

जंगल जंगल घूमता, खाक रहा क्यों छान ।
अपने अंदर जो बसा. उसको तो पहचान ॥

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 7 मई 2024

दोहा 16 : चुनावी दोहे

दोहा 16

आँसू चार बटोर कर, भरी सभा ढुलकाय
इसी बहाने ही सही, चंद वोट मिल जाय

मौसम नए चुनाव का, जुमलों की बौछार
जनता सुन सुन खुश हुई, जन्नत मेरे द्वार

बाँट रहे हैं 'रेवड़ी', सबको गले लगाय
"वोट हमें देना सखे !"- नेता जी मिमियाय

सोमवार, 6 मई 2024

ग़ज़ल 363 / 58-अ : कहने की बात और है--


ग़ज़ल 363 /58 -अ


221---2121---1221---212 [1]


कहने की बात और है, करने की बात और

कुछ कर्ज़ ज़िंदगी के हैं, भरने की  बात और ।


गमलों में जो उगे हैं बताएँगे क्या हमें ,

तूफ़ान आँधियों से निखरने की बात और ।


जड़ से कटे हुओं की तो दुनिया अलग रही

अपनी ज़मीन जड़ से सँवरने की बात और ।


बैसाखियों पे आप टँगे थे तमाम उम्र 

खुद के ही पाँव चलने उतरने की बात और ।


आसान रास्ते से तो चलते तमाम लोग

काँटों भरी हो राह गुजरने की बात और।


वादे हज़ार आप किए और चल दिए

अपने दिए ज़ुबान पे मरने की बात और ।


’आनन’ ये लूट पाट हुई रोज़ की ख़बर 

गुलशन,बहार, फूल की, झरने की बात और ।


-आनन्द.पाठक-





गुरुवार, 2 मई 2024

दोहा 15 : चुनावी दोहे

  दोहे 15 : चुनावी दोहे


चरण वंदना ’बॉस’ की, श्रद्धा का है रूप ।

अँधियारा कहना पड़े, जब विकास का धूप ॥ 


यह चुनाव का दौर है, सुन ले सबकी बात ।

जनता की सहनी पड़े, सह ले पद आघात ॥


प्रश्न हमारा आप से, सुन कर रहें न मौन ।

जीत रहें है जब सभी, हार रहा है कौन ॥


पप्पू , पप्पू मत कहो , पप्पू सब ना होय ।

पप्पू ढूँढन मैं चला, मिला न दूजा कोय ॥


नेता जी करने लगे, नैतिकता का जाप ।

’सतयुग’ से सीधे यहीं, आए हैं क्या आप ॥


वादे पर वादे करें, सपनों की भरमार ।

दूर खड़े ह्वै देखिए,  मतदाता की लार ॥


-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 1 मई 2024

ग़ज़ल 362[38F] : हम तेरा एहतराम करते हैं

 ग़ज़ल 362 [38F]

2122---1212---22


हम तेरा एहतराम करते हैं

याद भी सुबह-ओ-शाम करते हैं ।


नक्श-ए-पा जब कहीं दिखा तेरा

सर झुका कर सलाम करते हैं।


सादगी भी तेरी क़यामत है

बात यह ख़ास-ओ-आम करते हैं ।


इश्क़ के जानते नताइज़, सब 

इश्क़ के इन्तिज़ाम करते हैं ।


क्या तुझे दे सकेंगे हम, जानम !

ज़िंदगी तेरे नाम करते हैं ।


उनको इस बात की ख़बर ही नहीं

कि वो दिल में क़याम करते हैं ।


कब वो वादा निभाते हैं ’आनन’

हम निभाने का काम करते हैं ।


-आनन्द.पाठक- 

सं 29-06-24