गुरुवार, 23 मई 2024

ग़ज़ल 375 [51A] : बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब


ग़ज़ल 375 [51 A]

221---2121---1221---212[1]


बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब 

या तो नक़ाबपोश है या फिर है बेनिक़ाब


जिस आदमी की खुद की कभी रोशनी नहीं

औरों की रोशनी से चमकता है लाजवाब ।


सत्ता के जोड़-तोड़ में वह बेमिसाल है

उम्मीद कर रहें हैं कि लाएगा इन्क़िलाब ।


उस आदमी की डोर किसी और हाथ में

उड़ता है आसमान में उड़ता हे बेहिसाब।


वो झूठ को सच की तरह बोलता रहा

ऐसे ही लोग ज़िंदगी में आज कामयाब ।


उसकी नज़र में पहले तो शर्म-ओ-हया भी था

आता है सामने जो अब आता है बेहिजाब ।


’आनन’ जिधर भी देखिए हर शख़्स ग़मजदा

हर शख़्स की ज़ुबान पे तारी है ज़ह्र आब ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

इन्तिख़ाब = चुनाव

ज़ह्रआब = विष




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