ग़ज़ल 385[49F]
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औरों की तरह "हाँ’ मे मैने "हाँ’ नहीं कहा
शायद इसीलिए मुझे पागल समझ लिया ।
लफ़्ज़ों के ख़ल्त-मल्त से कुछ इस तरह कहा
जुमलों में जैसे फिर से नया रंग भर दिया ।
उसके तमाम झूठ थे तारीफ़ की मिसाल
मेरे तमाम सच को वो ख़ारिज़ ही कर दिया
वह आँख बन्द कर के कभी ध्यान में रमा
कुछ बुदबुदाया, भीड़ ने ’मन्तर’-समझ लिया।
गूँगी जमात की उसे जब बस्तियाँ दिखीं ,
हर बार वह चुनाव में पहले वहीं गया ।
’दिल्ली’ में जा के जब कभी गद्दीनशीं हुआ
घर के ही कोयले में ’ज़वाहिर’ उसे दिखा ।
कितनी अज़ीब बात थी सब लोग चुप रहे
’आनन’ ग़रीब था तो सरेआम लुट गया ।
-आनन्द.पाठक-
ख़ल्त-मत = फेट-फ़ाट , गड्म-गड्ड
सं 01-07-24
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