बुधवार, 29 मई 2024

ग़ज़ल 381[45F] : फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

 ग़ज़ल 381[45F]

2122---2122---2122--2 

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं]


फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

फिर नया करना बहाना छोड़िए, श्रीमन !


हम जो अंधे थे भुनाते आप थे सिक्के

खोटे सिक्कों का भुनाना छोड़िए, श्रीमन !


आप के जुमलों का सानी क्या कहीं होगा

हाथ पर सरसो उगाना छोडिए, श्रीमन !


सरफिरो की बस्तियाँ हैं, क्या ठिकाना है

हाथ में माचिस थमाना छोड़िए, श्रीमन !


आइना देखा कि शीशे का मकाँ देखा

देख कर पत्थर उठाना छोड़िए, श्रीमन !


बन्द कमरे में घुटन बढ़ने लगी कब से

खुशबुओं से तर बताना छोड़िए, श्रीमन !


जख़्म ’आनन’ के अगर जो भर नहीं सकते

फिर नमक इन पर लगाना छोड़िए, श्रीमन !


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


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