ग़ज़ल 371 [42F]
21---121---121---122
कितने रंग बदलता है, वह
ख़ुद ही ख़ुद को छलता है, वह ।
सीधी सादी राहों पर भी
टेढ़े-मेढ़े चलता है , वह ।
जितना जड़ से कटता जाता
उतना और उछलता है, वह ।
बन्द किया है सब दरवाजे
अपने आप बहलता है, वह ।
करते हैं सब कानाफ़ूसी -
जिस भी राह निकलता है वह ।
औरों के पांवों से चलता ,
अपने पाँव न चलता है, वह।
’आनन’ की तो बात अलग है,
दीप सरीखा जलता है, वह ।
-आनन्द.पाठक-
सं 30-06-24
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