ग़ज़ल 383 [47F]
2122---2122---212
जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी
किस तरह उलझा हुआ है आदमी
ज़िंदगी भर द्वंद में जीता रहा-
अपने अंदर जो बसा है आदमी ।
सभ्यता की दोड़ में आगे रहा
आदमीयत खो दिया है आदमी
ज़िंदगी की सुबह में सूली चढ़ा
शाम में उतरा किया है आदमी ।
देखता है ख़ुद हक़ीक़त सामने
बन्द आँखें कर रखा है आदमी ।
पैर चादर से सदा आगे रही
उम्र भर सिकुड़ा किया है आदमी।
चाह जीने की है ’आनन’ जब तलक
मर के भी ज़िंदा रहा है आदमी ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
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