मुझसे मेरे गीतों का ,प्रिय ! अर्थ न पूछो
कहाँ कहाँ से हमें मिलें हैं, दर्द न पूछो
जब भी मेरे दर्दों को विस्तार मिला है
तब जाकर इन गीतों को आकार मिला है
जब शब्दों को अपनी आहों में ढाला हूँ
तब जाकर इन गीतों को आवाज़ मिला है
जीवन की अधलिखी किताबों के पन्नों पर
किसने लिखे हैं पीड़ा के ये सर्ग ,न पूछो !
स्वप्नों में कुछ रूप तुम्हारा मैं गढ़ता हूँ
एक मिलन की आस लिए आगे बढ़ता हूँ
दुनिया ने कब मेरे सच को सच माना है?
अपनी राम कहानी मैं ख़ुद ही पढ़ता हूँ
जिन गीतों को सुन कर आंसू ढुलक गए हों
उन गीतों के क्या क्या थे सन्दर्भ , न पूछो
करनी थी दो बातें तुमसे ,कर न सके थे
उभरे थे सौ बार अधर पे ,कह न सके थे
कुछ तेरी रुस्वाई का डर ,कुछ अपना भी
छलके थे दो बूँद नयन में ,बह न सके थे
तुम कभी इधर आना तो ख़ुद ही पढ़ लेना
पथराई आंखों के क्या थे शर्त , न पूछो
मुझसे मेरे गीतों का .....
-आनन्द.पाठक
बुधवार, 29 फ़रवरी 2012
गीत 37: मुझसे मेरे गीतों का ....
शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
गीत 36 : दीन धरम -और- सच की बातें?
दीन धरम औ’ सच की बातें ? किस युग की बातें करते हो?
’सतयुग’ बीते सदियाँ गुजरी, तुम जिसकी बातें करते हो .
मैंने तो निश्छल समझा था, भेज दिया संसद में चुन के
मुझको क्या मालूम कि तुम भी बह जाओगे जैसे तिनके
सच पर ’ग्रहण’ लगाने वाले ’राहू-केतू ’मयख़ाने में
’उग्रह’ कभी न होने देंगे जब तक सत्ता वश में उनके
बेच दिया जब ख़ुद को तुमने ’सूटकेस’ की धन-दौलत पर
आदर्शों के अवमूल्यन की फिर तुम क्यों बातें करते हो ?
हाथ मिलाने वाले जो हैं ’गुणा-भाग’ कर हाथ मिलाते
उनको जितनी रही ज़रूरत, उतना ही बस साथ निभाते
रिश्तों में जो महक छुपी है ,’कम्पूटर’ से क्या पहचानो
आभासी दुनिया में रहते ,फिर तुम अपनी साख़ बताते
तौल दिया रिश्तों को तुमने ’हानि-लाभ’ के दो पलड़ों पर
अपनों के बेगानेपन पर, फिर तुम क्यों आहें भरते हो ?
बात जहाँ पे तय होनी थी ,कलम बड़ी तलवारों से
’मुझे चाहिए आज़ादी बस’- उछ्ल रहे थें जयकारो से
जो सरकारी अनुदानों पर पले हुए सुविधा रोगी थे
समर शुरू होने से पहले खिसक लिए पिछली द्वारों से
जब अपने पर आन पड़ी तो ’अगर-मगर’ कर बगल झांकते
फिर क्यों अपनी मुठ्ठी भींचे , यूँ ऊँची बातें करते हो ?
-आनन्द.पाठक-
[सं 28-04-19]
शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012
गीत 35: कर लो जितना पूजन अर्चन--...
कर लो जितना पूजन-अर्चन ,चाहे जितना पुष्प समर्पण
मन का द्वार नहीं खुल पाया फिर क्या मथुरा,काबा,काशी
कहने को तो अन्धकार में ,वह प्रकाश की ज्योति जगाते
अरबों के आश्रम है जिनके ख़ुद को निर्विकार बतलाते
जिस दुनिया से भाग गए थे लौट उसी दुनिया में आए
भक्तों की गठरी से अपनी गठरी का हैं वज़न बढ़ाते
मठाधीश बन कर बैठे हैं मार कुण्डली दान-पात्र पर
क्या अन्तर फिर रह जाता है हो भोगी या हो सन्यासी
सबके अपने अपने दर्शन सबकी अपनी चमक-दमक है
सबकी राहें एक दिशा की फिर भी राहें अलग-अलग हैं
क्षमा दया करुणा सब में है फिर काहे की मारा-मारी
’शबरी’ की कुटिया सूनी है हर आश्रम से अलग-थलग है
आँख मूंद कर प्रवचन करते ,अन्तर्नेत्र नहीं खुल पाया
मन प्यासा रह गया अगर तो फिर क्या तीरथ बारहमासी
छोड़ ’तपोवन’ आ पहुँचे है सत्ता के गलियारों में अब
भागीदारी खोज रहे हैं ’दिल्ली’ के दरबारों में अब
मेरे लिए तो सिंहासन है तेरे लिए ’चटाई ’ .बन्दे !
"दान-पुण्य’ कर मूढ़मते !कुछ जो तेरे अधिकारों में अब
वह भी कितने मायारत हैं आजीवन जो रहे सिखाते
" जनम-मरण इक शाश्वत क्रम है ईश्वर अंश जीव अविनाशी"
आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012
गीत 33 : कभी कभी इस दिल को.....
दुनिया लाख मना करती है अपनी गाता है
एक दीप भारी पड़ सकता है अँधियारों पर
सर पर बाँध कफ़न जो निकले सत्य विचारो पर
एक अकेली नौका जूझ रही है लहरों से
लोग रहे आदर्श झाड़ते खड़े किनारों पर
आँधी-पानी,तूफ़ां-बिजली राह रोकती हो-
अपनी धुन का पक्का राही कब रुक पाता है !
चरण वन्दना को आतुर हैं जो दरबारी हैं
कंठी-माला दंड-कमंडल लिए शिकारी हैं
हर चुनाव में कैसे कैसे स्वांग रचा करते
’स्विस-बैंक’ के खाताधारी लगे भिखारी हैं
खड़ा रहेगा साथ मिरे जिससे उम्मीदें थीं
ऐन वक़्त पर बिना रीढ का क्यों हो जाता है ?
जो लहरों के साथ साथ में बहा नहीं करते
जो सरकारी अनुदानों पर पला नहीं करते
जिसके अन्दर ज्योति-पुंज की किरणें बाकी हैं
अँधियारों की खुली चुनौती सहा नहीं करते
क्यों पीता है विष का प्याला सूली चढता है ?
जो दुनिया से हट कर अपनी राह बनाता है
कभी-कभी इस दिल को जाने .......
-आनन्द.पाठक
गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012
गीत 32: परदेशी बेटे के नाम......
ऐसे सपन कहाँ जुड़ते हैं विधिना ही जब ठोकर मारे
कल लगता था आस-पास हो, आज लगा कि दूर हो गए
’डालर’ के पीछे क्यों बेटा ! तुम इतने मजबूर हो गए ?
अथक तुम्हारी भाग-दौड़ यह मृगतृष्णा से ज्यादा क्या है
गठरी में ही धूप बाँधने वाले थक कर चूर हो गए
सपनों की दुनिया में खोये भूल गये क्यों दुनिया का सच ?
जितनी लम्बी चादर थी क्यों उस से ज्यादा पांव पसारे ?
वो बादल अब हवा हो गए जिस पर हमने आस लगाई
बरसे जाकर अन्य ठौर पर मेरी प्यास नहीं बुझ पाई
फिर भी रहीं दुआयें लब पर मन में शुभ आशीष वचन है
जग वालों से कैसे मैने अन्तर्मन की बात छुपाई !
उन रिश्तों की डोरी कब की टूट चुकी थी पता नहीं था
जिन रिश्तों की कस्में खाते रहते थे तुम साँझ- सकारे
आने को कह गए न आए घर आंगन मन सूना खाली
माँ से पूछो कैसे बीती ’होली’ ’दशमी’ और ’दिवाली’
हाथों में कजरौटा लेकर बूढ़ी ममता सोच रही है -
क्यों न लगाया उस दिन तुमको काला टीका नज़रों वाली
अनजाने भय के कारण मन बार बार क्यों सिहर उठा है ?
सत्य विवेचन के दर्पण में जब जब हमने रूप निहारे
अपनी अपनी सीमाएं हैं पीढ़ी का टकराव नहीं है
संस्कॄति की अपनी गरिमा है यह मन का बहलाव नहीं है
पश्चिम आगे ,पूरब पीछे ,सोच सोच का फ़र्क है ,बेटा !
एक वृत्त के युगल-बिन्दु हैं आपस में अलगाव नहीं है
केवल धन पे जीना-मरना ही तो अन्तिम सत्य नहीं है
मूल्यों पर भी जी कर देखो ,पा जाओगे के सुख के तारे
जो झूठे सपनों का सच था..........
आनन्द.पाठक