बुधवार, 28 नवंबर 2012

एक ग़ज़ल 35 : लोग अपनी बात कह कर....

2122    2122   2122    212
बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातु--फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल : लोग अपनी बात कह कर......


लोग अपनी बात कह कर फिर मुकर जाते हैं क्यों ?
आईने  के   सामने  आते  बिखर  जातें  हैं क्यों  ?

बात ग़ैरों  की चली तो  आप  आतिशजन  हुए
बात अपनो की चली  चेहरे  उतर  जाते  हैं क्यों  ?

इन्क़लाबी दौर  में  कुछ लोग क्यों   ख़ामोश हैं ?
मुठ्ठियां  भींचे  हुए घर   में  ठहर   जाते  हैं  क्यों?

हौसले   परवाज़  के लेकर  परिन्दे   आ  गए
उड़ने से ही ठीक पहले पर कतर  जातें हैं क्यों?

सच की बातें ,हक़ बयानी जब कि राहे-मर्ग  है
सिरफ़िरे कुछ लोग ज़िन्दादिल  उधर  जाते है क्यों?

पाक दामन साफ़ थे उनसे ही कुछ उम्मीद  थी
सामने नज़रें चुरा कर ,वो गुज़र  जातें हैं  क्यों ?

छोड़ ये सब  बात ’आनन’ किसकी किसकी  रोएगा
लोग ख़ुद को बेंच कर जाने निखर जातें हैं क्यों ?

-आनन्द.पाठक-
[सं 02-06-18]