ग़ज़ल 240 [05E]
221---1222 // 221--1222
दिल ने जो कहा मुझसे, मैं काश ! सुना होता
दुनिया को समझने में धोखा न हुआ होता
करता भी वुज़ू कैसे, मन साफ़ नहीं था जब
दिल और कहीं होता, सर सिर्फ झुका होता
तक़रीर तेरी ज़ाहिद माना कि सही लेकिन
मेरा भी सनम कैसा, मुझसे भी सुना होता
कूचे से तेरे गुज़रा, याद आए गुनह मेरे
दिल साफ़ रहा होता ,नादिम न हुआ होता
आग़ाज़-ए-मुहब्बत का होता है मुहूरत क्या
शिद्दत से कभी तुमने आग़ाज़ किया होता
औरों की तरह तुम भी अपना न मुझे समझा
जो बात दबी दिल में ,मुझसे तो कहा होता
दुनिया के मसाइल में, उलझा ही रहा ’आनन’
फ़ुरसत जो मिली होती, दर उनके गया होता ।
-आनन्द.पाठक-
वुज़ू = नमाज़ के पहले शुद्ध होना
तक़रीर = प्रवचन
आग़ाज़ = शुरुआत
मसाइल = मसले