शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007

दोहे 02: चुनावी दोहे

दोहे 2

नेता ऐसा चाहिए, जैसे सूप सुहाय ।
चन्दा ,चन्दा गहि रहे ,पर्ची देइ उड़ाय ॥

नेता जी बूझन लगे ,अब अदरक के स्वाद ।
वोट उगाने मे लगे. दे ’जुमले’  की खाद ॥

सत्ता जिसकी सहचरी , कुर्सी हुई रखेल ।
ऐसे  नेता घूमते , डाल कान में तेल  ॥

नेता से टोपी भली ,ढँक ले सारा पाप ।
नौकरशाही अनुचरी ,आगे आगे आप ॥

वैसे छाप अँगूठ थे ,निर्वाचन के पूर्व ।
जब से मंत्री बन गए, भये ज्ञान के सूर्य ॥

पद पखारने आ रहें, नेता ले जयमाल ।
लगता है सखि !आ गया, नया चुनावी साल ॥

नेता जी जब हो गए, लूटपाट में सिद्ध ।
चमचे भी होने लगे, शनै शनै समृद्ध ॥

-आनन्द.पाठक-
सं 10-07-24

[सं 18-08-18]



बुधवार, 17 अक्तूबर 2007

दोहे 01: चुनावी दोहे



दोहे 01 

झूठ बोलना हो गया, राजनीति का धर्म । 
आँखों में पानी नहीं, फिर काहे का शर्म॥

सामाजिक इन्साफ की, ऐसे देवें  हाँक ।
नफ़रत फैली शहर में ,गाँव  गाँव में पाँक ॥

दल बदली करने लगे ,तपे तपाये लोग ।
 बात कहाँ आदर्श की,अवसरवादी योग ॥

लोकसभा देने लगी  ,निर्वाचन की टेर ।
एक जगह जुटने लगे,कौआ -हंस-बटेर ॥

’गाँधी टोपी’ पहन कर,  निर्वाचन कम्पेन ।
’डीनर’ करते ’ताज’ में, हाथ लिए 'शम्पेन॥

 जिसने  जितनी  बेंच दी ,'टोपी' और 'जमीर ' ।
राजनीति में हो गयी , उतनी ही जागीर ॥

लँगड़ा है  ’स्केट’ पर  ,अँधा लिए कमान ।
गूंगा गुंगियाता फिरे, भारत देश महान  ॥

-आनन्द.पाठक-
सं 10-07-24