रविवार, 30 जुलाई 2023

ग़ज़ल 333[08] : कुछ लोग बस हँसेंगे

 ग़ज़ल 333 [08]


221--2121----1221---212


 कुछ लोग बस हँसेंगे, तुझे पाएमाल कर

अपना गुनाह-ए-ख़ास तेरे सर पे डाल कर


कितना बदल गया है ज़माना ये आजकल

दिल खोलना कभी तो, जरा देखभाल कर


लोगों ने कुछ भी कह दिया तू मान भी लिया

अपनी ख़िरद का कुछ तो ज़रा इस्तेमाल कर


वह वक़्त कोई और था, यह वक़्त और है

जो कह रहा निज़ाम, न उस पर सवाल कर


सौदा न कर वतन का, न अपनी ज़मीर का

मिट्टी के कर्ज़ का ज़रा कुछ तो खयाल कर


इन बाजुओं में दम अभी हिम्मत है, हौसला

फिर क्यों करूँ मै फ़ैसला, सिक्के उछाल कर


’आनन’ सभी की ज़िंदगी तो एक सी नहीं

हासिल है तेरे पास जो, उससे कमाल कर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

ख़िरद = अक़्ल

पाएमाल =बरबाद 

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

ग़ज़ल 332 [07] : आदमी की सोच को यह क्या हुआ है

 ग़ज़ल 332 [07]


2122---2122---2122


आदमी की सोच को यह क्या हुआ है

आज भी कीचड़ से कीचड़ धो रहा है


मजहबी जो भी मसाइल, आप जाने

दिल तो अपना बस मुहब्बत ढूँढता है


मन के अन्दर ही अँधेरा और उजाला

देखना है कौन तुम पर छा गया है


ज़िंदगी की शर्त अपनी, चाल अपनी

कब हमारे चाहने से क्या हुआ है ।


कौन मानेगा तुम्हारी बात कोई 

बात अब तुमको बनाना आ गया है


देख सकते हैं मगर हम छू न सकते

चाँद नभ का है हमारा कब हुआ है ।


मौसिम-ए-गुल में कहाँ वो रंग ’आनन’

जो गुज़िस्ताँ दौर का होता रहा है ।


-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

ग़ज़ल 331[06] : ऐसी क्या हो गईं अब हैं मजबूरियाँ

 ग़ज़ल 331

212---212---212---212


ऐसी क्या हो गईं अब हैं मजबूरियाँ

लब पे क़ायम तुम्हारे है ख़ामोशियाँ


कल तलक रात-दिन राबिता में रहे

आज तुमने बढ़ा ली है क्यॊं दूरियाँ


एक पल को नज़र तुम से क्या मिल गई

लोग करने लगे अब है सरगोशियाँ


सोच उनकी अभी आरिफ़ाना नहीं

शायरी को समझते हैं लफ़्फ़ाज़ियाँ


ज़िंदगी भर जो तूफ़ान में ही पले

क्या डराएँगी उनको कभी बिजलियाँ


एक तुम ही तो दुनिया में तनहा नहीं’

इश्क़ में जिसको हासिल है नाकामियाँ


तेरी ’आनन’ अभी तरबियत ही नहीं

इश्क की जो समझ ले तू बारीकियाँ



-आनन्द.पाठक-




शनिवार, 15 जुलाई 2023

मौसम बदलेगा—एक समीक्षा---[ राम अवध विश्वकर्मा ]

 

[ नोट – मेरी किताब –मौसम बदलेगा – [ गीत ग़ज़ल संग्रह]  की एक संक्षिप्त समीक्षा, आदरणीय राम अवध विश्वकर्मा जी ने की है जो मैं इस पटल पर लगा रहा हूं।ग्वालियर निवासी श्री विश्वकर्मा जॊ सरकारी सेवा से निवृत्त हो, फ़ेसबुक और Whatsapp के मंचीय शोरगुल से दूर,अलग एकान्त साहित्य सृजन में साधनारत हैं।

आप स्वयं एक समर्थ ग़ज़लकार है एव ग़ज़ल के एक सशक्त हस्ताक्षर भी ।आप की अबतक 7- पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है जिसमे आप का नवीनतम ग़ज़ल संग्रह “तंग आ गया सूरज” का हाल ही में प्रकाशित हुआ है।आप की रचनाओं पर एम0फिल0 पी0 एच0 डि0 के कुछ शोधार्थियों द्वारा भी काम किया जा रहा है।] विश्वकर्मा जी का बहुत बहुत धन्यवाद—सादर]

 

       समीक्षा पर आप भी अपने विचार प्रगट कर सकते है

 

मौसम बदलेगा—एक समीक्षा

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"मौसम बदलेगा" श्री आनन्द पाठक जी की  गीत,  ग़ज़ल ,मुक्तक से सुसज्जित अभी हाल में प्रकाशित हुई पुस्तक है। यह उनकी दसवीं पुस्तक है। इससे पहले चार व्यंग्य संग्रह, चार गीत ग़ज़ल संग्रह और एक माहिया संग्रह की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक विधाओं में अपनी लेखनी का हुनर दिखाने वाले आनन्द पाठक जी को गीत, ग़ज़ल ,माहिया आदि पर न केवल अच्छी पकड़ है वरन उनके व्याकरण का भी गहराई से ज्ञान है।

एक बार मैं नेट पर ग़ज़ल  ज़िहाफ़ के बारे में सर्च कर रहा था तो मुझे उनका ब्लॉग  www.aroozobaharblogspot.com दिखाई दिया। उसमें लगभग 87 ब्लॉग हैं।उस पूरे ब्लॉग को पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि ग़ज़ल के अरूज़ के लिये अन्यत्र कहीं भटकने की ज़रुरत नहीं है। बड़े सरल एवं विस्तार से बारीकी के साथ अरूज़ के हर पहलू पर इसमें चर्चा की गई है। यहीं से मेरा परिचय पाठक जी से हुआ। उनकी सरलता सहजता ने इस कदर मुझे प्रभावित किया कि उनके लेखन के साथ साथ उनका भी मुरीद हो गया।

          ' मौसम बदलेगा ' शीर्षक उनके एक गीत से लिया गया है। जिसके बोल हैं '

 

 सुख का मौसम, दुख का मौसम, आँधी पानी का हो मौसम,

 मौसम का आना जाना है , मौसम है मौसम बदलेगा।

 

यह गीत आशा का गीत है। पुस्तक में 99 ग़ज़लें, 08 नई कविता ( छन्द मुक्त  ), 05 मुक्तक और 09  गीत हैं।

होली की ग़ज़ल  नज़ीर अकबराबादी की याद दिला देती है। होली पर शेर देखें-

 

करें जो गोपियों की चूड़ियाँ झंकार होली में

बिरज में खूब देती है मज़ा लठमार होली में

अबीरों के उड़े बादल कहीं है फाग की मस्ती

कहीं गोरी रचाती सोलहो श्रृंगार होली में

 

मुफलिस की ज़िन्दगी में अक्सर अँधेरा ही रहता है।  सूरज उगता तो हर दिन है लेकिन उसके घर तक रोशनी नहीं पहुँचती। यह शेर उनकी व्यथा को बखूबी बयान करता है।

 

जीवन के सफ़र में हाँ ऐसा भी हुआ अक्सर

ज़ुल्मत न उधर बीती सूरज न इधर आया

 

देश के नेता सत्ता के लिए दीन धरम ईमान सब कुछ त्याग देते हैं । उनके लिये ये सब निरर्थक हैं। कुर्सी के लिये लालायित ऐसे नेताओं पर उनका एक शेर देखें

'जब दल बदल ही करना तब दीन क्या धरम क्या

हासिल हुई हो कुरसी ईमान जब लुटाकर'

 

इस दुनिया में राजा रानी पंडित मुल्ला आदि का भले ही लोग लेबल लगाकर भेद भाव के साथ जी रहे हों लेकिन मौत की नज़र में न कोई छोटा है न बड़ा। इसी से संदर्भित एक शेर देखें

 

' न पंडित न मुल्ला न राजा न रानी

रहे मर्ग में ना किसी को रियायत'

 

इतिहास गवाह है जनता जब शासन तंत्र से ऊब जाती है तब वह परिवर्तन पर आमादा हो जाती है और वह भ्रष्ट तंत्र को जड़ से.उखाड़ फेंकती है। शायर ने इस कटु सत्य को अपने इस शेर के माध्यम से रखने की कोशिश की है-

 

'मुट्ठियाँ इन्किलाबी भिचीं जब कभी

ताज सबके मिले ख़ाक में क्या नहीं'

 

न्याय व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य देखें

 

'क़ातिल के हक़ में लोग रिहाई में आ गये

अंधे भी चश्मदीद गवाही में आ गये'

 

आज की लीडरशिप पर शायर सवाल उठाते हुये शायर

कहता है—

 

' ऐ राहबर ! क्या ख़ाक तेरी रहबरी यही

हम रोशनी में थे कि सियाही मे आ गये'

 

इस देश की सियासत ने अपनी तहज़ीब को गालियों के हाथ गिरवी रख दी है। दिन ब दिन उसके गिरते स्तर से दुखी होकर शायर कहता है-

 

' अब सियासत में बस गालियाँ रह गईं

ऐसी तहज़ीब को आजमाना भी क्या'

'चोर भी सर उठाकर हैं चलने लगे

उनको कानून का ताजियाना भी क्या

 

उनके कुछ मुक्तक  देखिये जो आजकल के हालात को बखूबी बयान करते हैं

 

यह चमन है हमारा तुम्हारा भी है

खून देकर सभी ने सँवारा भी है

कौन है जो हवा में जहर घोलता

कौन है वो जो दुश्मन को प्यारा भी है

 

मौसम बदलेगा एक नायब क़िताब है। इसकी ग़ज़ले, गीत,मुक्तक आदि पाठक को अंत तक पढ़ने पर मजबूर करते हैं। कहीं भी उबाऊपन महसूस नहीं होता ।

 

पुस्तक का नाम - मौसम बदलेगा

प्रकाशक - अयन प्रकाशन,  उत्तम नगर,  नई दिल्ली

मूल्य- रुपये 380/-

 

समीक्षक- राम अवध विश्वकर्मा ग्वालियर (म. प्र.)

सम्पर्क 94793 28400


 

 

ग़ज़ल 330[ 06] : देखा जो कभी तुम ने

 ग़ज़ल 330[ 06]


221---1222--// 221--1222


देखा जो कभी तुमको, खुद होश गँवा बैठे

क्या तुमको सुनाना था ,क्या तुमको सुना बैठे


कुछ बात हुआ करतीं पर्दे की तलब रखती

यह क्या कि समझ अपना, हर बात बता बैठे


मालूम हमें क्या था बदलेगी हवा ऐसी

हर बार हवन करते, हम हाथ जला बैठे


यह राह फ़ना की है, अंजाम से क्या डरना

जिसका न मुदावा है, वह रोग लगा बैठे


रोके से नहीं रुकता, लगता न लगाने से

इस बात से क्या लेना, दिल किस से लगा बैठे


चाँदी के क़लम से कब, सच बात लिखी तुमने

सोने की खनक पर जब दस्तार गिरा बैठे


उम्मीद तो थी तुम से, तुम आग बुझाओगे

नफ़रत को हवा देकर तुम और बढ़ा बैठे ।


आदात तुम्हारी क्या अबतक है वही 'आनन'

कोई भी  मिला तुम से बस दर्द सुना बैठे ?


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
दस्तार = पगड़ी, इज्जत

मुदावा = इलाज


बुधवार, 12 जुलाई 2023

ग़ज़ल 329[05] : तुम्हारे ही इशारों पर--

 ग़ज़ल 329 /05


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे ही इशारों पर, बदलते हैं यहाँ मौसम

कभी दिल शाद होता है ,कभी होती हैं आँखें नम ।


ये ख़ुशियाँ चन्द रोज़ां की,  कब आती हैं चली जातीं

कभी क्या मुख़्तसर होती किसी की दास्तान-ए-ग़म


तरीक़ा आजमाने का तुम्हें लगता यही वाज़िब

सितम जितना भी तुम कर लो, नहीं होगी मुहब्बत कम


अजब है ज़िंदगी मेरी, न जाने क्यॊ मुझे लगता

कभी  लगती है अपनॊ सी ,कभी हो जाती है बरहम


रहेगा सिलसिला क़ायम सवालों का, जवाबों का

नतीज़ा एक सा होगा , ये आलम हो कि वो आलम


जरूरत ही नही होगी हथेली में लिखा है क्या

तुम्हें  इन बाजुओं पर हो भरोसा जो अगर क़ायम


परेशां क्यों है तू ’आनन’, ज़माने से हैं क्यॊ डरता

ये दुनिया अपनी रौ में है तू ,अपनी रौ मे चल हरदम



-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

मुख़्तसर  == छो्टी, संक्षेप में

बरहम = तितर बितर. नाराज़