गुरुवार, 27 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 279 [44इ] : समझना ही न चाहो तुम--

 ग़ज़ल 279/44

1222---1222---1222---1222


समझना ही न चाहो तुम, कहाँ तक तुमको समझाते

हम अपनी बेगुनाही की कसम कितनी भला खाते


तुम्हे फ़ुरसत नहीं मिलती कभी ख़ुद की नुमाइश से

हक़ीक़त सब समझते हैं, ज़रा तुम भी समझ जाते


समन्दर ने डुबोया है मेरी कश्ती किनारे पर

तमाशा देखने तुम भी किनारे तक चले आते 


बहुत सी बात ऐसी है कि अपना बस नहीं चलता

फ़साना बेबसी का काश! हम तुमको सुना पाते


अगर दिल साफ़ यह होता नशे में झूमते रहते

जिधर हम देखते तुमको, उधर तुम ही नज़र आते


बहुत लोगो ने समझाया कि उनके रास्ते बेहतर

मगर यह छोड़ कर राह-ए-मुहब्बत हम कहाँ जाते 


बहुत आसान होता है उठाना उँगलियाँ ’आनन’

खुशी होती अगर तुम खुद जो कद अपना बढ़ा पाते


-आनन्द पाठक-


शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

मुक्तक 08/ 01E : दीपावली पर

 कुछ मुक्तक 05E : दीपावली पर


:1:

पर्व दीपावली का मनाते चलें

प्यार सबके दिलों में जगाते चलें

ये अँधेरे हैं इतने घने भी नहीं

हौसलों से दि्ये हम जलाते चलें


:2:

आग नफ़रत की अपनी मिटा तो सही

तीरगी अपने दिल की हटा तो सही

इन चराग़ों की जलती हुई रोशनी

राह दुनिया को मिल कर दिखा तो सही


:3:

कर के कितने जतन प्रेम के रंग भर

अल्पनाएँ सजा कर खड़ी द्वार पर

एक सजनी जला कर दिया साध का

राह ’साजन’ की तकती रही रात भर


:4:

प्रीति के स्नेह से प्राण-बाती जले

दो दिये जल रहे हैं गगन के तले

लिख रहें हैं कहानी नए दौर की

हाथ में हाथ डाले सफ़र पर चले 


:5:

घर के आँगन में पहले जलाना दिये

फिर मुँडेरों पे उनको  सजाना. प्रिये !

राह सबको दिखाते रहें दीप ये-

हर समय रोशनी का ख़जाना लिए ।


-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 278[43ई] : अमानत में करते नहीं हम --

 ग़ज़ल 278


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अमानत में करते नहीं हम ख़यानत

न छोड़ी कभी हमने अपनी शराफ़त


रही चार दिन की मेरी पारसाई

गई ना मगर बुतपरस्ती की आदत


समझ जाएगा एक दिन वो यक़ीनन

मेरी बेबसी की अधूरी हिक़ायत


क़फ़स में अभी मुझको जीना न आया

ये दिल करता रहता हमेशा बग़ावत


 उमीदों पे क़ायम है दुनिया हमारी

कभी होगी हासिल तुम्हारी क़राबत


वही दास्तान-ए-फ़ना ज़िंदगी के

हमेशा ही रहता है फिक्र-ए- क़यामत



भले तुम रहो लाख सजदे में ’आनन’

लगी लौ न दिल में तो फिर क्या इबादत


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

पारसाई   = संयम, इंद्रिय निग्रह

हिक़ायत   = कहानी

ग़ज़ल 277 [42ई] : छोड़ दूँ मैं शराफ़त यह फ़ितरत नहीं

 ग़ज़ल 277[ 42 ई]


212---212---212---212


छोड़ दूँ मैं शराफ़त यह फ़ितरत नहीं 

सर कहीं भी झुका दूँ, ये आदत नहीं


आप से मैं मिलूँ तो मिलूँ किस तरह

आप की सोच में अब सदाक़त नहीं


हौसले इन चरागों में भरपूर हैं

तोड़ सकती हवाएँ ये ताक़त नहीं


आइना देख कर तुम करोगे भी क्या

 तुमको होनी तो कोई नदामत नहीं


दिल में कुछ और है, ज़ाहिरन और कुछ

यह दिखावा है, कोई रफ़ाक़त नहीं


जाने क्यों वह ख़फ़ा है बिना बात का

आजकल होती उसकी इनायत नहीं


सब तुम्हारे मुताबिक़ हो ’आनन’ यहाँ

अहले दुनिया की ऐसी रिवायत नहीं  ।


-आनन्द.पाठक-


नदामत = प्रायश्चित अफ़सोस


बुधवार, 12 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 276 [41इ] : शाख से पत्तियाँ टूट कर

 ग़ज़ल 276 [41इ]

212--212--212


शाख से पत्तियाँ टूट कर

उड़ गई हैं न जाने किधर


जब मिलन के लिए चल पड़ी

फिर न लौटी नदी अपने घर


चार दिन की खुशी के लिए

दौड़ते ही रहे उम्र भर


एक पल का ग़लत फ़ैसला

कर गया ज़िंदगी दर बदर


आशियाने परिंदो के थे-

अब न आँगन में है वो शजर 


इक नज़र भर तुम्हें देख लूँ

ज़िंदगी एक पल तो ठहर


बात बरसों की सब कर रहे

अगले पल की न कोई ख़बर


तुमको ’आनन’ पता क्या नहीं

इश्क का है सफ़र पुरख़तर


-आनन्द.पाठक- 


ग़ज़ल 275 [ 40इ] : वह अपने आप पर झुँझला रहा है

 ग़ज़ल 275

1222---1222---122


वह अपने आप पर झुँझला रहा है

कोई उसका उजाला खा रहा है


समय रहता हमेशा एक सा कब

इशारों में समय समझा रहा है


ये लहजा आप का लगता नहीं है

कोई है, आप से बुलवा रहा है


चमन की तो हवा ऐसी नहीं थी

फ़ज़ा में ज़ह्र भरता जा रहा है


भले मानो न मानो सच यही है

पस-ए-पर्दा कोई भड़का रहा है


वो देता लाख अपनी है सफ़ाई

भरोसा क्यों नहीं हो पा रहा है


जिसे अपना समझते हो तुम ’आनन’

तुम्हारे काम कब वो आ रहा है


-आनन्द. पाठक--


पस-ए-पर्दा  = पर्दे के पीछे से 


रविवार, 9 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 274 [39 ई] :चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर

 ग़ज़ल 274[39 E]


212--212--212--212

चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर

जान कर भी तू अनजान है बेख़बर


प्यार मे हम हुए मुब्तिला इस तरह

बेखुदी मे न मिलती है अपनी खबर


यूँ ही साहिल पे आते नहीं खुद ब खुद

डूब कर ही कोई एक लाता  गुहर


या ख़ुदा ! यार मेरा सलामत रहे

ये बलाएँ कहीं मुड़ न जाएं उधर


अब न ताक़त रही, बस है चाहत बची

आ भी जाओ तुम्हे देख लूँ इक नज़र


ये बहारें, फ़ज़ा, ये घटा, ये चमन

है बज़ाहिर उसी का कमाल-ए-हुनर


उसकॊ देखा नहीं, बस ख़यालात में

सबने देखा उसे अपनी अपनी नजर


खुल के जीना भी है एक तर्ज-ए-अमल

आजमाना कभी देखना फिर असर


ज़िंदगी से परेशां हो ’आनन’ बहुत

क्या कभी तुमने ली ज़िंदगी की खबर ?


-आनन्द.पाठक-  

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 273[38E]: तहत पर्दे के इक पर्दा मिलेगा

 ग़ज़ल 273 [38E]

1222---1222---122


तहत पर्दे के इक पर्दा मिलेगा

अगर सोचूँ तो हमसाया मिलेगा


कहाँ तुम साफ़ चेहरा ढूँढत्ते हो

यहाँ सबका रंगा चेहरा मिलेगा


तलब बुझती नहीं है लाख चाहें

हमारा दिल तुम्हें प्यासा मिलेगा


भले ही भीड़ में दिखता तुम्हें है

मगर अन्दर से वह तनहा मिलेगा


हवाएँ ख़ौफ़ का मंज़र दिखाती

चमन का बाग़बाँ सहमा मिलेगा


शजर को डालियाँ कब बोझ लगती

वो अपने रंग में गाता मिलेगा


छुपा कर रंज़ो-ग़म रखता है दिल में

मगर ’आनन’ तुम्हें हँसता मिलेगा


-आनन्द.पाठक-


गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 272 [37इ] : ज़िंदगी रंग क्या क्या दिखाने लगी

 ग़ज़ल 272 /37इ

212---212---212---212

बह्र-ए-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम

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ज़िंदगी रंग क्या क्या दिखाने लगी

आँख नम थी मगर मुस्कराने लगी


यक ब यक उसके रुख से जो पर्दा उठा

रूबरू हो गई  मुँह छुपाने लगी


सामने जब मैं उनको नज़र में रखा

 फिर ये दुनिया नजर साफ आने लगी


बागबाँ की नज़र, बदनज़र हो गई

हर कली बाग़ की खौफ़ खाने लगी


मैं बनाने चला जब नया आशियाँ

बर्क़-ए-ख़िरमन मुझे क्यों डराने लगी ?


आप की जब से मुझ पर इनायत हुई

ज़िंदगी तब मुझे रास आने लगी


तुमको ’आनन’ कहाँ की हवा लग गई

जो ज़ुबाँ झूठ को सच बताने लगी ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

बर्क़-ए-ख़िरमन = आकाशीय बिजली

जो खलिहान तक जला दे


मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022

ग़ज़ल 271 [ 36इ]: इक अजब अनजान सा रहता है डर

 ग़ज़ल 271/36 ई


2122---2122--212


इक अजब अनजान सा रहता है डर

आजकल मिलती नहीं उसकी ख़बर


लौट आएँगे परिन्दे शाम तक -

मुन्तज़िर है आज भी बूढ़ा शजर


देश की माटी हमारी ख़ास है

ज़र्रा ज़र्रा है वतन का सीम-ओ-ज़र


पत्थरों के शहर में शीशागरी

कब तलक क़ायम रहेगा यह हुनर


दास्तान-ए-दर्द तो लम्बी रही

और ख़ुशियों की कहानी मुख़्तसर


उलझने हों, पेच-ओ-ख़म हो या बला

काटना होगा तुम्हें ही यह सफ़र


सब्र कर ’आनन’ कभी वो आएगा

तेरी आहों का अगर होगा असर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

मुन्तज़िर = इन्तज़ार में

सीम-ओ-ज़र   =चाँदी-सोना ,धन दौलत

शीशागरी  =  शीशे /कांच का काम

पेच-ओ-ख़म = मोड़ घुमाव