ग़ज़ल 279/44
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समझना ही न चाहो तुम, कहाँ तक तुमको समझाते
हम अपनी बेगुनाही की कसम कितनी भला खाते
तुम्हे फ़ुरसत नहीं मिलती कभी ख़ुद की नुमाइश से
हक़ीक़त सब समझते हैं, ज़रा तुम भी समझ जाते
समन्दर ने डुबोया है मेरी कश्ती किनारे पर
तमाशा देखने तुम भी किनारे तक चले आते
बहुत सी बात ऐसी है कि अपना बस नहीं चलता
फ़साना बेबसी का काश! हम तुमको सुना पाते
अगर दिल साफ़ यह होता नशे में झूमते रहते
जिधर हम देखते तुमको, उधर तुम ही नज़र आते
बहुत लोगो ने समझाया कि उनके रास्ते बेहतर
मगर यह छोड़ कर राह-ए-मुहब्बत हम कहाँ जाते
बहुत आसान होता है उठाना उँगलियाँ ’आनन’
खुशी होती अगर तुम खुद जो कद अपना बढ़ा पाते
-आनन्द पाठक-