बुधवार, 28 अगस्त 2013

गीत 46 : मिलन के पावन क्षणों में ....



चार  दिन की ज़िन्दगी से चार पल हमने चुराये
मिलन के पावन क्षणों में,दूर क्यों गुमसुम खड़ी हो ?

जानता हूँ इस डगर पर हैं लगे प्रतिबन्ध सारे
और मर्यादा खड़ी ले सामने  अनुबन्ध  सारे
मन की जब अन्तर्व्यथा नयनों से बहने लग गईं
तो समझ लो टूटने को हैं विकल सौगन्द सारे

हो नहीं पाया अभी तक प्रेम का मंगलाचरण तो
इस जनम के बाद भी अगले जनम की तुम कड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में .......

आ गई तुम देहरी पर कौन सा विश्वास लेकर   ?
कल्पनाओं में सजा किस रूप का आभास लेकर  ?
प्रेम शाश्वत सत्य है ,मिथ्या नहीं ,शापित नहीं है
गहन चिन्तन मनन करते आ गई चिर प्यास लेकर

केश बिखरे ,नयन बोझिल कह रही अपनी जुबानी
प्रेम के इस द्वन्द में तुम स्वयं से कितनी लड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में .....

हर ज़माने में लिखी  जाती रहीं कितनी  कथायें
कुछ प्रणय के पृष्ट थे तो कुछ में लिक्खी थीं व्यथायें
कौन लौटा राह से, इस राह पर जो चल चुका है
जब तलक है शेष आशा ,मिलन की संभावनायें

यह कभी संभव नहीं कि चाँद रूठे चाँदनी से
तुम हृदय की मुद्रिका में एक हीरे से जड़ी हो
मिलन के पावन क्षणों में .....

-आनन्द.पाठक
09413395592

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 51 : आप हुस्न-ओ-शबाब रखते हैं.....



2122--1212--22

आप हुस्न-ओ-शबाब रखते हैं
इश्क़ मेरे  भी  ताब रखते हैं

जान लेकर चलें हथेली  पे
हौसले इन्क़लाब  रखते  हैं

उनके दिल का हमें नहीं मालूम
हम दिल-ए-इज़्तिराब रखते हैं

जब भी उनके ख़याल में डूबे
सामने माहताब रखते  हैं

आप को जब इसे उठाना है
आप फिर क्यूँ हिज़ाब रखते हैं ?

मौसिम-ए-गुल कभी तो आयेगा
हम भी आँखों में ख़्वाब रखते हैं

अब तो बस,बच गया जमीर ’आनन
आज भी आब-ओ-ताब रखते हैं



-आनन्द.पाठक

शनिवार, 17 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 50 : वो शहादत पे सियासत कर गए...

2122--2122-212

वो शहादत पे सियासत कर गए
मेरी आंखों में दो आँसू भर गए

लोग तो ऐसे नहीं थेक्या हुआ ?
लाश से दामनकशां ,बच कर गए

देखने वाले तमाशा देख कर
राह पकड़ी और अपने घर गए

ये शराफ़त थी हमारी ,चुप रहे
क्या समझते हो कि तुम से डर गए?

सद गुनाहें याद क्यों आने लगे
बाअक़ीदत जब भी उनके दर गए

साथ लेकर क्या यहाँ से जाओगे
जो गये हैं साथ क्या लेकर गए

दिल के अन्दर तो कभी ढूँढा नहीं
ढूँढने आनन’ को क्यूँ बाहर गए
 
दामनकशां = अपना दामन बचा कर निकलने वाला
बाअक़ीदत =श्रद्धा पूर्वक


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 10 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 49[31] : आदर्श की किताबें...

221--2122 // 221-2122

आदर्श की किताबें पुरजोर बाँचता है
लेकिन कभी न अपने दिल में वो झाँकता है

जब सच ही कहना तुमको ,सच के सिवा न कुछ भी
फिर क्यूँ हलफ़ उठाते ,ये हाथ  काँपता है ?

फ़ाक़ाकशी से मरना ,कोई ख़बर न होती
ख़बरों में इक ख़बर है वो जब भी खाँसता है

रिश्तों को सीढ़ियों से ज़्यादा नहीं समझता
उस नाशनास से क्या उम्मीद  बाँधता है !

पैरों तले ज़मीं तो कब की खिसक गई है
लेकिन वो बातें ऊँची ऊँची ही हाँकता है

आँखे खुली है लेकिन दुनिया नहीं है देखी
अपने को छोड़ सबको कमतर वो आँकता है

कुछ फ़र्क़ तो यक़ीनन ’आनन’ में और उस में
मैं दिल को जोड़ता हूँ ,वो दिल को बाँटता है

-आनन्द पाठक-
09413395592

रविवार, 4 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 48[37] : दर्द-ए-उल्फ़त..

2122--1212--22

दर्द-ए-उल्फ़त है ,भोला भाला है
दिल ने मुद्दत से इसको पाला है

सैकड़ों तल्ख़ियां ज़माने  की
जाम-ए-हस्ती में हम ने ढाला है

मैं तो कब का ही मर गया होता
मैकदो ने मुझे सँभाला  है

जब हमें फिर वहीं बुलाना था
ख़ुल्द से क्यूँ हमें निकाला है

अब तो दैर-ओ-हरम के साए में
झूट वालों का बोलबाला है

हर फ़साना वो नामुकम्मल है
जिसमें तेरा नहीं हवाला है

आँख मेरी फड़क रही कल से
लगता वो आज आनेवाला है

आज तक हूँ ख़ुमार में ’आनन’
हुस्न ने जब से जादू डाला है


शब्दार्थ
मुद्दत = लम्बे समय से
तल्ख़ियां = कटु अनुभव
जाम-ए-हस्ती= जीवन के प्याले में
खुल्द = स्वर्ग से [ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन...]
नामुकम्मल =अधूरा है
खुमार = नशे में [ध्यान रहे चढ़ते हुए नशे को ’सुरूर’ कहते है
और उतरते हुए नशे को ’ख़ुमार’ कहते हैं

आनन्द.पाठक

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

एक ग़ज़ल 47[04] : वो चाहता है ...

221---2121---1221---212
एक ग़ज़ल 

वो चाहता है  तीरगी को रोशनी  कहूँ
कैसे ख़याल-ए-ख़ाम को मैं आगही कहूँ ?

ग़ैरों के दर्द का तुम्हें  एहसास ही नहीं
फिर क्या तुम्हारे सामने ग़म-ए-आशिक़ी कहूँ !

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी से जो फ़ुरसत मुझे मिले
रुदाद-ए-ज़िन्दगी मै कभी अनकही  कहूँ

जाने को था किधर ,कि मै जाने लगा  किधर ?
मैं  बेखुदी कहूँ कि इसे तिश्नगी कहूँ ?

’ज़र’ भी पड़ा है सामने ,’ईमान’ भी  खड़ा
’आनन’ किसे मैं छोड़ दूँ,किसको ख़ुशी,कहूँ

-आनन्द पाठक--