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एक ग़ज़ल: वो चाहता है--ओके
वो चाहता है तीरगी को रोशनी कहूँ
कैसे ख़याल-ए-ख़ाम को मैं आगही कहूँ ?
एक ग़ज़ल: वो चाहता है--ओके
वो चाहता है तीरगी को रोशनी कहूँ
कैसे ख़याल-ए-ख़ाम को मैं आगही कहूँ ?
वो” हाँ’ में”हाँ’ मिला रहा हर एक बात पर
’ उसका ये शौक़ है-’कहूँ कि बेबसी कहूँ ।
ग़ैरों के दर्द का तुम्हें एहसास ही नहीं
फिर क्या तुम्हारे सामने ग़म-ए-आशिक़ी कहूँ !
सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ ?
रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी से जो फ़ुरसत मुझे मिले
रुदाद-ए-ज़िन्दगी मै कभी अनकही कहूँ
जाने को था किधर ,कि मै जाने लगा किधर ?
मैं बेखुदी कहूँ कि इसे तिश्नगी कहूँ ?
’ज़र’ भी पड़ा है सामने ,’ईमान’ भी खड़ा
’आनन’ किसे मैं छोड़ दूँ,किसको ख़ुशी,कहूँ
-आनन्द पाठक--
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